केंद्र सरकार दवा कंपनियों के मार्केटिंग और विज्ञापन खर्च को नियामक की जांच के दायरे में लाने का विचार कर रही है।
कंपनियों से ऐसा कहा जा सकता है कि मार्केटिंग और विज्ञापन पर खर्च होने वाली राशि में कटौती कर उसका फायदा उपभोक्ताओं को दिया जाए।केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री रामविलास पासवान के सुझाव पर गठित फार्मास्युटिल एडवाइजरी फोरम (पीएएफ) ने बुधवार को हुई बैठक में एक विशेषज्ञ समूह के गठन की घोषणा की।
यह समूह विज्ञापन खर्च को कम करने के उपायों पर एक रिपोर्ट तैयार करेगा।फोरम ने कहा है कि घरेलू बाजार में प्रतिवर्ष 5,000 नई दवाओं के पैकेट आते हैं। हालांकि राष्ट्रीय औषधि कीमत प्राधिकरण (एनपीपीए) दवाओं के दामों पर नजर रखता है, लेकिन वह यह आकलन नहीं करता है कि बाजार में आनेवाली नई दवाओं के दाम वाजिब हैं या नहीं।
सरकार यह महसूस करती है कि जब तक इन कंपनियों द्वारा नई दवाओं के शुरुआती मूल्य पर नजर नहीं रखी जाएगी तब तक दामों को नियंत्रित करने वाला कोई भी कदम सार्थक नहीं होगा।वैसे एनपीपीए के चेयरमैन अशोक कुमार की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति इन नई दवाओं के दामों को हरसंभव नियंत्रित करने की संभावना पर विचार करेगी। इस समिति को एडवाइजरी फोरम की अगली बैठक से पहले अपनी सिफारिश सौंपनी है।
फोरम की बैठक के बाद पासवान ने पत्रकारों को बताया कि उनका मंत्रालय दवाओं के दामों को हर स्तर पर नियंत्रित करेगा। दवाओं की कुल घरेलू बिक्री का 80 प्रतिशत हिस्सा ब्रांडेड दवाओं का है और इन ब्रांडेड दवाओं के मूल्यों को नियंत्रित करने के लिए एक वर्किंग ग्रुप के गठन की भी घोषणा की गई।
फोरम ने यह सुझाव भी दिया कि जिला स्तर पर सस्ती जीवन रक्षक दवाओं के विकल्प को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इन जिलों में शुरू में एक स्टोर खुलेगा और सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियों से इन स्टोरों पर दवा उपलब्ध कराने के लिए कहा जाएगा। मंत्रालय इस तरह का भी निर्देश भी जारी कर सकता है कि सरकारी अस्पतालों में महंगी जीवन रक्षक दवाओं के बदले सस्ती वैकल्पिक दवाओं के इस्तेमाल को बढावा दिया जाए।
दवा उद्योग पहले ही कीमतों पर हस्तक्षेप से खफा था, अब जबकि दवा के दामों के प्रति उपभोक्ताओं को सजग करने की योजना (खासकर जीवन रक्षक दवाओं के संदर्भ में) के लिए एक वर्किंग ग्रुप की सिफारिश की गई है तो उद्योग इससे और परेशान हो सकता है।
इस वर्किंग ग्रुप ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट सौंपी है जिसमें कहा गया है कि दवाओं के पैकेट पर दामों को क्षेत्रीय भाषाओं में भी लिखा जाना चाहिए। काफी मशक्कत के बाद उद्योग पैकेट पर हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में दाम अंकित करने पर राजी हुआ। दवा उद्योग के विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर नई सिफारिशों को गंभीरता से लागू किया जाता है तो इससे एक और सरदर्द पैदा हो सकता है।