चुनाव की खातिर मुफ्त उपहारों और सब्सिडी (Freebies) तथा पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के खेतों में आग लगाए जाने की घटनाओं के बीच कोई रिश्ता एकदम नहीं नजर आता है लेकिन यह केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की नाकामी ही है कि किसानों को नि:शुल्क बिजली-पानी, रियायती दर पर उर्वरक और तयशुदा खरीद मूल्य जैसी पेशकश समाप्त नहीं की जा सकीं जबकि ये अप्रत्यक्ष तौर पर उत्तर भारत में हर साल जाड़ों के मौसम में होने वाले प्रदूषण और जन स्वास्थ्य संकट की वजह हैं।
किसानों का खरीफ की फसल के अवशेषों को जलाकर रबी की फसल की तैयारी करना बहुत पुराना सिलसिला नहीं है। पहले इन अवशेषों यानी पराली को हाथ से निकाला जाता था और उसे दोबारा मिट्टी में मिला दिया जाता था जिससे एक किस्म की कंपोस्ट खाद तैयार हो जाया करती थी।
प्रश्न यह है कि इसकी जगह फसल जलाने का सिलसिला क्यों शुरू कर दिया गया जबकि उससे मिट्टी भी खराब होती है और किसानों व उनके परिवारों तथा आसपास रहने वाली शहरी आबादी को सांस की विभिन्न बीमारियों का सामना करना पड़ता है? इस बदलाव की जड़ें बहुत तेजी से घट रहे जलस्तर में निहित हैं।
भूजल स्तर इसलिए तेजी से कम हुआ कि पानी के सस्ता या मुफ्त होने के कारण उसका बेतहाशा इस्तेमाल किया गया। इसे प्राय: पानी की बहुत अधिक खपत करने वाली धान की फसल उगाने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। हरित क्रांति के बाद सरकारों की ओर से भी धान की खेती करने पर भारी प्रोत्साहन है। वह भी इसकी खेती बढ़ने की एक वजह है।
घटते जलस्तर को देखते हुए सरकारें चिंतित हुईं। राज्य सरकारों ने ऐसे निर्देश जारी किए कि धान की रोपाई मॉनसून की शुरुआत होने के साथ ही की जाए जबकि इससे पहले रोपाई के लिए खेत तैयार करने के क्रम में नहरों या बोरवेल से पानी लिया जाता था।
बाद में बोआई का अर्थ फसल का बाद में तैयार होना। ऐसे में किसानों के पास खेतों को अगली फसल के लिए तैयार करने के लिए ज्यादा समय नहीं रह जाता। इस तरह पराली जलाने का सिलसिला खेतों को जल्दी तैयार करने के लिए शुरू हुआ क्योंकि इसमें खेतों को हाथ से साफ करने की तुलना में कम वक्त लगता है।
उन इलाकों में जाने वाले संवाददाता लिखते हैं कि किसानों को पराली जलाने के कारण मिट्टी और इंसानों पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों की जानकारी है लेकिन वे मानते हैं कि कुछ और कर पाना उनके लिए मुश्किल है। राज्य सरकारें खेतों से फसल अवशेष निकालने के उपकरण खरीदने के लिए सहायता देती हैं लेकिन इसका प्रभाव सीमित रहा है। शायद पूसा संस्थान द्वारा विकसित अल्पावधि में तैयार होने वाली फसल की नई किस्म मददगार साबित हो।
एक सुझाव यह है कि इन इलाकों में धान की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया जाए लेकिन ऐसा करने से किसान सड़कों पर उतर आएंगे। केंद्र सरकार द्वारा कृषि सुधार कानूनों को लागू करने की कोशिश के बाद दिल्ली में किसान करीब एक साल तक विरोध प्रदर्शन करते रहे। बाद में उन कानूनों को वापस ले लिया गया। इस प्रदर्शन और कदमवापसी ने दिखा दिया कि कृषि लॉबी सरकार से मिली वरीयता को बचाए रखने के मामले में कितनी ताकतवर है।
हरित क्रांति से जुड़ी सब्सिडी उस वक्त नेक इरादों के साथ दी गई लेकिन उत्पादकता में इजाफा होने पर प्रोत्साहन को खत्म करने की कोई व्यवस्था नहीं की गई। क्या गरीब और क्या अमीर, सभी किसानों ने इसे अपना स्थायी अधिकार मान लिया। आम आदमी पार्टी (आप) शासित पंजाब इस बात का अच्छा उदाहरण है कि कैसे सब्सिडी की स्थायी और नुकसानदेह प्रकृति से निजात पाना मुश्किल है।
आज पंजाब का बकाया कर्ज राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का 50 फीसदी
आप (AAP) को संसाधन संपन्न दिल्ली में जिन बातों ने सत्ता में बनाए रखा उसी का अनुकरण करते हुए आप ने वहां और भी नि:शुल्क तोहफों की घोषणा की। इसमें एक खास सीमा तक परिवारों को नि:शुल्क बिजली तथा महिलाओं को वित्तीय सहायता शामिल थी। नतीजा यह कि आज पंजाब का बकाया कर्ज राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का 50 फीसदी हो चुका है।
बिजली वितरण की दुर्दशा इस बात का एक और उदाहरण है कि कैसे कथित वोट बैंक (ज्यादातर किसान) को नि:शुल्क या रियायती बिजली प्रदान करने से बिजली की खराब गुणवत्ता या राज्यों के बिजली वितरण बोर्ड के बढ़ते कर्ज का एक दुष्चक्र निर्मित हुआ है।
बीते 10 वर्षों में केंद्र सरकार की कई अनुदान योजनाओं ने बिजली वितरण कंपनियों की समस्याओं को हल करने की कोशिश की लेकिन लोकलुभावनवाद के कारण ऐसा नहीं हो पाया।
कई राज्यों की वितरण कंपनियों ने अपने राजस्व अंतराल को आंशिक रूप से भरने का प्रयास किया है। इसके लिए नि:शुल्क उपहारों की भरपाई के लिए औद्योगिक तथा हाई टेंशन ग्राहकों को महंगी दरों पर बिजली देने की शुरुआत की गई। इससे भारत की छवि विनिर्माण के क्षेत्र में उच्च लागत वाले देश की बनने लगी।
इसमें कोई हर्ज नहीं कि आबादी के कमजोर या जरूरतमंद तबके को सब्सिडी और समर्थन मिलना चाहिए। परंतु हमारे देश में सब्सिडी अक्सर अधिकार में बदल जाती है और उसका राजनीतिक प्रभाव बन जाता है। हालांकि जमीनी तथ्यों से इस बात का कोई लेनादेना नहीं होता।
विकास को लेकर कम लोकलुभावनवादी और कठिन राह लेने में सक्षम नेता अक्सर इनका सहारा लेते हैं। उदाहरण के लिए गरीब परिवारों के लिए सस्ती गैस पहले चुनाव जिताऊ दांव साबित हो चुकी है लेकिन इस योजना को बरकरार रखने का व्यय करदाताओं पर बोझ बन रहा है। बेहतर होगा अगर सोलर कुकर जैसे विकल्प अपनाए जाएं जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर हैं, जीवाश्म ईंधन का उपयोग नहीं करते और करदाताओं पर बार-बार बोझ भी नहीं डालते।
सत्ता बरकरार रखने के लिए मुफ्त उपहारों के दबाव में सरकारों के पास शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और वास्तविक कल्याण योजनाओं पर व्यय के लिए धन ही शेष नहीं रह जाता। कमजोर आर्थिक वृद्धि उनके राजस्व पर दबाव डालती है और देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अपेक्षाओं में जीता रहता है। नि:शुल्क उपहार भले ही आरामतलब राजनेताओं की तरकीब हो लेकिन दीर्घावधि में यह देशहित में नहीं है।