भारत में शिक्षा ऋण की बढ़ती जरूरत तथा बदलते मध्यवर्गीय मूल्यों के कारण इस तरह के ऋण में इजाफा हुआ है। इस बात ने देश के युवाओं को एक बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। बता रहे हैं अजित बालकृष्णन
जब भी मैं ऐसी कोई सुर्खी देखता हूं जिसमें कहा गया हो, ‘कल्पना कीजिए सालाना 28 करोड़ रुपये वेतन कौन पाता है’ या ‘भारत का सबसे अधिक वेतन पाने वाला सीईओ’ या फिर दर्जनों ऐसे सीईओ की सूची जो साल में 20 करोड़ रुपये का वेतन पाते हैं, तो मैं अपने आपको उथलपुथल की स्थिति में पाता हूं। ये तमाम बातें भारत में स्थित कंपनियों के भारतीय मुख्य कार्याधिकारियों यानी सीईओ के बारे में होती हैं।
क्या एक नए भारत का उदय हो रहा है जहां हर भारतीय की आय पहले की तुलना में कई गुना हो चुकी है या फिर अभी भी यह बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है और हमारा मीडिया या मीडिया का कुछ हिस्सा पाठकों को अपने साथ जोड़ने के लिए तथा क्लिक हासिल करने के लिए ऐसा कर रहा है?
क्या हमारा मध्य वर्ग जो कि देश की रीढ़ रहा है और जिसने हमें एक गरीब देश से दुनिया के शीर्ष देशों में से एक बनने में मदद की है उसने अपने मूल्य बदल लिए हैं? यही वजह है कि मैं बहुत आश्वस्त महसूस करता हूं जब भारत के चंद्रयान मिशन के चंद्रमा पर पहुंचने के बाद ऐसी सुर्खियां नजर आने लगती हैं, ‘एस सोमनाथ का परिवार, वेतन, शिक्षा…।’ इनका इशारा इस ओर था कि सोमनाथ जैसे हीरो जिनके पास भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान का नेतृत्व है उनका वेतन महज 2.5 लाख रुपये प्रति माह ही है।
इन दिनों जब भी मेरे सामने कोई कठिन प्रश्न आता है तो मैं उसका उत्तर चैटजीपीटी पर तलाश करने का प्रयास करता हूं। मैंने उससे पूछा: ‘एक पंक्ति में मध्यवर्गीय मूल्यों की परिभाषा क्या है?’ इसका जो उत्तर मिला वह आश्वस्त करने वाला था, ‘मध्य वर्गीय मूल्यों में ऐसे सिद्धांतों का समूह शामिल होता है जो कड़ी मेहनत, शिक्षा, वित्तीय जवाबदेही, परिवार सामुदायिक सक्रियता आदि पर बल देता है और बेहतरी की दिशा में प्रयास पर जोर देता है।’ मेरे चिकित्सक पिता और दादा तथा शेष भारत के मध्यवर्गीय परिजन जो आजादी के दौर की पीढ़ी के हैं उन्होंने बचपन से ही हमारे दिलोदिमाग में ये मूल्य डाले हैं।
सवाल यह है कि क्या अब इनमें बदलाव आ रहा है? उदाहरण के लिए हम इस कठिन तथ्य को कैसे समझें कि विदेशों में उच्च शिक्षा लेने वाले भारतीय छात्रों का सालाना व्यय करीब 80 अरब डॉलर है और इनकी तादाद करीब 10 लाख है जो अगले वर्ष बढ़कर 18 लाख होने वाली है? यहां हो क्या रहा है? क्या हमारे छात्रों में से बहुत सीमित संख्या में छात्रों के पास इतना ज्ञान और कौशल है कि वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय प्रबंध संस्थान और चिकित्सा तथा विधि संस्थानों में दाखिला ले पाएं तथा शेष किसी तरह पैसे जुटाकर शिक्षा के लिए विदेश जाना सही समझते हैं?
यह अनुमान शायद सही है क्योंकि जब मैंने इसकी गहराई से पड़ताल की तो मेरा सामना एक और चिंताजनक तथ्य से हुआ: भारतीय बैंकों के शिक्षा ऋण में करीब 80,000 करोड़ रुपये की राशि बकाया है जिसमें से आठ फीसदी राशि को उन्होंने फंसा हुआ कर्ज घोषित कर दिया है यानी इतनी राशि का चुकता होना
संभव नहीं।
इसके समांतर कई मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में सालाना शुल्क 20 लाख रुपये के आसपास है यानी चार से पांच साल की पढ़ाई में करीब एक करोड़ रुपये केवल शुल्क के लिए चाहिए। कई मेडिकल और डेंटल कॉलेज ऐसे भी हैं जो दाखिल के लिए एकबारगी एक से दो करोड़ रुपये का प्रवेश शुल्क लेते हैं।
मुझे यह जानकार थोड़ी राहत मिली कि हमारे अमेरिकी मित्र भी अपनी शिक्षा व्यवस्था में ऐसी ही चुनौतियों से जूझ रहे हैं। अमेरिका में छात्रों का कर्ज यानी छात्रों ने अमेरिकी संघीय सरकार की फंडिंग वाली योजनाओं से जो कर्ज लिया है वह करीब 1.6 लाख करोड़ डॉलर है। यह राशि 4.4 करोड़ छात्रों को कर्ज के रूप में दी गई है।
मुझे बताया गया कि यह राशि अमेरिका के तमाम वाहन ऋण या क्रेडिट कार्ड ऋण से अधिक है। वहां छात्र ऋण एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी चुनाव करीब आने पर हाल ही में घोषणा की है कि उनकी सरकार 10,000 डॉलर तक के छात्र ऋण माफ करेगी यानी करीब 45 फीसदी कर्जदारों को राहत मिलेगी। इस तरह दो करोड़ लोगों का कर्ज पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। वित्तीय क्षेत्र इसके खिलाफ अदालतों का रुख कर रहा है।
अमेरिका में डर इस बात का है कि शैक्षणिक ऋण अदायगी इतना बड़ा बोझ है कि आज के 25 वर्ष आयु के नौजवान अर्थव्यवस्था को मंदी की ओर ले जा सकते हैं क्योंकि उनके पास कार खरीदने या घरेलू वस्तुएं खरीदने का पैसा नहीं होगा। भारत में एक और रुझान उभर रहा है: भारतीय छात्र और उनके माता-पिता पर स्नातक के समय तक अगर एक करोड़ रुपये तक का कर्ज हो जा रहा है तो वे अमेरिका और यूरोप में नौकरी तलाश कर रहे हैं ताकि उन्हें इतना अधिक वेतन मिल सके कि वे अपना भारी-भरकम शिक्षा ऋण चुका सकें।
भारत में मिलने वाले वेतन से ऐसा कर पाना संभव नहीं है। या फिर क्या ये चौंकाने वाली तमाम घटनाएं इसलिए घटित हो रही हैं कि भारत भी अन्य देशों की तरह उन्हीं हालात से गुजर रहा है जिन्हें माइकल सैंडल ‘मेरिट का अत्याचार’ कहकर पुकारते हैं। अपनी पुस्तक ‘टिरनी ऑफ मेरिट: व्हाट्स बिकम ऑफ द कॉमन गुड?’ में सैंडल कहते हैं कि मेरिट आधारित आदर्श जहां उचित प्रतीत होता है वहीं वह बढ़ती असमानता और सामाजिक ध्रुवीकरण में भी योगदान करता है क्योंकि उत्कृष्टता की खोज और कुलीन शिक्षा ने सामाजिक असमानता बढ़ाने में योगदान किया है। साझा हित के बजाय व्यक्तिगत सफलता पर ध्यान देने से भी ऐसा हुआ है।
भारत में भी व्यक्तिगत सफलताओं पर ऐसे ही ध्यान केंद्रित किया जा रहा है जिसकी वजह से ऐसे भारी भरकम शिक्षा ऋण सामने आ रहे हैं। इतना ही नहीं इतना बड़ा ट्यूशन उद्योग भी इसीलिए फल-फूल रहा है, हमारे आईआईटी जैसे संस्थानों में आत्महत्या जैसी घटनाएं घट रही हैं और पश्चिम में जा बसने की होड़ सी लगी है।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)