सरकार को राजकोषीय घाटा कम करने के लिए अगले कुछ वर्षों में कठिन प्रयास करने होंगे। सरकार को उसी तरह की चुनौतियों से गुजरना होगा जैसे किसी पेशेवर साइकल सवार को गुजरना पड़ता है। प्रतिस्पर्द्धा में भाग लेने वाले साइकल सवार के समक्ष विपरीत परिस्थितियों की परवाह किए बिना किसी भी कीमत पर लक्ष्य रेखा तक पहुंचने की चुनौती होती है।
पिछले तीन वर्षों के दौरान प्रत्येक बजट में कुछ बड़े बदलाव किए गए हैं। 2020 के आरंभ में प्रस्तुत बजट में अतिरिक्त व्यय करने का प्रस्ताव दिया गया था। 2021 के बजट में सरकार पर भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की भारी भरकम बकाया रकम चुकाने पर ध्यान केंद्रित किया गया था। 2022 के बजट में राजस्व संग्रह को लेकर सतर्क अनुमान दिए गए थे और पूर्व की तरह अधिक अनुमान लगाने से परहेज किया गया। इससे सरकार को तेजी से बढ़ती जिंसों की कीमतों से निपटने में सहायता मिली। इसके साथ ही पिछले तीन वर्षों के दौरान पूंजीगत व्यय में भी लगातार इजाफा होता रहा है।
अब प्रश्न है कि 2023 के बजट में क्या प्रावधान किए जाएंगे? हमारा मानना है कि सरकार राजकोषीय घाटा कम करने पर ध्यान देगी। इसका कारण यह है कि सरकार ने वित्त वर्ष 2026 तक राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 4.5 प्रतिशत तक सीमित करने का लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए राजकोषीय घाटा वित्त वर्ष 2023 के बजट में अनुमानित 6.4 प्रतिशत से कम कर वित्त वर्ष 2024 तक 5.8 प्रतिशत करना होगा। राजकोषीय घाटा कम करना सरकार की प्राथमिकता है और इसे समझने में किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। इस समय सरकार को शुद्ध कर राजस्व के रूप में जितनी रकम की प्राप्ति होती है उसका करीब 50 प्रतिशत हिस्सा ऋण पर ब्याज भुगतान में खर्च होता है। इस वजह से स्वास्थ्य, शिक्षा और आधारभूत संरचना पर खर्च करने के लिए सरकार के पास बहुत अधिक रकम नहीं बचती है।
राजकोषीय घाटा कम कर ही इस समस्या से निपटा जा सकता है। ऐसा करने से अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी। हालांकि इससे आर्थिक विकास दर कम जरूर होगी मगर महंगाई नियंत्रित करने में मदद मिलेगी। इन उपायों से चालू खाते का घाटा नियंत्रण में रहेगा और सरकार पर कर्ज बोझ भी नियंत्रित रहेगा। यह कहना सरल मगर करना मुश्किल है। सरकार को इन लक्ष्यों को पाने के लिए अगले 12 महीनों में कठिन चुनौतियों से जूझना होगा। पहली बात तो यह कि नॉमिनल (महंगाई समायोजित नहीं) जीडीपी में कमी आने से कर राजस्व कम रहता है और राजकोषीय समेकन का कार्य कठिन हो जाता है।
2023 में नॉमिनल जीडीपी में कमी आ सकती है। दूसरी बात यह कि कोविड महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था में औपचारिक क्षेत्र का दबदबा बढ़ने से कर राजस्व में जरूर इजाफा हुआ मगर अनौपचारिक क्षेत्र की हालत सुधरने पर यह फायदा (कर राजस्व में बढ़ोतरी) कम हो सकता है। तीसरी बात यह कि 2023 चुनाव से पूर्व का साल है। इसका अभिप्राय यह है कि निजीकरण से प्राप्तियां कम रहेंगी और सरकार पर अधिक व्यय करने का दबाव रहेगा। चौथी बात यह कि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में पूंजीगत व्यय इस समय कोविड महामारी से पूर्व की तुलना में 1.1 प्रतिशत अंक अधिक है। पूंजीगत व्यय कम किए बिना राजकोषीय घाटा कम करने के लिए सरकार को अतिरिक्त प्रयास करने होंगे।
अच्छी बात यह है कि वर्तमान में कुछ परिस्थितियां अनुकूल दिखाई दे रही हैं। तेल के दाम ऊंचे स्तरों से नीचे आ गए हैं जिससे करों में और कटौती की गुंजाइश बन रही है। ऋण आवंटन की दर मजबूत है और यह स्थिति जारी रही तो बैंकों को जमा रकम हासिल करने के लिए अधिक परिश्रम करना होगा। इससे सरकारी बॉन्ड की मांग बढ़ जाएगी जिससे घाटे की भरपाई करने में मदद मिल पाएगी।
राजकोषीय घाटा कम करने के लिए सरकार ने कुछ महत्त्वपूर्ण नीतिगत कदम उठाएं हैं। सबसे पहले उसने खाद्य सब्सिडी में कुछ इस तरह बदलाव किए हैं कि यह (सब्सिडी) पूर्व की तुलना में 50,000 करोड़ रुपये कम हो जाएगी। एक दूसरे उपाय के रूप में सिंगल नोडल एजेंसी (एसएनए) डैशबोर्ड की शुरुआत की है जिसकी मदद से केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए राज्यों को दी गई रकम पर नजर रखने में मदद मिलेगी। इससे यह जानने में मदद मिलेगी कि किसी राज्य ने कितना खर्च किया है। पिछली रकम का पूर्ण इस्तेमाल होने के बाद ही केंद्र सरकार दूसरी किस्त जारी करेगी। इससे ब्याज का बोझ भी कम होगा क्योंकि रकम तभी जारी होगी जब जरूरत होगी।
इन सभी उपायों से संभवतः सरकार को वित्त वर्ष 2024 में राजकोषीय घाटा नियंत्रित करने में मदद मिलेगी। हां, नॉमिनल जीडीपी वृद्धि दर कम रहने और अनौपचारिक क्षेत्र में सुधार से राजस्व जरूर कम रहेगा मगर वर्तमान व्यय और घट सकता है। उर्वरक, खाद्य एवं अन्य वस्तुओं पर व्यय कम किया जा सकता है।
मगर बाजार बजट में केवल राजकोषीय घाटे के आंकड़ों पर ही ध्यान केंद्रित नहीं करेगा। हमारे हिसाब से हाल के वर्षों में स्थिरता, निरंतरता और करों को लेकर सटीक अनुमान और निवेश बढ़ाने के उपाय बजट की खास बातें रही हैं। प्रत्यक्ष कर को लेकर हमारा मानना है कि कुछ अतिरिक्त प्रोत्साहनों से नई व्यक्तिगत कर प्रणाली अपनाने में मदद मिलेगी। ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं कि निकट भविष्य में पूरी कर संहिता सरल बनाई जाएगी। कर विवाद कम करने पर सरकार का विशेष ध्यान रहेगा। हाल के वर्षों में कर से जुड़े विवाद काफी बढ़ गए हैं। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में सुधार से कर राजस्व की स्थिति भी सुधरी है मगर कुछ कर दरों के साथ जीएसटी के तहत अधिक वस्तुओं को लाने की जरूरत होगी।
हमारा मानना है कि हाल के वर्षों में आयात शुल्कों में लगातार हो रही बढ़ोतरी को रोकना भी आवश्यक है। शुल्कों में बढ़ोतरी से भारत की स्थिति वैश्विक कारोबारी मंच पर कमजोर हो रही है और उत्पादन संबद्ध योजना (पीएलआई) के भी वांछित लाभ नहीं मिल रहे हैं।
एसएनए जैसे नए उपायों ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पास सरकार की जमा नकद रकम भी बढ़ रही है और इससे बैकिंग प्रणाली में अतिरिक्त नकदी भी कम हो रही है। इसका नतीजा यह होगा कि आरबीआई को अस्थायी नकदी देने के लिए थोड़ा अधिक सक्रिय बनना होगा। यह वित्तीय बाजार के लिए लाभकारी साबित हो सकता है। वित्त वर्ष 2023 में राजकोषीय घाटा कम होकर जीडीपी का 5.8 प्रतिशत भी रहता है तो बाजार से सरकार की सकल उधारी बढ़कर करीब 15.5 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी। राज्य भी अपने स्तरों पर बाजार से रकम उधार लेंगे और कुल सरकारी बॉन्ड बढ़कर 24 लाख करोड़ रुपये के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच जाएंगे। आरबीआई खुला बाजार परिचालन (ओएमओ) के जरिये हस्तक्षेप कर सकता है मगर ऐसा तभी होगा जब वित्तीय प्रणाली में नकदी का स्तर काफी बढ़ जाएगा। मोटे तौर पर हमारा मानना है कि आरबीआई साल के दौरान भुगतान संतुलन घाटे के बराबर ओएमओ कर सकता है।
संक्षेप में कहें तो कम राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था के लिए नकारात्मक रह सकता है ( हालांकि हाल के वर्षों में पूंजीगत व्यय अधिक रहने से कुछ नुकसान की भरपाई हो जाएगी), मगर इससे महंगाई पर नियंत्रण रखने और भारत के बाह्य असंतुलन से निपटने में मदद मिल सकती है। ये दोनों बातें 2022 में भारत के लिए चिंता का प्रमुख कारण रही हैं। एक और फायदा यह होगा कि भारत पर कर्ज बोझ ऐसे समय में कम करने में मदद मिलेगी जब नॉमिनल जीडीपी सुस्त रहने से यह (सार्वजनिक कर्ज) और बढ़ने की आशंका सता रही है। इन सभी कारणों से सरकार को कड़ी मेहनत जारी रखनी होगी।
(लेखिका एचएसबीसी में मुख्य अर्थशास्त्री-भारत और इंडोनेशिया हैं)