हाल के समय में भारत ने खुद को ‘ग्लोबल साउथ’ के नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की है। यदि निर्विवाद नेता के रूप में नहीं तो भी वह खुद को कम से कम उसके सबसे मुखर प्रवक्ता के रूप में स्थापित करना चाहता है। प्रश्न यह है कि ग्लोबल साउथ है क्या? भारत ऐसा करके क्या हासिल करना चाहता है? और क्या यहां जुबानी जमाखर्च के अलावा भी कुछ है?
ग्लोबल साउथ की पहचान करना आसान नहीं है। यहां मामला संपत्ति का नहीं है क्योंकि तेल के कुंओं के मालिक खाड़ी देशों ने खुद को ग्लोबल साउथ का हिस्सा माना है। नाम से यही संकेत निकलता है कि यह उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित भूराजनीति के पारंपरिक केंद्र का हिस्सा नहीं है। यह न तो रूस है, न ही पश्चिमी देश और न ही जापान।
क्या यह वही हिस्सा है जिसे शीत युद्ध के दौर में ‘तीसरी दुनिया’ कहा जाता था। उस दौर में विकसित देश पहली दुनिया और वामपंथी देश दूसरी दुनिया हुआ करते थे? शायद नहीं क्योंकि तीसरी दुनिया अथवा विकासशील देशों को ग्लोबल साउथ करार देने के मामले में एक बड़ा अपवाद है। वही अपवाद हमें यह भी बता सकता है कि आखिर क्यों भारत सरकार इस अवधारणा को आगे बढ़ाने को लेकर इतनी उत्सुक है।
वह अपवाद है चीन। चीन इस बात को लेकर प्रतिबद्ध रहा है कि वह चाहे जितना अमीर हो जाए या विश्व अर्थव्यवस्था पर उसकी छाप चाहे जितनी मजबूत हो जाए, वह अपनी पहचान विकासशील अर्थव्यवस्था की बनाए रखना चाहता है और साथ ही पश्चिम के साथ प्रतिस्पर्धा में बने रहना चाहता है।
चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने हाल ही में दक्षिण अफ्रीका में आयोजित ब्रिक्स शिखर बैठक में कहा, ‘चीन विकासशील अर्थव्यवस्था है और वह हमेशा उनमें से एक बना रहेगा।’ यानी चीन न केवल हमेशा विकासशील रहेगा बल्कि वह पश्चिम के साथ विवाद की स्थिति में दुनिया के विकासशील देशों का समर्थन भी चाहेगा।
शी के नेतृत्व में चीन ने न केवल बेल्ट और रोड पहल के माध्यम से बल्कि अन्य तरीकों से यही किया। बेल्ट और रोड पहल में शामिल देशों की पिछले सप्ताह पेइचिंग में बैठक हुई। हालांकि हर वर्ष सदस्य देशों की संख्या कम हुई है लेकिन चीन का इरादा अपरिवर्तित है। अगर विकासशील देशों का नेतृत्व करना होगा तो उन्हें लगता है कि वह चीन का काम है।
भारत इसी विचार का विरोध कर रहा है और ग्लोबल साउथ का नेतृत्व कर रहा है जिसमें चीन के अतिरिक्त सभी विकासशील देश शामिल हैं। कुछ मायनों में ग्लोबल साउथ गुटनिरपेक्ष तीसरी दुनिया है जो अमेरिका और चीन के शीत युद्ध से अलग है।
भारत के लिए इस विचार के कई लाभ हैं। एक तो यही कि इससे यह सुनिश्चित होगा कि विकासशील देशों में भारत के साझेदारों में चीन का स्वत: समर्थन नहीं होगा। यह विभिन्न देशों, खासकर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को उम्मीद देता है जो चीन के दबदबे और पश्चिमी संरक्षण के बीच नहीं फंसना चाहते। उनके लिए एक और विकल्प होगा। यह हमारे नेतृत्व को एक और अवसर देता है कि वे वैश्विक कद के लिए बेकरार जनता को दिखाएं कि कैसे वे कुशलतापूर्वक भारत का कद मजबूत कर रहे हैं।
भारत ग्लोबल साउथ की धारणा को मुख्य धारा में लाना चाहता है और इसकी कई अन्य वजह भी हैं। एक वजह तो यही है कि विकासशील देशों में नाराजगी की यह भावना है कि उनकी आवाज उठनी चाहिए। यह नाराजगी महामारी के दौरान शुरू हुई जब विकासशील देश बिना टीकों के मुश्किल में रहे जबकि विकसित देशों ने अपनी पूरी आबादी को एक से अधिक बार टीके लगा दिए।
इसके बाद सुधार की प्रक्रिया असमान रही और कई देशों पर भारी कर्ज हो गया। इसके बावजूद वे 2020-22 के बीच हुए नुकसान की भरपाई नहीं कर पाए। इस बात ने उनकी नाराजगी और बढ़ाई। इस मामले में केवल पश्चिम निशाने पर नहीं रहा।
चीन पहले महामारी को रोकने में नाकाम रहा और बढ़ते सॉवरिन ऋण में उसकी हिस्सेदारी के बीच विकासशील देशों ने उसकी भी आलोचना की। रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला करने के बाद खाद्य और ईंधन के क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ी। पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों ने ताबूत में आखिरी कील का काम किया।
भारत के नीति निर्माता इस बात को लेकर चिंतित हो सकते हैं कि अगर इस गुस्से को एक मंच नहीं दिया जाता है तो हम हर तरह के बहुपक्षीय सहयोग से दूर हो सकते हैं। भारत द्वारा ग्लोबल साउथ को आगे बढ़ाने को बहुपक्षीयता के नवीनीकरण की दिशा में अहम कदम माना जा सकता है।
परंतु भारत इस समूह को क्या दे सकता है? वह इसके नेतृत्व का दावा किस आधार पर कर रहा है? यह एक कठिन प्रश्न है। चीन अपने व्यापारिक रिश्तों का हवाला दे सकता है, बेल्ट और रोड पहल तथा कई अन्य लाभों का उल्लेख कर सकता है। भारत के पास ऐसे संसाधन नहीं हैं। उसके पास अगर कुछ है तो वह है प्रतिष्ठा।
वह उसी प्रतिष्ठा का इस्तेमाल कर रहा है। पश्चिम एशिया को लेकर उसकी योजना पर विचार कीजिए जहां भारत-पश्चिम एशिया-यूरोप कॉरिडोर यानी आईएमईईसी को यूरोपीय संसाधनों का समर्थन, अमेरिकी सुरक्षा और भारतीय सद्भावना हासिल है। या फिर क्वाड समूह की उन योजनाओं पर विचार करें जहां उन्हें अन्य देशों में विकास साझेदारियां करनी हैं।
संसाधनों के मामले में भले ही भारत चीन का मुकाबला नहीं कर पाए लेकिन अगर वह पश्चिमी संसाधनों और अपनी प्रतिष्ठा के बल पर अपने नेतृत्व को मजबूत बना सकता है तो सबकुछ कारगर साबित हो सकता है।
यह एक सफल रणनीति हो सकती है बशर्ते कि अन्य विकासशील देश भारत को अपेक्षाकृत खतरा न मानें। उसकी छाप मजबूत होने के साथ ही उसे खुद को चीन बनने से भी बचना होगा जो तीसरी दुनिया के पुराने दोस्तों को अलग-थलग कर चुका है।
भारत मालदीव जैसी घटनाएं नहीं बरदाश्त कर सकता जहां हालिया चुनाव ने दिखाया कि कैसे भारत का बढ़ता कद उसके लिए नुकसानदेह हो गया है। सरकार ने भारत का कद मजबूत करने पर ध्यान दिया है। अब वक्त है उसे सकारात्मक बनाए रखने के प्रयास करने का।