मौजूदा वैश्विक हालात में अगर तुलना की जाए तो भारत विभिन्न मोर्चों पर चीन और अफ्रीका से बहुत बेहतर स्थिति में है। इस विषय में जानकारी प्रदान कर रहे हैं आकाश प्रकाश
दुनिया भर में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच मैं कई ऐसी प्रस्तुतियों से दो-चार हुआ जो भूराजनीति पर केंद्रित थीं। भूराजनीति को इतिहास के चश्मे से देखना और यह समझना दिलचस्प है कि हम आज कहां हैं।
अधिकांश प्रस्तुतियों की शुरुआत वैश्विक आर्थिक शक्ति में बदलाव से हुई। बीते 2,000 से अधिक वर्षों में हमने कई महान शक्तियों का उत्थान और पतन देखा है। मेरा यह भी मानना है कि तकदीरों में यह बदलाव चक्रीय होता है और एक प्रकार से प्रति संतुलन का काम भी करता है।
भारत और चीन की आर्थिक शक्ति को ही लें तो अंगस मैडिसन के काम और ऐतिहासिक रूप से वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद की हिस्सेदारी के आधार पर हम देख सकते हैं कि सन 1800 में भारत और चीन का संयुक्त आर्थिक भार वैश्विक अर्थव्यवस्था में 50 फीसदी से अधिक था। उसके बाद दोनों कमजोर होने लगे।
भारत का पतन कहीं अधिक तेजी से हुआ और सन 1980 में वह वैश्विक अर्थव्यवस्था में 10 फीसदी योगदान के निचले स्तर तक पहुंच गया। उसके बाद सुधार आया जो आज भी जारी है और भारत तथा चीन इस समय वैश्विक अर्थव्यवस्था में 30 फीसदी के हिस्सेदार हैं। यहां से भारत का विकास और तेजी से होगा और उम्मीद है कि हम आने वाले दशकों में वापस 50 फीसदी हिस्सेदारी पा सकेंगे।
इन प्रस्तुतियों का एक और हासिल यह है कि हम चाहे जो भी सोचते और मानते हों लेकिन वास्तव में वैश्विक संघर्ष, रक्षा व्यय, वार्दी वाले लोगों की संख्या आदि आंकड़े आज भी अपने ऐतिहासिक स्तर से काफी कम हैं।
इजरायल-हमास और यूक्रेन-रूस की लड़ाइयों जैसी त्रासदियों के बावजूद फिलहाल उतने लोगों की जान नहीं जात रही है जो मानवता के लंबे इतिहास में जाती रही हैं। भले ही हम ऐसा न सोचें लेकिन आज दुनिया पुराने समय की तुलना में अधिक सुरक्षित है। जाहिर है ऐसा प्रतीत होता है कि हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं और इसकी वजह से अमेरिका का संरक्षणवादी रुख और मजबूत हो सकता है।
निवेशकों के लिए एक सबक यह है कि सामान्य तौर पर भूराजनीतिक झटकों का असर बहुत कम समय के लिए रहता है। ज्यादातर मामलों में यह कुछ सप्ताह तक रहता है और उसके बाद वृहद आर्थिकी दोबारा बाजार का मुख्य कारक बन जाती है।
विश्व युद्ध को छोड़ दिया जाए तो भूराजनीतिक झटकों से आई किसी भी गिरावट के समय खरीदी करना बेहतर रहा है। रूस-यूक्रेन जंग में भी यही हुआ। बॉन्ड बाजारों के लिए भी सुरक्षित ठिकानों पर कारोबार कम समय ही चल पाता है, यह टिक नहीं पाता।
सबसे दिलचस्प पाठ मुझे डायचे बैंक की प्रस्तुति का लगा। वह कहता है कि आने वाले वर्षों में भूराजनीतिक तनाव के कारक के रूप में सबसे अहम चार्ट चीन, अफ्रीका और भारत की जनसंख्या को दर्शाने वाला है। इसके मुताबिक 2022 के अंत तक तीनों क्षेत्रों की आबादी लगभग 1.4 अरब थी। हालांकि उनकी आबादी के प्रोफाइल में नाटकीय अंतर मौजूद था।
चीन की मौजूदा 1.4 अरब की आबादी की बात करें तो 2100 तक यह घटकर 75-80 करोड़ रह सकती है। यह संयुक्त राष्ट्र के आबादी संबंधी आंकड़ों पर आधारित है। भारत की आबादी में अभी इजाफा होगा लेकिन आगे इसमें कमी आएगी और 2100 तक यह 1.4 अरब रह जाएगी।
अफ्रीका की आबादी बढ़कर चार अरब हो जाएगी। ये केवल अनुमान हैं और हालात अलग भी हो सकते हैं। अगर ये आंकड़े सच के आसपास भी हैं तो इसका आने वाले दशकों की वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था पर गहरा असर होगा।
अगर चीन की मौजूदा मंदी चक्रीय है और यह कर्ज और अचल संपत्ति की मुश्किलों से पार पा भी जाता है तो लंबी अवधि की वृद्धि संभावनाएं कमजोर ही हैं। दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जो उम्रदराज होती और घटती आबादी के साथ तेजी से आगे बढ़ा हो। उत्पादकता कमजोर पड़ती श्रम शक्ति की भरपाई एक सीमा से अधिक नहीं कर सकती। इस जनसंख्या के साथ चीन दो-तीन फीसदी से तेज वृद्धि कैसे हासिल करेगा?
आज वैश्विक विनिर्माण मूल्यवर्द्धन में चीन की हिस्सेदारी 30 फीसदी है जो अगले बड़े योगदानकर्ता अमेरिका से दोगुना है। चीन आबादी के इस गणित के साथ दुनिया की फैक्टरी नहीं बना रह सकता। भूराजनीति से परे चीन के अलावा आपूर्ति के लिए और देश के लिए बहुत अवसर है।
वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद चीन ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ अंतर को तेजी से पाटा। ऐसा डॉलर के संदर्भ में भी हुआ। 2008 में वह अमेरिकी अर्थव्यवस्था के 20 फीसदी के आकार का था और 2020 के आखिर तक यानी महामारी के ऐन पहले यह 80 फीसदी हो चुका था। उस समय अधिकांश टीकाकारों को लगा कि चीन 2030 तक डॉलर के संदर्भ में भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पार कर जाएगा।
बहरहाल चीन की गति धीमी पड़ रही है और अमेरिका की बढ़ रही है। डॉलर भी मजबूत हो रहा है। 2020 से अब तक चीन अमेरिकी अर्थव्यवस्था के 70 फीसदी के बराबर रह गया है। चीन अमेरिका को कब तक पछाड़ सकेगा इस बारे में कुछ कहना मुश्किल है। कई सजग टीकाकार मानते हैं कि चीन अपने उच्चतम स्तर तक पहुंच चुका है। अपनी चक्रीय चुनौतियों से परे जनसंख्या के कारण चीन धीमी वृद्धि के दौर में प्रवेश कर रहा है।
जैसा कि ब्लूमबर्ग ने कहा है 2035 से 2040 के बीच वैश्विक वृद्धि की कमान भारत तथा ऐसे ही देशों के हाथ रहेगी। भारत को अधिक स्थायी आधार पर वैश्विक वृद्धि का अहम योगदान करने वाला बनना होगा।
भारत की जनसंख्या के कारण उसके लिए संभावनाएं शेष रहेंगी। हमारे पास एक अविश्वसनीय अवसर है। हमें शिक्षा, कौशल और स्वास्थ्य सेवा में निवेश करने की जरूरत है। सार्वजनिक नीति में इन क्षेत्रों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। उच्च तकनीक के अलावा हमें श्रम गहन निर्माण बढ़ाना होगा।
श्रम आधारित उत्पादन चीन से बाहर आएगा क्योंकि वहां कामकाजी लोगों की कमी हो जाएगी। हमें भी इसमें उचित हिस्सा मिलना चाहिए। इसके लिए कारोबारी सुगमता में सुधार करना होगा।
अफ्रीका के लिए सवाल है कि वह बढ़ती आबादी के लिए समुचित रोजगार और आजीविका कैसे तैयार करेगा? वैश्विक तापमान में इजाफा खेती पर दबाव बढ़ाएगा। यूरोप में अफ्रीकी प्रवासियों का आना बढ़ेगा। इस क्षेत्र में भी हालात बिगड़ेंगे। क्या इससे यूरोप की राजनीति में दक्षिणपंथ का प्रभाव बढ़ेगा क्योंकि प्रवासियों का मुद्दा उस महाद्वीप में और प्रमुखता से उभरेगा? राजकोषीय चुनौतियों से जूझ रहा यूरोप इन लोगों को कैसे संभालेगा? इससे भूराजनीति में उथल पुथल मच सकती है।
भविष्य की ओर देखें तो विश्व अर्थव्यवस्था अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है। भारत कई मोर्चों पर बेहतर स्थिति में है। हमारे पास पर्याप्त खाद्यान्न है, जनांकीय स्थिति हमारे हक में है और नवीकरणीय ऊर्जा के साथ हम ऊर्जा के क्षेत्र में स्वतंत्र हो जाएंगे। हमारे यहां बेहतर स्टार्टअप व्यवस्था और पूंजी बाजार है।
दुनिया में सॉफ्टवेयर का दबदबा कायम रहेगा और हम इसमें अग्रणी हैं। अगर हमारे पास विनिर्माण में हिस्सेदारी बढ़ाने का अवसर है। अधोसंरचना से उत्पादकता में भारी सुधार हो सकता है। हम इस अवसर को जाने नहीं दे सकते। यह समय दोबारा नहीं आएगा।
(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)