चुनावी राज्यों में राजनीतिक दलों के वादों की प्रकृति और उनका दायरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। आगे चलकर राजकोष पर इनका विपरीत प्रभाव होगा।
उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में किए गए वादों का विश्लेषण बताता है कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (BJP) दोनों के रवैये में कोई खास अंतर नहीं है।
राज्य में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों को नकद राशि देने, गैस सिलिंडर सस्ता करने और नि:शुल्क शिक्षा देने जैसे वादे किए गए हैं। भाजपा ने विवाहित महिलाओं को मासिक भत्ता देने का वादा भी किया है।
बहरहाल, सबसे बड़ी घोषणा शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की और कहा कि केंद्र सरकार ने 80 करोड़ पात्र लोगों को नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण की योजना पांच वर्षों के लिए बढ़ा दी है।
इस योजना पर सालाना अनुमानत: दो लाख करोड़ रुपये की राशि व्यय होती है। चिंता की बात यह है कि इस घोषणा ने न केवल चुनावी राज्यों बल्कि आगामी लोकसभा चुनावों के लिए भी माहौल स्पष्ट कर दिया है।
नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण की शुरुआत महामारी के दौरान की गई थी और इसे प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत बांटा जा रहा था। कई बार इसकी अवधि बढ़ाने के बाद सरकार ने एक वर्ष के लिए इस योजना को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत अनाज वितरण की योजना में मिलाने का निर्णय किया था।
इसकी शुरुआत जनवरी 2023 में हुई। यही वजह है कि सरकार ने चावल और गेहूं को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत क्रमश: तीन रुपये और दो रुपये प्रति किलो की दर से बेचने के बजाय मुफ्त कर दिया था।
सरकार को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को बंद कर देना चाहिए था क्योंकि यह योजना महामारी के दौरान राहत पहुंचाने का अस्थायी उपाय थी और अर्थव्यवस्था में हालात सामान्य हो गए थे।
उल्लेखनीय है कि महामारी के पहले बहस इस बात पर केंद्रित थी कि सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत दिए जाने वाले अनाज की कीमत कैसे बढ़ाए कि खाद्य सब्सिडी को कम किया जा सके। परंतु उसे मुफ्त करके सरकार ने ठीक विपरीत कदम उठाया। इस कदम को पलटना तो मुश्किल था ही।
दिसंबर 2022 में घोषणा के समय इस समाचार पत्र ने कहा था, ‘राजनीतिक दृष्टि से यह कल्पना करना मुश्किल है कि सरकार 2023 के अंत तक मुफ्त खाद्यान्न योजना को बंद कर सकेगी क्योंकि लोकसभा चुनाव महज कुछ माह की दूरी पर होंगे।’ अब पांच साल का विस्तार इस योजना को लगभग स्थायी दर्जा प्रदान कर देगा।
राज्यों के चुनावों में किए जा रहे वादों से संकेत ग्रहण करें तो लगता नहीं है कि लोकसभा चुनावों में भी यह सिलसिला बदलेगा। खाद्यान्न वितरण योजना का विस्तार भी यही दिखाता है।
बहरहाल नीतिगत और राजकोषीय प्रबंधन की बात करें तो स्थायी व्यय को शामिल करना राजनीतिक दृष्टि से कठिन है और इससे सरकार के लिए किसी तरह के रद्दोबदल की गुंजाइश प्रभावित होगी। यह बात दीर्घकालिक आर्थिक प्रभाव वाली साबित होगी।
सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो ऐसा कोई नीतिगत विवाद नहीं है कि सरकार को अल्प आय वर्ग के लोगों की मदद करनी चाहिए। बहरहाल, राजकोषीय संसाधनों का इस्तेमाल इस तरह करना चाहिए कि उनका प्रभाव बढ़ सके। यह बात भारत की विकास अवस्था को देखते हुए खासतौर पर अहम है क्योंकि उसे कई क्षेत्रों में व्यय करने की आवश्यकता है ताकि वह क्षमता निर्माण कर सके। इसमें सामाजिक क्षेत्र भी शामिल है।
फिलहाल सब्सिडी और नि:शुल्क उपहारों पर व्यय बढ़ाने से देश की राजकोषीय स्थिति कमजोर होगी। यह तब होगा जबकि सरकारी ऋण और आम सरकारी घाटा पहले ही काफी अधिक है।
केंद्र सरकार का लक्ष्य चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 5.9 फीसदी के स्तर पर रखने का है। वह 2025-26 तक इसे और कम करके 4.5 फीसदी तक लाना चाहती है। ऐसे में राजकोषीय घाटा मध्यम अवधि में ऊंचे स्तर पर बना रहेगा और व्यय में इजाफा राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया में और विलंब करेगा। इससे वृहद आर्थिक जोखिम बढ़ेंगे।