Israel-Hamas War: दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के आठ दशक और इजरायल (Israel) का अनुभव दिखाता है कि सैन्य शक्ति पर भरोसा चाहे जितना मजबूत हो लेकिन वह बड़े राजनीतिक और सामरिक लक्ष्य पाने में प्रभावी नहीं है।
यदि हम ऐसा सवाल पूछते, ‘किसी देश की शक्ति का निर्माण करने और उसे सामने रखने में सेनाएं कितनी महत्त्वपूर्ण हैं?’ तो हमें मूर्ख मानकर हम पर हंसा जाता। हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं है।
किसी देश की सकल राष्ट्रीय शक्ति (जीएनपी) में सेना प्रमुख है, बशर्ते कि आप अपने विद्यालय में होने वाली संयुक्त राष्ट्र की मॉडल बहसों में भाग लेने वाले आदर्शवादी और निष्कपट युवा न हों।
यही वजह है कि सभी प्रमुख देशों का रक्षा बजट बढ़ रहा है। यहां तक कि जापान ने भी शांतिवाद को त्यागकर 2027 तक अपना रक्षा बजट दोगुना करने की योजना पेश की है।
अगर हम इस प्रश्न को अलग ढंग से रखें तो बहस संभव है। सेनाएं शक्ति संपन्नता के लिहाज से चाहे जितनी भी महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य क्यों न हों लेकिन क्या वे अपने देश के राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने में मददगार हो सकती हैं? हम इसके उत्तर में सीधे तौर पर हां नहीं कह सकते लेकिन अगर आप टीवी चैनलों पर चल रही बहसों को देखें तो लगता है यही सच है।
इसका तर्क यह है कि इजरायल दुनिया की सबसे बेहतरीन सेनाओं में से एक है। उसकी खुफिया सेवाएं आलातरीन हैं। एक बार अगर ये खुलकर मैदान में आ गए तो हमास इतिहास बन जाएगा। मेरा कहना यह है कि अगर केवल सैन्य शक्ति के बल पर हमास जैसे आतंकी संगठन को नेस्तनाबूद किया जा सकता तो 2003 के बाद गाजा में पांच इजरायली युद्ध ऐसा क्यों नहीं कर सके? आईएसआईएस कहां से आया?
अगर हमास को समाप्त करने के लिए त्वरित सैन्य हमला करने से काम चल जाता तो इजरायल ने अब तक यह किया क्यों नहीं? क्या वे हिचकिचा रहे हैं या अंतिम प्रहार करने के पहले एकजुट हो रहे हैं?
इजरायल का अपना अनुभव बताता है कि सैन्य शक्ति चाहे जितनी ताकतवर हो, केवल उसके दम पर राजनीतिक और रणनीतिक लक्ष्य हासिल करने का रवैया सही नहीं है। ऐसा करने पर नाकामी ज्यादा हाथ लगती है।
खासतौर पर इजरायल के लिए उसकी सेनाओं ने देश की रक्षा में अहम भूमिका निभाई। परंतु उसे मिस्र के साथ एक महंगा शांति समझौता करना पड़ा और 1967 में कब्जा किया हुआ सारा भूभाग छोड़ना पड़ा। उसके तमाम अन्य शत्रु अभी भी लड़ रहे हैं जिनमें हमास और हिजबुल्ला जैसे संगठन भी शामिल हैं।
बीते आठ दशक का इतिहास बताता है कि अकेले सैन्य शक्ति के दम पर प्रयास करना नाकामी की गारंटी जैसा है। कुछ अपवाद हो सकते हैं मसलन 1971 में भारत तथा फॉकलैंड युद्ध में ब्रिटेन लेकिन वहां भी अन्य कारक थे।
हालांकि इजरायली नेता, खासकर प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू बार-बार यह दोहराते रहे हैं कि वे हमास को पूरी तरह समाप्त कर देंगे। परंतु यह बात लगभग तय है कि ऐसा करने के लिए जमीनी हमला करना अनिवार्य होगा। सात अक्टूबर को हमलों की शुरुआत के बाद एकमात्र प्रश्न यह था कि जमीनी हमला कब होगा। क्यों, कैसे और क्या जैसे प्रश्न पूरी बहस से लगभग नदारद थे।
जाहिर सी बात है कि इजरायली/यहूदी और हमास/फिलिस्तीनियों के सामने जो सवाल हैं उनके दो प्रमुख और स्पष्ट पहलू हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इजरायल से निकलते समय सावधानी बरतने का मशविरा अवश्य दिया था लेकिन दोनों पक्षों द्वारा जमीनी हमले को अनिवार्य माना जा रहा था। जो लोग मानते हैं कि नेतन्याहू इस विचार के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं, उनका विश्वास है कि वे केवल इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि अमेरिका से आए नए साजो-सामान की तैनाती कर दी जाए और पश्चिमी समर्थक देश ईरान और उसके समर्थकों से निपटने के लिए भूमध्यसागर में अपनी ताकत जुटा लें।
हालांकि 1945 से अब तक कोई भी सैन्य माध्यमों से अपना प्राथमिक राष्ट्रीय लक्ष्य हासिल नहीं कर सका है, वहीं कई को अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा और वे समय के साथ कमजोर हो गए। अफगानिस्तान में सोवियत संघ, अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका के साथ यही हुआ। उससे पहले वियतनाम और कोरिया में भी यही हुआ था।
इसी प्रकार फ्रांसीसी सेनाओं को पूरा अफ्रीका गंवाना पड़ा। अब हमें अफ्रीका के कई देशों में फ्रांसीसी शक्ति की बचीखुची ताकतों को पीछे हटते देख रहे हैं। ऐसा इसलिए कि वहां चीन और रूस से समर्थित नई सैन्य सरकारों ने शासन संभाल लिया है। नाइजर इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है।
इजरायल की सेना की उल्लेखनीय सफलता इसी बात से उजागर होती है कि इजरायल का अस्तित्व कायम है। वरना ‘नदी और समुद्र’ के बीच एक पतली सी पट्टी पर बसा यह देश कई बार हमले का शिकार हो चुका होता। परंतु उसकी सेना ने जितनी जमीन जोड़ी है उसे लेकर सवाल बाकी हैं।
गोलान पहाड़ियों को इजरायल में शामिल कर लेना काफी हद तक व्यापक स्वीकार्यता पा चुका है लेकिन वेस्ट बैंक को लेकर गंभीर सवाल बने रहेंगे।
एक बार फिर गाजा पर हमले के नतीजों के बावजूद स्वतंत्र फिलिस्तीन और दो देशों वाले हल को लेकर वैश्विक आवाजें और मजबूत होती जाएंगी। इसमें अमेरिका से लेकर भारत तक इजरायल के सबसे करीबी देश भी शामिल होंगे। इस विषय पर यूरोप का रुख पारंपरिक रूप से दृढ़ रहा है।
चीन ने भी ईरान और रूस के साथ गहराते रिश्तों के बीच इस विषय पर मजबूत रुख अपनाया है। उस क्षेत्र में इजरायल के सबसे नए और अहम मित्र संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और बहरीन भले ही इजरायल को बचाने की पूरी कोशिश करें लेकिन वे भी फिलिस्तीन के हिमायती हैं।
आपको देखना होगा कि कैसे उस समय इतिहास रचा गया जब सऊदी अरब ने अमेरिका से मिले बेहतरीन ऐंटी मिसाइल सिस्टम का इस्तेमाल करके इजरायल की ओर जा रही हाउथी मिसाइल को मार गिराया। सऊदी अरब नया और मूल्यवान मित्र बनेगा क्योंकि उसके सामरिक हित अक्सर ईरान के साथ टकराते हैं जबकि अमेरिका और इजरायल के साथ जुड़ते हैं। परंतु वह भी फिलिस्तीन को लेकर अरब और मुस्लिम विचारों के खिलाफ नहीं जाएगा।
बीते आठ दशकों ने बार-बार इस बात को रेखांकित किया है कि पूरी तरह सैन्य साधनों से किसी जटिल मुद्दे को हल करना फिजूल रहा है। अगर ऐसा संभव होता तो भारत ने कश्मीर समस्या को समाप्त कर दिया होता। सैन्य कार्रवाई शुरू में चौंका सकती है लेकिन यह स्टेरॉइड चिकित्सा के समान होता है।
यह समस्या को तात्कालिक रूप से खत्म कर देता है, आपको राहत देता है और बदले की भावना का शमन करता है। परंतु स्टेरॉइड चिकित्सा की तरह यह भीतर ही भीतर बीमारी को और मजबूत कर देता है।
जंग में कोई एक पक्ष हर लड़ाई जीत सकता है। जैसे अमेरिका अफगानिस्तान और ईरान में जीतता रहा लेकिन अगर कूटनीति, राजनीति, समझौता और परस्पर लेनदेन न हो तो अंतिम नतीजा पराजय के रूप में ही सामने आता है।
इजरायल की चुनौती इसलिए जटिल है क्योंकि उसके सामने कोई संप्रभु शत्रु शक्ति नहीं है। परदे के पीछे ईरान चाहे जो करे लेकिन वह सीधे युद्ध में शामिल नहीं होगा। गाजा खुद एक छोटा शहरी इलाका है। उसे दिल्ली के निकट ग्रेटर नोएडा के आकार का मानिए। वह 41 वर्ग किलोमीटर में फैला है। उसकी लंबाई 41 किलोमीटर और चौड़ाई पांच से 12 किलोमीटर है। मजबूत सेना की बदौलत जीत की घोषणा की जा सकती है लेकिन उसकी कीमत चुकानी होगी।
शहरी युद्ध कला का कोई भी जानकार आपको बता देगा कि शहर सेनाओं को घेरे में लेकर निगल जाते हैं और बचाव करने वालों को वैसी ही पकड़ मुहैया कराते हैं जैसी पहाड़ों पर मौजूद सेनाओं को मिलती है।
क्या इजरायल नागरिकों के खात्मे, विनाश और दुनिया भर की आलोचना के साथ यह जोखिम लेने को तैयार होगा? वह हमास के प्रमुख नेताओं और उसके लोगों को भले ही खत्म कर दे लेकिन एक विचार के रूप में ये मौजूद रहेंगे और तगड़ी वापसी करेंगे।
क्या यह बेहतर होगा कि इजरायल धैर्य का परिचय देन, अपनी शैली में लंबा युद्ध करे और अपनी शानदार खुफिया क्षमताओं का इस्तेमाल करके निशाना बनाकर हमला करे और आतंकियों को चुन-चुनकर निशाने पर ले। ताकि उसके लोग न मारे जाएं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समस्या न खड़ी हो। जमीनी हमले के पहले नेतन्याहू के पास अवसर है कि वह पुनर्विचार करें।