क्या था राज! | पड़ोसी मुल्क को भले ही इसकी आदत हो लेकिन भारत में कभी भी सैन्य तख्तापलट की कल्पना भी नहीं की गई। हाल में एक अखबार में छपी सनसनीखेज रिपोर्ट ने सवाल उठा दिया है कि 16 जनवरी की रात को हुर्ई कवायद के पीछे क्या मकसद था। इसकी परतें खोलती अजय शुक्ला की रिपोर्ट / April 06, 2012 | | | | |
चंद सवाल ऐसे होते हैं जिनका जवाब हमें नहीं मिल पाता। कुछ ऐसी ही बात इस सवाल से जुड़ी हुई है जिनका जवाब अब हमें शायद कभी नहीं मिल पाएगा। क्या 16 जनवरी को सेना प्रमुख ने वास्तव में अपने मुखिया रक्षा मंत्री ए के एंटनी को चेतावनी देने के मकसद से नई दिल्ली के आसपास के इलाके में दो सैन्य टुकडिय़ों को जुटाने की कवायद की थी? यह वही दिन था जब जनरल वी के सिंह ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए उच्चतम न्यायालय में अपनी उम्र से जुड़े विवादास्पद मामले में सरकार को चुनौती दी थी।
बुधवार को इस खबर की आंच ने पूरे देश भर में हलचल मचा दी। 'इंडियन एक्सप्रेस' अखबार में यह खबर छपी कि 16 जनवरी की कुहासे और कड़ाके की ठंड वाली रात में जब खुफिया एजेंसियों को यह अंदाजा हुआ कि हिसार की 33 वीं बख्तरबंद डिविजन की एक सैन्य टुकड़ी और आगरा की 50 वीं (स्वतंत्र) पैराशूट ब्रिगेड की एक विशेष सैन्य बल टुकड़ी अप्रत्याशित तरीके से देश की राजधानी की ओर बढ़ रही है जिससे देश के राजनैतिक हलके में घबराहट बढ़ गई थी।
इस रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने इस घटनाक्रम को 'अप्रत्याशित' और 'गैर अधिसूचित' करार देते हुए आनन-फानन में रक्षा सचिव शशिकांत शर्मा को भी मलेशिया से वापस बुलाया था। शर्मा जब दिल्ली पहुंचे तब उन्होंने सेना के सैन्य संचालन महानिदेशक (डीजीएमओ) लेफ्टिनेंट जनरल ए के चौधरी को अपने दफ्तर में देर रात एक बैठक के लिए बुलाया और उनसे इस पर रुख स्पष्ट करने को कहा कि 'यह चल क्या रहा है?' जनरल को यह ताकीद दी गई कि वह सेना की टुकडिय़ों को तुरंत वापस भेजें।
हालांकि इस अंग्रेजी अखबार ने अपनी इस रिपोर्ट में 'तख्तापलट' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया था कि राजनैतिक-सैन्य रिश्ते में बने तनाव के माहौल के बीच सेना की इस हरकत से सरकार की नुमाइंदगी करने वाले प्रमुख लोगों ने 'गड़बड़ी की आशंका और घबराहट' महसूस की। इसके बाद सेना ने इस खबर का बड़े आक्रामक तरीके से खंडन किया।
सेना के बेहद ईमानदार और तेजतर्रार जनरलों में से एक लेफ्टिनेंट जनरल हरचरनजीत सिंह पनाग 2009 में सेवानिवृत होने तक एक सैन्य कमांडर थे, उन्होंने गुरुवार को ट्विटर पर लिखा कि जनरल सिंह ने सरकार को डराने के लिए यह योजना बनाई थी ताकि सरकार को यह अंदाजा हो जाए कि अगर वह उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारी में है तो तख्तापलट भी संभव हो सकता है। पनाग ने सुझाया कि चूंकि सेना की दो टुकडिय़ों का यह कदम उनकी नियमित अभ्यास प्रक्रिया का ही हिस्सा था, ऐसे में किसी द्वेषपूर्ण और बुरे इरादे की बात को विश्वसनीय ढंग से खारिज किया जा सकता है। सेना की इन्हीं टुकडिय़ों को केवल अभ्यास के आदेश दिए गए थे जिस पर आपत्ति जताने का कोई सवाल भी नहीं खड़ा होता और केवल चुनिंदा लोग ही इस कार्यवाही के असली मकसद के बारे में जानते हैं।
इसी से जुड़े पांच ट्वीट में पनाग ने इस कदम को एक 'प्रदर्शन' करार दिया जो 'दुश्मन की फैसला लेने की प्रक्रिया में बदलाव' लाने के लिए की गई कार्रवाई है। एक 'कवर प्लान' के जरिये इस पूरे घटनाक्रम का खंडन करने की स्थिति पैदा की गई, जिसके बारे में पनाग विस्तार से बताते हैं, 'दुश्मन को झांसा देने के लिए बनाई गई योजना के लिए एक विश्वसनीय बहाना बनाया जा सके।' इस सैन्य प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाली सैन्य टुकडिय़ां इसके 'असली मकसद से वाकिफ नहीं थीं' लेकिन वरिष्ठ कमांडरों को इसका भान था। पनाग का कहना है कि नई दिल्ली की ओर सैन्य टुकडिय़ों का बढऩा एक 'सुनियोजित प्रदर्शन का हिस्सा था और इसके लिए उपयुक्त कवर योजना भी बना ली गई थी' जिसका मतलब यह है कि कोई दुश्मन किसी की रणनीति और योजना पर अमल न होने देने से पहले ही पलटवार कार्रवाई करना।
सरकार, सेना और मीडिया भी इस बात पर बड़े सावधान हैं और अगर पनाग की बात सही माने तो इसे करीब-करीब तख्तापलट जैसे अनुभव का नाम दिया जा सकता है। सार्वजनिक चर्चा में रिपोर्ट में लिखे गए 'सी' शब्द पर चर्चा हो रही है। इस रिपोर्ट को लिखने वाले इंडियन एक्सप्रेस के मुख्य संपादक शेखर गुप्ता ने एक टीवी पत्रकार के सवालों का जवाब देते हुए कहा, 'मैंने सी शब्द का इस्तेमाल जरूर किया है लेकिन इससे मेरा तात्पर्य क्यूरियस (उत्सुकता) था न कि कू (तख्तापलट)'।
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क्या वास्तव में यह सरकार और सेना के रिश्ते में आमूल परिवर्तन वाली ऐतिहासिक घटना है? क्या इतिहासकार 16 जनवरी को एक ऐसे दिन के रूप में देखेंगे जिस दिन जनरल सिंह ने सरकार की प्रक्रिया को अदालत में चुनौती दी और साथ-साथ (अगर पनाग सही हैं तो) दिल्ली की ओर कूच करके इसका हल निकालने की दृढ़ता दिखाई? फिलहाल ऐसा लगता है कि जनरल सिंह का सरकार के साथ चल रहा मतभेद सेना के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रहा है। अब रक्षा मंत्रालय के अधिकारी बड़ी तत्परता से नीतियों, खरीद प्रक्रिया और पदोन्नति को मंजूरी दे रहे हैं जिसे कुछ मामलों में कई सालों से बेवजह लटकाया गया था।
20 मार्च को रक्षा मंत्रालय ने मेजर जनरल के लिए एक पदोन्नति बोर्ड के नतीजे को मंजूरी दी थी जिसे पिछले 6 महीने से निर्ममता से टाला गया था। 2 अप्रैल को इसी मंत्रालय ने लंबे समय से संशोधन की राह ताक रही डिफेंस ऑफसेट पॉलिसी में सुधार किया था। उसी दिन एंटनी ने हथियारों की खरीद से जुड़ी समीक्षा की थी और उन्होंने इनके जल्द परीक्षण कराने का आग्रह भी किया। हालांकि सैन्य बलों पर असैन्य नियंत्रण के लिए वित्त एक महत्त्वपूर्ण पहलू रहा है लेकिन एंटनी ने रक्षा सेवाओं को ज्यादा वित्तीय शक्तियां देने का सुझाव दिया है ताकि ज्यादा से ज्यादा उपकरण खरीदें जाएं और इन सेवाओं के तंत्र को ज्यादा सशक्त बनाया जाए।
सेना की 15 वर्षीय दीर्घावधि एकीकृत दृष्टिकोण योजना, एक अहम दस्तावेज है जिसमें देसी तकनीक के आधार पर हथियारों के विकास और खरीद के लिए एक खाका तैयार किया गया है। सूत्रों का कहना है कि इसे जल्द ही मंजूरी मिल सकती है। एक ओर नरेश चंद्रा समिति रक्षा तैयारी और उच्च स्तर के रक्षा संगठनों की पुनर्संरचना से जुड़ी अपनी सिफारिशों को अंतिम रूप दे रही है वहीं अंदरूनी सूत्रों ने इस बात पर दांव लगाना शुरू कर दिया है कि सरकार लंबे समय से विभिन्न समितियों और मंत्री समूहों द्वारा दिए जा रहे इस सुझाव को संभवत: स्वीकार सकती है कि तीन स्तर के सेना प्रमुखों से ऊपर एक 'चीफ ऑफ दि डिफेंस स्टॉफ' की नियुक्ति की जाए। यह प्रस्तावित पद पांच सितारा जनरल वाला होगा जिसके हाथ में थल, जल एवं वायु तीनो सेनाओं की कमान होगी।
फिलहाल सेना, सेनाध्यक्ष और सरकार के बीच चल रहे विवाद और रक्षा मंत्रालय से जुड़े इस तथाकथित संवेदनशील वाकये के बीच किसी ताल्लुक से साफ तौर पर इनकार कर रही है। हालांकि सेवारत जनरल जोरदार तरीके से इंडियन एक्सप्रेस के लेख से उभर रहे आरोपों को खारिज कर रहे हैं जिसके मुताबिक जनरल सिंह ने सरकार पर गैरकानूनी तरीके से दबाव बनाया।
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फिलहाल सेना मुख्यालय में सेवारत अधिकारी जोर देकर कहते हैं कि यह बिलकुल गलत बात है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में किसी भी वक्त सेना की हलचल से पहले रक्षा मंत्रालय द्वारा पूर्व जरूरी मंजूरी का कोई प्रावधान या नियम है। सैन्य संचालन के समन्वय से जुड़े एक ब्रिगेडियर का कहना है, 'सेना की टुकडिय़ां रोजाना दिल्ली की ओर, दिल्ली में और दिल्ली के इर्द-गिर्द होती हैं। इनमें फायरिंग या प्रशिक्षण के लिए जा रही टुकडिय़ों के काफिले के साथ-साथ एक केंद्र से दूसरे केंद्र की ओर स्थानांतरित हो रही टुकडिय़ों का काफिला भी होता है। हर कॉम्बैट टुकड़ी को हर दो या तीन साल में ऐसा करना ही होता है। इन टुकडिय़ों के काफिले को प्रशासनिक औपचारिकताएं पूरी करने के लिए दिल्ली में रुकना पड़ता है।'
सेवारत अधिकारी यह सवाल भी उठाते हैं कि आखिर दिल्ली की ओर आ रही दो टुकडिय़ों (बमुश्किल 500 जवान) को कैसे एक खतरे के तौर पर देखा जा सकता है, जब दो फ्रंटलाइन इन्फैंट्री ब्रिगेड और एक आर्टिलरी ब्रिगेड (10,000 से भी ज्यादा जवान) स्थायी रूप से राजधानी में तैनात रहते हैं। दिल्ली में इस स्थायी सैन्य जमाव में जनवरी में कुछ और हजार अतिरिक्त जवान तब और जुड़ जाते हैं जिन्हें सेना दिवस और गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होना होता है। एक अधिकारी सवाल करते हैं, 'चलिए एक क्षण को यह मान भी लिया जाए कि कुछ उन्मादी सेना प्रमुख तख्तापलट चाहते थे और वह दिल्ली में मौजूद सैनिकों के अलावा कुछ और सैनिक चाहते थे। ऐसे में वह हिसार (165 किलोमीटर दूर) और आगरा (204 किलोमीटर दूर) से सैनिकों को क्यों जमा करते जब महज 70 किलोमीटर की दूरी पर मेरठ में पूरी इन्फैंट्री डिविजन मौजूद है।'
यहां तक कि किसी कल्पित तख्तापलट पर हो रही चर्चा की संवेदनशीलता को देखते हुए पहचान गुप्त रखने की शर्त पर हाल में सेवानिवृत्त हुए एक लेफ्टिनेंट जनरल कहते हैं , 'किसी भी सफल सैन्य तख्तापलट के लिए सभी छह भौगोलिक सैन्य कमानों के अलावा वायु सेना प्रमुख के सक्रिय सहयोग की दरकार होगी। यहां तक कि अगर एक भी कमान के प्रमुख की इस पर सहमति नहीं होगी तो भी यह संभव नहीं होगा और ऐसा सोचना बिलकुल मूर्खतापूर्ण होगा कि भावी सेनाध्यक्ष और पूर्वी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल विक्रम सिंह खुद को किसी भी तख्तापलट के साथ जोड़ेंगे-ऐसे में कोई भी कोशिश तुरंत वफादारों और विद्रोहियों के बीच गृहयुद्घ में तब्दील हो जाएगी।'
हालांकि भारत में एक कामयाब सैन्य तख्तापलट की कल्पना करना शायद मुश्किल है, लेकिन मौजूदा फितूर किसी असल तख्तापलट की गुंजाइश का मसला नहीं है बल्कि जैसा कि पनाग कहते हैं, एक कमजोर सरकार की कलाई मरोड़कर उस पर हल्का सा सैन्य दबाव डालने की खयाली पुलाव हो सकता है। एक पूर्व सेनाध्यक्ष कहते हैं, 'हिसार और आगरा से इन दो टुकडिय़ों को बुलाने के पीछे के इरादों को निश्चित रूप से निर्धारित करना अगर असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल जरूर होगा। कागजी कार्यवाही ही यह बताएगी कि यह अभ्यास वैधानिक आदेश का हिस्सा था या नहीं। इस कदम के पीछे के इरादे ही मायने रखते हैं और इरादे इंसानी दिमाग में होते हैं।'
उनका कहना है कि यहां पर सरकार और सेना के बीच रिश्ते मायने रखते हैं। पूर्व सेनाध्यक्ष कहते हैं, 'पंजाब में अलगाववाद से लडऩे के लिए मुझे दिल्ली के रास्ते 3-4 पूरी डिविजन गुजारनी पड़ती थीं। उससे एक पल के लिए भी असैन्य प्रशासन के लिए साथ कोई तनाव नहीं हुआ। सेना और सरकार के बीच उस वक्त रिश्ते जैसे भी हों लेकिन हमारे बीच कोई संदेह नहीं था।'
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यही वजह है कि किसी देश के नागरिक-सैन्य संबंध निश्चित रूप से बेहतर स्थापित ढांचे, प्रक्रिया और प्रभाव चक्र पर आधारित होने चाहिए न कि मौजूदा मिजाज के हिसाब से जो हालात और घटनाओं से बदल सकते हैं। भारत में सरकार और सेना के बीच सीमा रेखा की कुछ समझ या सार्वजनिक चर्चा होती है जिसमें दोनों की जिम्मेदारी और संपर्क भी तय है। लेखक सैमुअल हंटिंगटन ने वर्ष 1957 में आई अपनी कालजयी कृति 'द सोल्जर ऐंड द स्टेट' में सेना के 'वस्तुनिष्ठ नियंत्रण' की अवधारणा पेश की। सभी सफलतम लोकतंत्रों में लागू असैन्य नियंत्रण का यह ढांचा सेना को अपने दायरे में पूरी स्वायत्तता मुहैया कराता है। अपने पेशेवर क्षेत्र में अपना प्रभुत्व रखने वाली सेना और इस तरह से 'वस्तुनिष्ठ नियंत्रण' स्वयंसिद्घ हो जाता है और वह राजनैतिक दायरे में खुद को शामिल नहीं करती। हालांकि असैन्य नियंत्रण सेना के रोजमर्रा के फैसलों को प्रभावित करने के बजाय व्यापक राजनैतिक मुद्दों के हिसाब से होता है। इसके उलट 'व्यक्तिपरक नियंत्रण' बाधित असैन्य नियंत्रण के जरिये सेना के प्रभाव को बेअसर करता है, विस्तृत असैन्य पकड़ सेना के आंतरिक मामलों में दखल देने लगती है। व्यक्तिपरक नियंत्रण 'सेना के असैन्यकरण' का संकेत देता है जबकि वस्तुनिष्ठ नियंत्रण 'सेना के सैन्यकरण' के लिए लक्षित होता है जो पेशेवर अंदाज और उसके दायरे में उसकी जिम्मेदारी को प्रोत्साहित करता है।
भारतीय सेना और रक्षा मंत्रालय या भारत सरकार के साथ इसके संबंधों के ढांचे पर नजर रखने वाले छात्र और विश्लेषक एकमत रूप से इस बात पर सहमत हैं कि पिछले कुछ वक्त के दौरान 'वस्तुनिष्ठ नियंत्रण' की सीमा का उल्लंघन हुआ है। दीर्घ अवधि की योजना से लेकर हथियार खरीद, प्रोन्नति और सेना के अधिकारियों की जन्म तिथि, सब पर असैन्य नौकरशाही हावी है। किसी भी सैन्य अधिकारी से उसकी सबसे बड़ी नाराजगी की वजह पूछिए लगभग निश्चित रूप से यही जवाब आएगा, 'बाबू' यानी नौकरशाह।
हालांकि भारत में सैन्य तख्तापलट बहुत मुश्किल है और संसदीय लोकतंत्र के ढांचे को लेकर शिकायतों और आक्रोश पर सेना एक दायरे में ही प्रतिक्रिया देती है। एक अन्य चर्चित पुस्तक 'सोल्जर्स इन पॉलिटिक्स, मिलिट्री कूज एंड गवर्नमेंट्स' के लेखक एरिक नॉर्डलिंगर तर्क देते हैं कि आमतौर पर सरकार की नाकामी सैन्य तख्तापलट की वजह बनती हैं। सैन्य दखल के वास्तविक कारण उन मामलों में होने वाला असैन्य दखल है जिन पर सेना अपना वैधानिक अधिकार मानती है, पर्याप्त बजटीय सहायता, आंतरिक मामलों में उसकी स्वायत्तता, प्रतिद्वंद्वी संगठन द्वारा उसकी जिम्मेदारी के अतिक्रमण रोकने का उसका अधिकार और खुद उसकी निरंतरता। क्या यह एक व्यापक बहस का समय है?
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