म्यांमार की सीमा से सटे नगालैंड के मोन जिले में कुछ लोगों की मौत पर केवल अफसोस जताना पर्याप्त नहीं होगा। इस दुखद घटना पर सरकार के खेद जताने से कम से कम नगालैंड के लोगों का गुस्सा तो कम होने वाला नहीं है। राज्य में 'दुर्घटनावश' नागरिकों की मौत पर महज खेद जताना कहीं न कहीं उदासीनता की भावना से ग्रसित लग रहा है। सेना भी कह सकती है कि ऐसी दुखद घटनाएं कभी-कभी हो जाती हैं। मगर इसका विश्लेषण करना जरूरी है कि आखिर इस उदासीनता एवं अभिमान की वजह क्या है। क्या पूरी तरह प्रशिक्षित एवं पेशेवर स्पेशल फोर्स का दस्ता देश के दूसरे राज्यों में तथ्यों की छानबीन किए बिना यूं अंधाधुंध गोलियां बरसा सकता है? पूर्वोत्तर भारत के राज्य, खासकर जिन राज्यों में उग्रवाद सक्रिय है, वे देश के मुख्य भाग से कटे हैं। शायद इन राज्यों के लोगों के प्रति निष्ठुर रवैये की एक वजह यह हो सकती है कि वे राष्ट्रीय मीडिया की पहुंच से दूर हैं और ज्यादातर गरीब हैं। सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) भी इस निष्ठुरता की एक वजह है। पूर्वोत्तर भारत के अधिकतर राजनीतिक दल इस कानून को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं। मेघालय और नगालैंड में भाजपा गठबंधन के मुख्यमंत्री भी यही मांग कर रहे हैं। इस विशेष कानून के बारे में हम तीन कड़वे सत्य से परिचित हैं? पहला सत्य यह है कि अगर इस कानून से सशस्त्र बलों को विशेष अधिकार नहीं मिले होते तो यह हिंसा कभी नहीं होती। सेना की टुकड़ी को तब स्थानीय प्रशासन और पुलिस को विश्वास में लेना पड़ता। अगर स्थानीय भाषा की जानकारी होती तो भी हालात यहां तक नहीं पहुंचते। जिस स्थान या क्षेत्र से आप जितनी दूर होते हैं वहां की भाषा समझना उतना ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है। दूसरा सत्य यह है कानून समाप्त करने का अब समय आ गया है। कम से कम जिस रूप में इस कानून की इजाजत दी गई है वह किसी भी तरीके से सेना या हमारे राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा में मदद नहीं कर पा रहा है। तीसरा और सर्वाधिक कड़वा सत्य यह है कि तमाम विरोध प्रदर्शन के बावजूद सरकार यह कानून वापस नहीं लेगी। भले ही हम अखबारों में इस विषय पर कितने ही आलेख क्यों न लिख लें मगर के बाद एक सरकारों का रवैया ढुलमुल रहा है। इस कानून पर एक बड़ा राजनीतिक दांव लगा हुआ है। मोदी-शाह सहित कोई भी सरकार इस विषय पर नरम रुख रखने के लिए तैयार नहीं होगी। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार भी अपने 10 वर्षों के कार्यकाल में यह हिम्मत नहीं जुटा पाई। हालांकि तमाम किंतु-परंतु के बावजूद एक समाधान है। अगर नगालैंड में हुई घटना के बाद भी हम समाधान खोजने की दिशा में आगे नहीं बढ़ते हैं तो निश्चित तौर पर यह अवसर गंवाने जैसा होगा। चूंकि, यह कानून निरस्त नहीं होगा इसलिए यह गुंजाइश खोजनी होगी कि हम किस तरह जरूरत होने पर ही इस कानून का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह कानून देश के सभी केंद्र शासित प्रदेशों, जम्मू कश्मीर, असम और नगालैंड में लागू है। इम्फाल नगर निगम क्षेत्र को छोड़कर पूरे मणिपुर में यह कानून प्रभाव में है। अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी जिलों तिराप, चंगलांग और लौंगडिंग तथा नमसाई जिले के नमसाई और महादेवपुर पुलिस क्षेत्र में भी यह कानून लागू है। जम्मू कश्मीर की बात समझ में आ सकती है। यहां आतंकवादी काफी सक्रिय हैं और पाकिस्तान जैसा हमारा पड़ोसी यहां ऐसी गतिविधियों को बढ़ावा दे रहा है। जम्मू कश्मीर पर अपना रुख नरम रखने का जोखिम भी कोई सरकार नहीं उठा सकती। न ही जम्मू कश्मीर में यह कड़ा कानून समाप्त करने का अभी समय आया है। मगर क्या देश के दूसरे हिस्से में भी अफस्पा को प्रभावी बनाए रखना जरूरी है? मणिपुर के सीमावर्ती क्षेत्रों में हिंसा की छिटपुट घटनाएं होती रहती हैं। मगर पूरे राज्य की बात करें तो मोटे तौर पर शांति है। इनमें कभी नगा उग्रवाद से प्रभावित तंगखुल जिला भी शामिल है। समझदारी यही होगी कि म्यांमार से सटी सीमा के 25-30 किलोमीटर क्षेत्र को छोड़कर राज्य के शेष हिस्सों से यह कानून वापस ले लिया जाए। इस क्षेत्र में सेना सक्रिय अभियान नहीं चला रही है। अगर कभी सेना की टुकड़ी या निरीक्षण दल पर हमला होता भी है तो इसका जवाब देने के लिए सेना को पूरा अधिकार है। पूरे असम में भी यह कानून प्रभावी रखना खलता है। राज्य में कभी-कभी कम क्षमता वाले बम विस्फोट होते रहते हैं मगर ऐसी घटनाएं देश के दूसरे राज्यों में भी होती हैं जिनमें पंजाब भी शामिल है। पंजाब में 1983 से 1997 तक यह कठोर कानून लागू था मगर आतंकवाद समाप्त होने के साथ ही यह समाप्त हो गया। लगभग पिछले 25 वर्षों से राज्य में शांति है। असम की भी यही हालत है। तो फिर यहां यह क्यों नहीं समाप्त किया जा रहा है? असम में उल्फा का तांडव समाप्त हो चुका है। बोडो चरमपंथ भी खत्म हो चुका है और राज्य के ज्यादातर हिस्से मुख्य राजनीतिक धारा का हिस्सा बन गए हैं। चरमपंथ का हिस्सा रहा एक प्रमुख विद्रोही गुट पिछले वर्ष के शुरू तक भाजपा का एक सहयोगी रहा था। अगर बोडो क्षेत्रों में हिंसा होती है या उत्तरी कछार पहाड़ी में स्थानीय लोग हिंसा में संलिप्त होते हैं तो अद्र्धसैनिक बल क्यों उसी तरह इसका जवाब नहीं दे सकते जैसे वे पूर्व-मध्य भारत में नक्सली हिंसा वाले क्षेत्रों में देते हैं? अगर नक्सली हिंसा का मुकाबला बिना इस कठोर कानून के किया जा सकता है तो असम में इस कानून की जरूरत क्यों महसूस हो रही है? असम में यह कानून प्रभावी रखने का कोई औचित्य नहीं है। नगालैंड के साथ भी यही बात लागू होती है। यहां विद्रोही जनजातियों ने शांति समझौता किया और 1975 में शिलॉन्ग शांति समझौते का हिस्सा बनने के बाद वे मुख्यधारा से जुडऩे के लिए तैयार हो गए। इसके बाद भूमिगत हो चुके और जब तब हिंसा करने वाले एनएससीएन-आईएम ने 1997 में संघर्ष विराम समझौता कर लिया। तब से राज्य में पिछले लगभग 25 वर्षों से शांति कायम है। 1986 में शांति व्यवस्था कायम होने के बाद मिजोरम से भी यह विशेष कानून हटा लिया गया। त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार तत्कालीन गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के साथ लगातार संपर्क में रहे और उन्होंने अफस्पा को निष्प्रभावी करा दिया। यह सच है कि एनएससीएन और दूसरे समूह नगालैंड में मनमानी करते हैं और करों की उगाही करते हैं। हालांकि तब भी राज्य के सीमावर्ती इलाकों में कु छ दूसरे उग्रवादी समूह संघर्ष विराम स्वीकार नहीं कर रहे हैं इसलिए यह कानून प्रभावी रखने के पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं। अरुणाचल से सटी सीमा के इर्द-गिर्द भी गतिविधियां रहती हैं और इस स्थान का रणनीतिक लिहाज से भी महत्त्व है इसलिए यह कानून समाप्त नहीं किया जा सकता है। मगर नगालैंड के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से से यह कानून पूरी तरह हटाया जा सकता है। भारत में कश्मीर को छोड़कर केवल आदिवासी बहुल नक्सली क्षेत्रों में ही उग्रवाद सक्रिय है। पिछले एक दशक से इन क्षेत्रों में लोगों की जान जा रही है। तब भी हम केवल इस समस्या से केवल अद्र्धसैनिक बलों से ही क्यों निपट रहे हैं? उन्हें अफस्पा के तहत विशेष ताकत क्यों नहीं दी जा रही है? इसका जवाब काफी सरल और स्वार्थ में लिप्त है। यह क्षेत्र देश के एकदम बीच में है, ये आदिवासी भारतीय हैं और हिंदू भी। जब भी मैं यह प्रश्न पूछता हूं कि क्या पूर्वोत्तर भारत या कश्मीर के आदिवासियों में कम भारतीयता है तो मुझे वाम एवं दक्षिण दोनों पंथों के लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ता है। मगर तब मैं सोचता हूं कि कश्मीर तो पाकिस्तान के बिल्कुल सटा हुआ है, इसलिए वहां को लेकर अलग दृष्टिकोण है। अब पूर्वोत्तर की बात करते हैं। पूर्वी पाकिस्तान 1971 में अपना अस्तित्व गंवा बैठा था। अब बांग्लादेश हमारा मित्र बन गया है और अगर कोई विद्रोही वहां जाता है तो वह तत्काल इसे हमारे हवाले करने के लिए तैयार रहता है। आखिर पूर्वोत्तर भारत को शांति स्थापित होने का लाभ क्यों नहीं मिल रहा है? 1971 में अर्जित सफलताओं का लाभ पूर्वोत्तर के लोगों को क्यों नहीं मिल रहा है? इसकी वजह पहले की बता चुका है कि अफस्पा एक घातक बीमारी बन चुकी है।
