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सैलानियों का ठिकाना महामारी में पड़ा सूना

Last Updated- December 11, 2022 | 10:47 PM IST

अपराह्न के करीब ढाई बजे हैं। विवेक कनौजिया दीवार में लगने वाली सिरैमिक की खूंटी को एहतियात से लपेट रहे हैं, जिसकी कीमत आज की उनकी दूसरी ग्राहक अलीना के लिए 100 रुपये है। वह रूस से आई हैं। वह ऐसी पहली विदेशी ग्राहक भी हैं, जो कुछ देर के लिए उनकी कलाकृतियों की दुकान पर रुकी हैं। दो साल पहले की बात होती, तो कनौजिया दिन के इस समय तक व्यस्तता भरे कुछ घंटे बिता चुके होते, ग्राहकों के लगातार तांते को संभालते हुए, जिनमें से ज्यादातर विदेशी होते हैं। अपने सामान को उदासी से निहारते हुए वह कहते हैं ‘अब मैं बस बैठा ही रहता हूं और अपना सामान झाड़ता-पोंछता रहता हूं।’
उनकी दुकान के बाहर गली तकरीबन सुनसान पड़ी है। इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि यह पहाडग़ंज है, जो किसी सामान्य समय में जीता-जागता पर्यटन केंद्र होता है, भारतीय और विदेशी दोनों के ही लिए। शायद एक ऐसी जगह, जैसी देश में दूसरी न हो।
इसका वजूद मुगल काल के वक्त का है, जब शाहजहानाबाद (वर्तमान में पुरानी दिल्ली) का दीवारों वाला शहर आसपास के इलाकों में फैल गया था। आधुनिक पहाडग़ंज को हिप्पी हॉटस्पॉट के रूप में पहचाना जाता है। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से कुछ फलांग दूर स्थित यह एक ऐसी अनूठी अर्थव्यवस्था है, जो यात्रियों और किफायत बरतने वाले मुसाफिरों की वजह से पनपी है।
लेकिन महामारी की वजह से अंतरराष्ट्रीय और घरेलू दोनों ही तरह की यात्रा में कमी आने से दिल्ली का यह इलाका अब अपने वजूद के लिए मशक्कत कर रहा है। कुछ लोग तो यहां तक भी कहेंगे कि पिछले दो असामान्य वर्षों ने इसकी उस खासियत को तकरीबन खत्म ही कर दिया है, जिसे इसके हजार से अधिक होटलों, ट्रैवल एजेंसियों, मुद्रा विनिमय बूथों और दुकानों तथा दुनिया भर के व्यंजन परोसने वाले रेस्तरां द्वारा परिभाषित किया जाता है।
गाहे-बगाहे यात्रा प्रतिबंधों का कनौजिया के निजी जीवन पर भी दूरगामी असर पड़ा है। जल्द ही 28 साल के होने वाले कनौजिया शादी नहीं कर पा रहे हैं। वह कहते हैं ‘ये दो साल काफी ऊहापोह वाले रहे हैं। मैं अपनी आगे की कमाई के बारे में सुनिश्चित हुए बिना शादी नहीं कर सकता।’
दो दुकान छोड़कर होटल सपना, जिसे कुछ साल पहले लोनली प्लैनेट में दिखाया गया था, ने दो साल के दौरान विदेशी ग्राहक नहीं देखे हंै। इसके मालिक जसवंत सिंह कहते हैं, ‘पर्यटन कारोबार पूरी तरह से बंद हो गया है। पोलैंड, जापान और रूस से इतने सारे पर्यटक पहाडग़ंज आया करते थे।’ वह बतातेे हैं, ‘यहां तक ​​​​कि देश के विभिन्न हिस्सों से काम के लिए दिल्ली का सफर करने वाले छोटे कारोबारी भी यहां रुका करते थे। अगर उन्हें दो दिन का काम होता था, तो वे शहर देखने के लिए चार दिन रुकते थे।’ वह कहते हैं कि कोविड की वजह से घरेलू यात्रा को भी नुकसान पहुंचा है।
पहाडग़ंज में 1,200 से लेकर 1,500 रुपये तक के होटल हैं, जिनमें से ज्यादातर साल भर पूरी तरह से भरे रहते थे। अब बड़े होटलों, जिनमें से कई होटल मुख्य गलियों में स्थित हैं, ने 1,200 रुपये से लेकर 1,500 रुपये प्रतिदिन का शुल्क घटाकर 800 रुपये प्रतिदिन कर दिया है। गलियों में अंदर स्थित छोटे वाले होटलों में से कई, जो पहले 800 रुपये प्रतिदिन शुल्क लेते थे, ने अब काम बंद कर दिया है।
पहाडग़ंज मार्केट एसोसिएशन के सदस्य और दो होटलों के मालिक रमन सखूजा कहते हैं, ‘कारोबार में 50 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट है। ऐसा नहीं है कि प्रतिबंध हटाए जाने के बाद स्थिति सुधरने लगी हो। रखरखाव की लागत इतनी अधिक है कि उसे वहन नहीं किया जा सकता है। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिए बिजली भी काफी महंगी है और यहां तक ​​कि जिन होटलों ने बिजली के मीटर हटा लिए हैं, उन्हें भी आखिर में जुर्माने के साथ अपना बकाया चुकाना पड़ा था।
सखूजा के होटल, जो दो साल पहले तक पूरे भरे होते थे, अब तकरीबन खाली हैं। 21 कमरों वाले होटल न्यू ऑक्सफर्ड पैलेस और 24 कमरों वाले होटल वर्थ में फिलहाल मुश्किल से पांच से आठ कमरे भरे हुए हैं। अन्य लोगों की ही तरह वह कहते हैं कि सरकार से कोई राहत नहीं मिली है।
शाम 4.30 बजे भी बाजार असामान्य रूप से शांत रहता है। भटकती हुई किसी कार के हॉर्न से ही यह शांति भंग होती है। श्याम राजे अपने रेस्तरां की दूसरी मंजिल से नीचे देखते हैं। मूल रूप से बिहार के रहने वाले राजे देश के लगभग सभी बड़े पर्यटन स्थलों पर काम कर चुके हैं। वर्ष 2016 में दिल्ली आने से पहले वह गोवा में थे। उन्होंने अरेबियन शीशा कैफे की स्थापना की है, जहां उज्बेक और रूसी भोजन परोसा जाता है।
महामारी से पहले के तीन वर्षों के दौरान घर के स्वाद की लालसा वाले अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों के बीच यह रेस्तरां बहुत प्रसिद्ध था। यह रेस्तरां उन लोगों को भी नियमित रूप से भोजन की आपूर्ति किया करता था, जो देश में चिकित्सकीय उपचार के लिए यहां आते थे।
राजे कहते हैं, ‘इस वैश्विक महामारी की शुरुआत में हमने उज्बेक और रूस के उन कुछ नागरिकों को भोजन की आपूर्ति की थी, जो भारत में फंस गए थे। लेकिन उनके जाने के बाद इन दो सालों में हमारे पास तकरीबन कोई काम ही नहीं था।’ राजे कहते हैं कि उनका रेस्तरां इसलिए बच गया, क्योंकि मकान मालिक ने किराया कम कर दिया था। कुछ उम्मीद दिखने लगी थीं, लेकिन अब ओमीक्रोन की वजह से अंतरराष्ट्रीय उड़ानें फिर से निलंबित कर दी गई हैं।
धंधा मंदा है, लेकिन फिर भी वह अपने रेस्तरां में आते है। दोबारा अपने फोन पर क्रिकेट मैच के मुख्य अंश देखते हुए फीकी-सी मुस्कान के साथ वह कहते हैं, ‘मैं घर पर नहीं बैठ सकता। रेस्तरां में आना मुझे किसी उद्देश्य का एहसास कराता है। हमें होम डिलिवरी के लिए कुछ ऑर्डर मिलते हैं, लेकिन वे बहुत ज्यादा नहीं होते। मुझे नहीं लगता कि इस महीने भी मैं किराया दे पाऊंगा।’
हालांकि उन्हें इस बात की उम्मीद है कि चीजें बेहतर होंगी, लेकिन कुछ अन्य लोगों ने अपना कारोबार बंद करने तथा कुछ और करने का फैसला कर लिया है। उन्हीं में से एक हैं सिद्धार्थ दुआ। दुआ ने 20 साल पहले बाजार में ट्रैवल और टिकटिंग एजेंसी शुरू की थी। यह तेजी से बढ़ी और फली-फूली। फिर महामारी आ गई। सब कुछ ठप हो गया।
इसके खत्म होने का और इंतजार करने में असमर्थ दुआ ने तीन महीने पहले कर्ज लिया और एक जनरल स्टोर खोला। उनकी दुकान के बाहर का बोर्ड, जिस पर ट्रैवल्स ऐंड टिकटिंग टूर ऑपरेटर लिखा हुआ है, अब उसके एक कोने में दुआ जनरल स्टोर लिखा हुआ है। वह कहते हैं कि काम तो करना है ना। किराना एक ऐसी चीज है, जिसकी मांग हमेशा रहेगी, यही वजह है कि यह सबसे अच्छा दांव लगा। अमूल ताजा दूध का और ज्यादा ऑर्डर देते हुए वह कहते हैं, ‘मेरा मुख्य काम ट्रैवल ऐंड टूर परिचालन का है और मुझे उम्मीद है कि मैं जल्द ही इस पर लौट पाऊंगा।’

First Published - December 17, 2021 | 11:19 PM IST

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