पिछले  साल सितंबर के मध्य में मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के माली सिलपाटी गांव  के एक युवा किसान सुशील हनोटे इस बात को लेकर संशय में थे कि कृषि कानूनों  से, जिन्हें तभी पारित किया गया था, उन्हें कैसे फायदा होगा या लाइसेंस  प्राप्त मंडियों की तुलना में उन्हें बेहतर दाम कैसे मिलेंगे। कुछ दिन पहले  टेलीफोन पर हुई बातचीत में हनोटे ने कहा कि वैसे वह चाहेंगे कि उनकी फसल  खेत से ही उठ जाए क्योंकि बैतूल मंडी के व्यापारी उन्हें अपने हिस्से की कर  कटौती के बाद ही भुगतान करते थे। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों के दौरान  हनोटे एक स्थानीय किसान-उत्पादक कंपनी (एफपीसी) के साथ जुड़े हुए हैं तथा  इसके जरिये धान और मक्का बेच रहे हैं।
किसान-उत्पादक  कंपनियां और किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) ऐसी सामूहिक और सहकारी समितियां  हैं, जो पिछले एक दशक में सामने आई हैं और किसानों को मंडियों के जरियेे  अपनी उपज बेचने का एक वैकल्पिक तरीका प्रदान करती हैं। वास्तव में जब से  तीनों कृषि कानून, अब निरस्त हो चुके, वजूद में आए थे, तब से कई  टिप्पणीकारों और इस क्षेत्र के पर्यवेक्षकों ने यही बताया है कि अगर किसान  एफपीओ के माध्यम से स्वयं संगठित करते हैं, तो मंडी के बाहर व्यापार को  उदार बनाने से लाभ मिलेगा।
एफपीओ को इन कानूनों से कैसे लाभ होगा, इस संबंध में तीन प्रमुख तर्क थे।
पहला,  वे उन राज्यों और फसलों के लिए, जहां ऐसी अनुमति जरूरी होती है, किसानों  से सीधे फसल खरीदने के लिए लाइसेंस या अनुमति लेने की आवश्यकता को समाप्त  कर देंगे। दूसरा, वे मंडी के करों को दरकिनार करते हुए लेनदेन की लागत को  कम करेंगे। तीसरा, कृषि अनुबंध कानूनों के मामले में एग्रीगेटरों के लिए भी  कुछ लाभ था।
लेकिन सभी लोग  इस विश्लेषण से सहमत नहीं हैं। स्मॉल फार्मर्स एग्रीबिजनेस कंसोर्टियम  (एसएफएसी) के पूर्व प्रबंध निदेशक प्रवेश शर्मा ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को  बताया ‘यह कहना गलत होगा कि एफपीओ इन तीन कृषि अधिनियमों को किसी ऐसी जादुई  छड़ी के रूप में देख रहे थे, जो उनके परिचालन को बढ़ा देगी और उन्हें एक  मजबूत विकास पथ पर पहुंचा देगी।’ कई वर्षों से एफपीओ के साथ जुड़े रहे  शर्मा तीन कारणों का उल्लेख करते हैं।
उन्होंने  बताया ‘अब निरस्त हो चुके कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन एवं  सरलीकरण) अधिनियम को ही ले लीजिए। एफपीओ ने इसे अपनी समस्याओं का कोई बड़ा  समाधान नहीं माना, क्योंकि उनमें से कई पहले से ही सीधे निगमों को बेच रहे  हैं, जो उन्हें मंडियों से बेहतर कीमत देते हैं। कंपनियों को बेचकर वे  परिवहन और भंडारण पर जो बचत करते हैं, वह आय के रूप में एफपीओ को  हस्तांतरित कर दी जाती है।’
दूसरा  अधिनियम, जो स्टॉक रखने की सीमा में राहत देने के लिए आवश्यक वस्तु  अधिनियम में संशोधन करता है, उसका उद्देश्य भंडारण और भंडार क्षेत्र में  बड़े निवेश को प्रोत्साहित करना था। शर्मा ने कहा कि एफपीओ बड़ी मात्रा में  किसी भी उत्पाद को नहीं रखते हैं, इसलिए उनसे बड़े स्तर की अर्थव्यवस्थाओं  से लाभ की उम्मीद नहीं की गई थी।
जहां  तक कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवा के अनुबंध  अधिनियम की बात है, तो इससे एफपीओ पर कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि दूध या  गन्ने के लिए ऐसी व्यवस्था पहले से ही मौजूद है।
शर्मा  ने बताया कि जहां तक मंडियों के बाहर किसानों से सीधी खरीद का सवाल है,  जिसे व्यापार अधिनियम ने सुविधाजनक और आसान बनाने की मांग की थी, मुझे लगता  है कि प्रत्यक्ष खरीद को बढ़ावा नहीं मिलता, क्योंकि एक कानून था। ऐसा तभी  होगा जब भरोसा और खासा मौद्रिक लाभ हो।
उन्होंने  कहा कि एफपीओ के मामले में धन तक आसान पहुंच, बुनियादी ढांचे के निर्माण  में व्यापारियों के साथ समान व्यवहार आदि से निश्चित रूप से उनकी आय में  वृद्धि होगी, न कि कानून से।
देश  भर में एफपीओ की सहायता और सलाह देने वाले संसाधन केंद्र एक्सेस डेवलपमेंट  सर्विसेज में परियोजना निदेशक शुभेंदु दास कुछ अलग मानते हैं। आंध्र  प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में काम करने वाले दास ने कहा कि  कानूनों ने निश्चित रूप से एफपीओ को काम और परिचालन करने के लिए अधिक  लचीलापन दिया होता।
उन्होंने  बताया कि पिछले कुछ वर्षों से अधिकांश राज्यों में एफपीओ से सीधी खरीद और  उन्हें मंडियों में परिचालन की अनुमति देने के प्रति मंडियों और राज्य के  अधिकारियों का विरोध कम हो रहा है।
दास  ने कहा कि अधिनियम पारित किए जाने के बाद हमने सोचा था कि कुछ राज्यों में  एफपीओ द्वारा मंडियों को भुगतान की जाने वाली सुरक्षा जमा राशि कम हो  जाएगी, क्योंकि मंडियों के बाहर प्रत्यक्ष कर मुक्त खरीद की अनुमति होगी।  लेकिन इन अधिनियमों के निरस्त होने से स्थिति पहले जैसी हो जाएगी।
नए  कानूनों से एफपीओ के मार्जिन को भी मजबूती मिलती। वर्तमान में ये संगठन  मंडी के बाहर व्यापार करों के कारण कम मार्जिन पर काम करते हैं, जो पंजाब  सहित कई राज्यों द्वारा लगाया जाता है। सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर  (सीएसए) के कार्यकारी निदेशक जीवी रामनजनेयुलु ने कहा कि अगर नए कानूनों को  अनिवार्य कर दिया जाता, तो एफपीओ का मार्जिन बढ़ जाता। सीएसए ने आंध्र  प्रदेश और तेलंगाना में 10 से भी अधिक वर्षों से एफपीओ को बढ़ावा दिया है।