बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्जी अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत आक्रोश से भरे युवा के रूप में की थी। बाद के दिनों में उन्होंने अपनी विचारधारा को व्यावहारिक राजनीति से जोड़ने का प्रयास किया लेकिन इसमें उन्हें ज्यादा कामयाबी नहीं मिली। ताउम्र मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के सदस्य रहे पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का गुरुवार को निधन हो गया, वह 80 वर्ष के थे।
उनकी पार्टी के ही आलोचकों ने उन्हें छद्म नव उदारवादी कहकर अपमानित किया लेकिन वह आखिर तक साम्यवाद की धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद में यकीन करते रहे। वह अपने अपेक्षाकृत कट्टर साथियों को यह तर्क देते रहे कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए व्यक्ति को बदलना पड़ता है।
1994 में जब उन्होंने पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु की सरकार से संस्कृति मंत्री के पद से इस्तीफा दिया तो उन्होंने कहा था कि वह ‘चोरों की कैबिनेट’ में नहीं बने रह सकते। हालांकि पूर्व पार्टी महासचिव प्रकाश करात के कहने पर वह दो वर्ष बाद गृह और पुलिस महकमे के मंत्री बनकर सरकार में लौट आए थे। सन 2000 में वह बसु के स्थान पर मुख्यमंत्री बने।
1991 में देश में उदारीकरण की शुरुआत के बाद बंगाल में भी हालात बदलने लगे थे। वहां समता, संपत्ति के पुनर्वितरण और राज्य की भूमिका पर पुनर्विचार आरंभ हुआ। वहां 1977 से ही माकपा और सहयोगी दल सत्ता में थे। 1996 के विधान सभा चुनाव में पार्टी को प्रदेश में 294 में से 157 सीट पर जीत मिली जबकि उसके साझेदारों ने 69 सीट जीतीं।
बतौर मुख्यमंत्री भट्टाचार्य ने 2001 और 2006 में अपनी पार्टी को जीत दिलाई। 2006 के विधान सभा चुनावों में माकपा ने भट्टाचार्य के चेहरे पर चुनाव लड़ा और उसे 294 में से 176 सीट पर जीत मिली थी। साझेदारों के साथ उसे 235 सीट मिली थीं। 2004 के लोक सभा चुनाव में माकपा और उसके सहयोगी दलों को राज्य की 42 लोक सभा सीट में से 35 पर जीत मिली जो वाम धड़े की ऐतिहासिक मजबूत स्थिति थी।
इन जीतों से आश्वस्त भट्टाचार्य ने खुदरा क्षेत्र को बड़ी कंपनियों के लिए खोलने का विचार सामने रखा। इनमें वॉलमार्ट जैसी विदेशी कंपनियों के साथ समझौता कर चुकी भारतीय कंपनियां भी शामिल थीं। 2007 में उन्होंने सीआईआई से भूमि अधिग्रहण पर नई नीति बनाने को लेकर सुझाव मांगे। वह प्रदेश का औद्योगीकरण करना चाहते थे लेकिन माकपा के सहयोगी दल इस पर सहमत नहीं थे।
सिंगुर में टाटा की कार फैक्टरी के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण के आरोपों के बीच ही नंदीग्राम में हिंसा की शुरुआत हो गई। हथियारबंद स्थानीय लोगों ने वहां एक केमिकल हब बनाने के प्रस्ताव का विरोध किया और सरकार को विवश किया कि वह उक्त संयंत्र को नयाचार स्थानांतरित करे। सरकार ने उन्हें माओवादी करार दिया। इसके बाद बंगाल के इतिहास का सबसे भयंकर चक्रवात आया जिसने लोगों को झकझोरकर रख दिया।
ममता बनर्जी 1998 में ही तृणमूल कांग्रेस का गठन कर चुकी थीं। वाम के आंतरिक संघर्ष के बीच उन्होंने वाम को धोखेबाज बताते हुए दबाव डालना शुरू कर दिया। उधर दिल्ली की कांग्रेसनीत सरकार भट्टाचार्य को देश का सबसे बेहतर मुख्यमंत्री बता रही थी। ममता बनर्जी ने सिंगुर की भूमि किसानों को वापस करने का दबाव बनाया। टाटा और वाम मोर्चा सरकार ने इससे इनकार कर दिया और आखिरकार अक्टूबर 2008 में टाटा ने बंगाल छोड़ने का निर्णय लिया। यह बुद्धदेव भट्टाचार्य के लिए एक निजी आघात था।