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राजकोषीय गड़बड़ी क्यों?

Last Updated- December 15, 2022 | 8:08 PM IST

सरकार जिस राजकोषीय गड़बड़ी से जूझ रही है उसके कई जाने-पहचाने कारण हैं लेकिन शुरुआत उससे करते हैं जिसकी प्राय: चर्चा नहीं होती है: राज्यों को मिले राजस्व का बड़ा हिस्सा। वर्ष 2013-14 में राज्यों को केंद्र के सकल कर राजस्व का 28 फीसदी हिस्सा मिला था जो 2017-18 तक बढ़कर 35 फीसदी हो गया। उसके बाद से केंद्र ने इस हिस्से में कटौती करने के कई उपाय किए हैं और पिछले साल राज्यों को केवल 31 फीसदी कर हिस्सेदारी मिली।
राज्यों के अपने राजस्व के हिस्से के तौर पर केंद्रीय अंतरण 2013-14 के 45 फीसदी से बढ़कर 2019-20 में 62 फीसदी रहने का बजट अनुमान जताया गया था। केंद्र का शुद्ध कर राजस्व 102 फीसदी बढ़ा है जबकि राज्यों को इसका कर अंतरण 168 फीसदी तक उछल गया है। राज्यों का कुल राजस्व (कर एवं गैर-कर) पिछले छह वर्षों में 132 फीसदी तक बढ़ गया है जबकि केंद्र के मामले में यह वृद्धि 93 फीसदी रही है। कुल सरकारी प्राप्तियों में राज्यों एवं केंद्र का अनुपात 56-44 से बढ़कर 65-35 हो गया है। केंद्र की तरफ से इस समय खर्च होने वाले हरेक रुपये पर राज्य करीब दो रुपये खर्च करते हैं। यह राजकोषीय संसाधनों एवं शक्ति में एक व्यापक बदलाव है। ऐसे में भला अचरज क्यों हो कि केंद्र खुद को राजकोषीय रूप से फंसा महसूस कर रहा है जबकि राज्यों ने 2019-20 में राजस्व अधिशेष  बजट पेश किया था?
केंद्र ने अपने स्तर पर भी कुछ नासमझी भरे बजट पेश कर समस्या बढ़ाई है। उसने 2018-19 में पहले से ही नजर आ रही राजस्व सुस्ती को नजरअंदाज करते हुए 2019-20 में 17.05 लाख करोड़ रुपये के राजस्व का अनुमान पेश किया जिसे चुनाव के बाद पेश आम बजट में घटाकर 16.50 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया। अंतिम नतीजा तो यह था कि राजस्व प्राप्ति शुरुआती लक्ष्य से 20 फीसदी से भी अधिक कम रही। शायद ही इसकी कोई नजीर रही हो। वर्ष 2013-14 में राजकोषीय घाटा कुल राजस्व का 48 फीसदी था और 2016-17 तक यह घटकर 37 फीसदी पर लाया जा चुका था लेकिन 2019-20 में यह बढ़कर 53 फीसदी तक पहुंच गया। अगर आप अनुपात के बजाय वास्तविक आंकड़ों को देखें तो बैलेंस शीट से इतर उधारियों को छोड़ दें तो राजकोषीय घाटा महज एक साल में ही 45 फीसदी तक बढ़ गया।
इन राजकोषीय आंकड़ों का एक पैटर्न है। कर एवं जीडीपी अनुपात जैसे तमाम अनुपात 2013-14 के बाद अर्थव्यवस्था की हालत सुधरने के साथ ही बेहतर होते गए। ऊपर की तरफ जाने का सिलसिला 2016-17 तक जारी रहा। इन तीन वर्षों में औसत जीडीपी वृद्धि करीब 8 फीसदी रही। उसके बाद चौतरफा बुरी खबरें ही रही हैं। वृद्धि में सुस्ती का दौर लगातार मजबूत होता गया है और अब वृद्धि पुराने स्तर के आधे पर आ गई। मसलन, जीडीपी में अप्रत्यक्ष कर का अनुपात 5.6 फीसदी से गिरकर 4.9 फीसदी या उससे भी नीचे आ गया है जो जीडीपी में कुल कर के अनुपात में आई गिरावट के लिए जिम्मेदार है। यह विडंबना ही है कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करते समय इससे कर एवं जीडीपी अनुपात बेहतर होने का दावा किया गया था। लेकिन वास्तविक अनुभव इसके विपरीत रहा है भले ही वृद्धि सुस्त पडऩे का भी असर पड़ा हो।
पिछले तीन वर्षों की इस स्याह पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार के पास कोविड महामारी से जुड़ी आर्थिक चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए कोई राजकोषीय संबल ही नहीं बचा है। सिकुड़ रही अर्थव्यवस्था में केंद्र के लिए शुद्ध कर राजस्व में 20 फीसदी से अधिक वृद्धि के बजट लक्ष्य को हासिल कर पाना असंभव है। अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए सार्वजनिक व्यय में वृद्धि अनिवार्य है। ऐसा होने पर राजकोषीय घाटा इस साल कुल केंद्रीय राजस्व के 65 फीसदी तक पहुंच सकता है जो पिछले साल 53 फीसदी रहा था। इसका मतलब है कि सरकार की तरफ से खर्च होने वाले हरेक पांच में से दो रुपये उधार के होंगे।
यह संकट का साल है और राजकोषीय विवेक के सामान्य नियमों से भटकाव देखने को मिलेगा। फिर भी इस संकट से उबरते समय ध्यान इस पर जरूर होना चाहिए कि यह स्थिति आई ही क्यों? इसका मतलब है कि आर्थिक वृद्धि तेज करने, केंद्र-राज्य राजकोषीय संतुलन पर नए सिरे से विचार, जीएसटी का नया संस्करण लाने, सामाजिक सुरक्षा आवरण के तौर पर कर-जीडीपी अनुपात की एक व्यवहार्य सीमा तय करना और व्यय के मौजूदा स्तरों से बेहतर नतीजे लाने के बारे में सोचने की जरूरत होगी।

First Published - June 5, 2020 | 11:31 PM IST

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