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लोगों को ध्यान में रखकर शहर बसाने की जरूरत: भारत के शहरी भविष्य की नई सोच

शहर अचानक नहीं बन जाते। वे समय के साथ तैयार होते हैं। शहरों के निर्माण में नीतियों, निर्णयों, फौरी उपायों, दुर्घटनाओं और रखरखाव आदि सभी का हाथ होता है

Published by
अमित कपूर   
Last Updated- November 28, 2025 | 9:47 PM IST

शहर अचानक नहीं बन जाते। वे समय के साथ तैयार होते हैं। शहरों के निर्माण में नीतियों, निर्णयों, फौरी उपायों, दुर्घटनाओं और रखरखाव आदि सभी का हाथ होता है। जब अर्थव्यवस्था का विस्तार होता है तो वे फैलते हैं, जहां शासन कमजोर होता है वहां वे कमजोर पड़ते हैं। उनका जीवन इस बात पर निर्भर करता है कि लोग उनका किस प्रकार उपयोग करते हैं बजाय कि इस बात के कि उनके निर्माण के लिए क्या योजना बनाई गई थी।

भारतीय शहर भी इसके अपवाद नहीं हैं। हमारे अधिकांश शहर महत्त्वाकांक्षा और तात्कालिकता के संगम पर विकसित हुए हैं। वे अक्सर उन प्रणालियों से कहीं अधिक तेजी से बढ़े हैं जिन पर वे आधारित हैं। अनुमान है कि वर्ष 2036 तक भारतीय शहरों में करीब 60 करोड़ लोग रह रहे होंगे और वे सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में करीब 70 फीसदी का योगदान देंगे। इसके बावजूद यह स्पष्ट है कि इस विकास का बड़ा हिस्सा बिना किसी सुसंगत डिजाइन या साझा उद्देश्य के हुआ है और होता ही जा रहा है। यही वजह है कि दशकों तक निर्माण, प्रतिक्रिया और समायोजन के बाद अब यह प्रश्न स्पष्ट रूप से सामने आता है कि डिजाइन पर बातचीत पहले कभी इतनी जरूरी नहीं थी।

डिजाइन को अक्सर सौंदर्य, मुखड़े, साफ-सुथरे रेखांकन और प्रतीकात्मक संरचनाओं का प्रतीक माना जाता है। शहरों के संदर्भ में यह केवल दिखावटी नहीं होता बल्कि ढांचागत भी होता है। यह निर्धारित करता है कि कौन स्वागतयोग्य महसूस करता है और कौन अलग-थलग। कौन आगे बढ़ने योग्य होता है और कौन फंसा रहता है। यह निर्धारित करता है कि सार्वजनिक जीवन खुले में फलेगा-फूलेगा या गेटों, दीवारों और निजी मॉल के पीछे दम तोड़ देगा। रिक ग्रिफिथ्स ने डिजाइन को नियंत्रण के एक तंत्र के रूप में प्रस्तुत किया है, जो दिखने में तटस्थ लगने वाले नियोजन निर्णयों के माध्यम से शक्ति और पहुंच को आकार दे सकता है।

उदाहरण के लिए, बिना फुटपाथ वाली चौड़ी सड़क कारों को विशेषाधिकार देती है। आरपार न देखे जा सकने वाली गेटेड कम्युनिटी पड़ोस की पारिस्थितिकी को खंडित करती है। बिना आंतरिक संपर्क के विचार के बनाई गई मेट्रो लाइन उन लोगों के खिलाफ पक्षपाती होती है जिनके पास वाहन नहीं हैं। इस प्रकार निर्मित रूप स्वयं एक निर्देश बन जाता है।

परंतु एक और तरीका है जिसके माध्यम से डिजाइन पर विचार किया जा सकता है। यह जमीनी नहीं लेकिन अनुभव आधारित है। मानव केंद्रित डिजाइन एक उपयोगी प्रतिविचार पेश करता है: अनुमानों के आधार पर डिजाइन करने के बजाय हम जीवंत वास्तविकता के आधार पर डिजाइन तैयार करते हैं। टेक्सस में अल पासो सिटी का उदाहरण यही दिखाता है। जब निवासियों ने कोविड परीक्षण केंद्रों से दूरी बनाई, तो स्थानीय सरकार ने न तो दोषारोपण किया और न ही अधिक संकेतक लगाए। उन्होंने देखा, सुना और पुनः डिजाइन किया। छोटे-छोटे हस्तक्षेपों ने व्यवहार बदल दिया। यह सबक परीक्षण केंद्रों के बारे में नहीं है। यह दृष्टिकोण के बारे में है। यह निर्णय लेने से पहले शासन द्वारा सुनने के बारे में है।

भारत में न केवल यह बदलाव वांछित है बल्कि जरूरी भी है। हमारे शहर भविष्य की ओर इतनी तेज गति से बढ़ रहे हैं कि उन्हें इरादों की सख्त जरूरत है। वर्ष2011 और 2036 के बीच भारत की शहरी आबादी के करीब तीन-चौथाई बढ़ने की उम्मीद है। भारत 2050 के जिस अधोसंरचना पर निर्भर करेगा उसका अधिकांश हिस्सा अभी मौजूद नहीं है। यह एक दुर्लभ क्षण है। पुराने देशों को जहां पुनर्निर्माण के लिए मजबूर होना पड़ा, वहीं भारत अभी अपनी प्रारंभिक रूपरेखा गढ़ने की प्रक्रिया में है।

यदि देश अपनी पुरानी धारणाओं जैसे कार-केंद्रित गतिशीलता, ऊपर से नीचे तक की योजना और विशिष्ट क्षेत्रों को दोहराता है, तो हम आने वाली पीढ़ियों के लिए स्थायी असमानता बना देंगे। भविष्य की दृष्टि से बन रहे शहर केवल तकनीक से परिभाषित नहीं होते। स्मार्ट पोल और डैशबोर्ड मदद कर सकते हैं, लेकिन डिजाइन का मूल सार है सामंजस्य। यानी नीतियों को वास्तविक जीवन से जोड़ना, बुनियादी ढांचे को गतिशीलता के पैटर्न से जोड़ना, और जलवायु जोखिम को लचीली प्रणालियों से जोड़ना।

उदाहरण के लिए, अनुमान बताते हैं कि भारत को 2050 तक अत्यधिक गर्मी, बाढ़ और जलवायु के कारण होने वाले प्रवासन से निपटने के लिए 2.4 लाख करोड़ डॉलर से अधिक की जलवायु आधारित अधोसंरचना की आवश्यकता हो सकती है। इस स्तर पर डिजाइन को लेकर विचार केवल एक सौंदर्यशास्त्रीय अनुशासन के रूप में नहीं, बल्कि एक समेकित अनुशासन के रूप में होती है।

शहरों को डिजाइन करने का अर्थ सही प्रश्न करना भी है। सड़कों के चौड़ीकरण के पहले सवाल होना चाहिए कि जाम क्यों लग रहा है। झीलों के सौंदर्यीकरण के पहले पूछना चाहिए कि उनका अंत क्यों हुआ। सड़क पर सामान बेचने वालों को बेदखल करने के बजाय यह पूछें कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्थाएं शहरों को कैसे बनाए रखती हैं। जिस क्षण शहर अलग तरह से प्रश्न पूछना शुरू करता है, उसी क्षण वह अलग ढंग से डिजाइन करना शुरू कर देता है। सुनना एक पद्धति बन जाता है, मात्र औपचारिकता नहीं।

देश के कुछ शहरों ने ऐसे बदलावों को अपनाना शुरू किया है। उदाहरण के लिए पुणे के साइकलिंग नेटवर्क की पायलट परियोजना, चेन्नई की सड़कों को नए सिरे तैयार करने की योजना, अहमदाबाद की बीआरटी प्रणाली और सूरत की मजबूत योजना इरादे के साथ की गई डिजाइन का उदाहरण है। ये पहल केवल स्थापत्य कौशल से नहीं उभरीं, बल्कि वे प्रणालियों, शासन और इस्तेमाल करने वालों अनुभव से उभरी हैं।

इसके बावजूद चुनौती बरकरार है। बहुत कम प्रशिक्षित योजनाकार, बिखरे हुए क्षेत्राधिकार प्राधिकरण, और योजना संस्थाएं जो अक्सर पुराने ढांचों के साथ काम करती हैं। इसलिए डिजाइन केवल विशेषज्ञों का क्षेत्र नहीं रह सकता। यदि भारत डिजाइन को सोचने के एक तरीके के रूप में अपनाता है तो हमारे शहर मशीनों के बजाय पारिस्थितिकी के साथ विकसित हो सकते हैं।

ऐसे शहर जहां पैदल चलना सुरक्षित हो, सार्वजनिक परिवहन गरिमापूर्ण हो, सार्वजनिक स्थान वास्तव में सार्वजनिक हों, और सेवाएं अफसरशाही के बजाय सहज लगती हों। ऐसे शहर जहां डिजाइन अदृश्य इसलिए न हो कि उसे नजरअंदाज किया गया है, बल्कि इसलिए हो कि वह प्रभावी ढंग से काम कर रहा है।
भारत शहरी विकास के निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। जो हम अब बनाएंगे, वह हमसे आगे तक बना रहेगा।

हमारे सामने अवसर केवल शहरों का विस्तार करने का नहीं है, बल्कि उन्हें सोच-समझकर इस तरह डिजाइन करने का है कि वे ऐसे वातावरण बनाएं जो लोगों को केवल जीवित रहने ही नहीं, बल्कि फलने-फूलने में सक्षम बनाएं। यदि हम सोच को सही दिशा दें, डिजाइन को सही ढंग से करें और सुनने की क्षमता को सही रूप में अपनाएं, तो शायद भविष्य के भारतीय शहर ऐसे होंगे जिन पर हमें गर्व होगा।


(अमित कपूर इंस्टीट्यूट ऑफ कंपटीटिवनेस के चेयरमैन हैं। आलेख में मीनाक्षी अजित का भी सहयोग। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं)

First Published : November 28, 2025 | 9:40 PM IST