अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की विभिन्न देशों की रिपोर्ट, जो बुधवार को जारी की गई, भारत की वृहद आर्थिक स्थिरता को दर्शाती है और नीतिगत चर्चा के लिए कुछ उपयोगी संकेत प्रदान करती है। आईएमएफ का अनुमान है कि चालू वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था 6.6 फीसदी की दर से बढ़ेगी। वर्ष 2026-27 में वृद्धि दर घटकर 6.2 फीसदी रहने का अनुमान है।
आईएमएफ की बुनियादी धारणा में अमेरिका द्वारा लगाए गए 50 फीसदी शुल्क का बहुत लंबे समय तक बने रहना शामिल है। इस पर सरकार ने उचित रूप से आपत्ति की है। भारत, अमेरिका के साथ जल्द ही एक समझौते पर पहुंचने के उद्देश्य से वार्ता कर रहा है। आईएमएफ आगे यह भी कहता है कि कॉरपोरेट और वित्तीय क्षेत्र पर्याप्त पूंजी सुरक्षा के साथ लचीले बने हुए हैं। सरकार राजकोषीय मजबूती के मार्ग पर आगे बढ़ रही है और चालू खाते का घाटा मध्यम और प्रबंधन योग्य बना हुआ है।
रिपोर्ट देश के वृहद आर्थिक प्रबंधकों के लिए कुछ सुझाव भी देती है। उनमें से कुछ यहां चर्चा करने लायक हैं। मुद्रा प्रबंधन के संदर्भ में आईएमएफ का तर्क है कि अधिक लचीलापन बाहरी झटकों से बचने में मदद करेगा और विदेशी मुद्रा के संग्रहण की जरूरत कम करेगा। आईएमएफ ने भारत के विदेशी मुद्रा प्रबंधन को वर्ष 2023 में स्थिर व्यवस्था के रूप में वर्गीकृत किया था। हालांकि आईएमएफ कहता है कि हस्तक्षेप कम हुए हैं लेकिन अब उसने इसे ‘क्रॉल लाइक’ व्यवस्था के रूप में वर्गीकृत किया है।
इस व्यवस्था में विनिमय दर छह माह तक या उससे अधिक समय तक सांख्यिकीय रुझान के सापेक्ष 2 फीसदी की सीमा में बनी रहती है। रिजर्व बैंक का घोषित रुख यह है कि वह किसी स्तर को लक्ष्य करके नहीं चलता है और केवल बाजार में उतार चढ़ाव को थामने के लिए हस्तक्षेप करता है।
यह बात ध्यान देने लायक है कि भारत में महामारी के दौरान बड़े पैमाने पर आवक हुई क्योंकि बड़े केंद्रीय बैंकों ने नीतिगत ब्याज दर को कम करके शून्य के करीब कर दिया और व्यवस्था में ढेर सारी नकदी डाली। वर्ष 2022 में बड़े पैमाने पर पूंजी का बहिर्गमन देखा गया क्योंकि वैश्विक केंद्रीय बैंकों ने उच्च महंगाई से निपटने के लिए समन्वित रूप से ब्याज दरें बढ़ाईं।
यह कहा जा सकता है कि यदि रिजर्व बैंक ने उन दोनों अवसरों पर हस्तक्षेप न किया होता, तो रुपये में भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिलता, जिससे व्यवसायों पर नकारात्मक असर पड़ता। इस प्रकार, विदेशी मुद्रा बाजार में आरबीआई की अधिकांश गतिविधियां भारत को पश्चिमी नीतिगत बाहरी प्रभावों से बचाने के लिए होती हैं। लेकिन यह भी स्वीकार करना होगा कि कुछ मात्रा में अस्थिरता आवश्यक है और रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप विदेशी मुद्रा बाजार को गहराई देने की प्रक्रिया में बाधा नहीं बनना चाहिए।
राजकोषीय प्रबंधन की बात करें तो आईएमएफ ने कहा कि 2026 में सकल घरेलू उत्पाद के आधार की समीक्षा के बाद भारत को ऋण लक्ष्यों की समीक्षा करनी चाहिए और उन्हें अधिक महत्त्वाकांक्षी बनाना चाहिए। सार्वजनिक ऋण को तेजी से कम करने का विचार सही है। इससे नीतिगत गुंजाइश बढ़ेगी और व्यय की गुणवत्ता में सुधार होगा।
यह भी अनुशंसा की गई है कि ऋण एंकर (ऋण-जीडीपी अनुपात का लक्ष्य) का विस्तार करके इसमें राज्य सरकारों के ऋण को शामिल करना चाहिए। इसके लिए मौजूदा ढांचे में कुछ बदलाव करने होंगे ताकि राज्य स्तर पर ऋण के बोझ को कम करने पर भी ध्यान केंद्रित किया जा सके। इसके अतिरिक्त, वार्षिक राजकोषीय समायोजन मार्ग वित्तीय बाजारों को यह जानकारी देगा कि मध्यम अवधि के लक्ष्यों को कैसे प्राप्त किया जाएगा। आईएमएफ ने एक स्वतंत्र राजकोषीय पर्यवेक्षण निकाय के पक्ष में भी तर्क दिया है।
एक स्वतंत्र राजकोषीय निकाय भारत की समग्र नीतिगत संरचना में एक अनुपस्थित कड़ी है, जो वर्षों में काफी बेहतर हुई है। ऐसा निकाय वित्तीय बाजारों के लिए एक बड़ा विश्वास बढ़ाने वाला कदम होगा और सरकार को इसे सक्रिय रूप से विचार करना चाहिए। हाल के कुछ सुधार, जैसे माल एवं सेवा कर का सरलीकरण और श्रम संहिताओं का क्रियान्वयन वृद्धि को समर्थन देंगे। अमेरिका के साथ-साथ सरकार यूरोपीय संघ सहित अन्य व्यापारिक साझेदारों के साथ भी व्यापार समझौतों पर बातचीत कर रही है। इन समझौतों का शीघ्र पूरा होना मध्यम अवधि की वृद्धि संभावनाओं को बेहतर करेगा।