करीब दो दशक हो गए। रामकृष्ण हेगड़े कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे और चारों ओर से दुश्मनों से घिरे हुए थे। अपने हाथ मजबूत करने के लिए उन्होंने मंत्रिमंडल में फेरबदल किया।
इस कदम से उनके साथ के लोग बिफर गए और उनकी मुखालफत करने वालों को लगा कि हमने जंग जीत ली है। एक पत्रकार सम्मेलन में हेगड़े से सवाल किया गया – ‘आपका फेरबदल तो उल्टा पड़ गया। कोई भी खुश नहीं है।’ वह एक मिनट रुके और बोले – ‘यदि कोई खुश नहीं है, तो इसका मतलब सब खुश हैं।’ यानी सबको खुश करने की कोशिश राजनीतिक मूर्खता है।
कुछ यही आलम है बिहार का, जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले हफ्ते फेरबदल करके 10 ऐसे मंत्रियों को नारियल-सुपारी दे दी जो उनकी नजरों में अपने मंत्रालय को ठीक से नहीं चला पा रहे थे। किसी मंत्री से उसका मंत्रालय छीने जाने की परोक्ष रूप से यह एक लाजिमी वजह है। आप एक उद्देश्य से मंत्री बनाए जाते हैं, यदि अपने मंत्री धर्म का पालन नहीं कर पाते हैं, तो मुख्यमंत्री को अधिकार है कि वह आपसे आपका विभाग छीन ले।
लेकिन सच देखा जाए तो सभी ऐसे मंत्रियों को बर्खास्त नहीं किया गया, जो निकम्मे थे। और न ही ऐसे विधायकों को मंत्री बनाया गया, जो ज्वलंत प्रतिभा के प्रतीक थे। उदाहरण के लिए चंद्रमोहन राय जो स्वास्थ्य मंत्री थे। बिहार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के संस्थापकों में से एक , राय ने 40 साल भाजपा की सेवा की। वह कई बार विधायक भी रह चुके हैं। दो टूक बात करने की आदत थी।
कैबिनेट की मीटिंग में यदि कोई बात पसंद नहीं आती थी, तो उठकर बोल देते थे। लेकिन मंत्री थे भाजपा के हिस्से के। इसी वजह से नीतीश कुमार तब तक उन्हें नहीं बदल सकते थे, जब तक उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी का सिग्नल नहीं मिलता। मोदी का कहना है कि कोई भी कदम लेने से पहले दिल्ली संदेशा पहुंचा दिया गया था। इसलिए न मुख्यमंत्री का कोई दोष था, न उनका।
लेकिन राय का पद तो चला गया न! और अब उन्होंने दिल्ली चिट्ठी भी लिख दी है कि उन्हें बताया जाय कि उन्होंने क्या गलती की है। शायद कोई गलती नहीं हुई। स्वास्थ्य मंत्रालय नीतीश कुमार के आने के बाद बिहार में शासन सुधार की प्रक्रिया का आधार था। गांव में चीजें बदली भी थीं। लेकिन जब व्यवस्था चरमरा रही हो, तो ज्यादा धक्का देने का मतलब है उसे गिरता हुआ देखना।
अगर उसकी जगह लेने के लिए कोई ढांचा तैयार नहीं हो, तो अराजकता की स्थिति आ सकती है। इसी परिवर्तन और यथास्थिति की खींचतान में फंसे हुए हैं नीतीश कुमार। सड़कें बन रही हैं, बसें चल रहीं हैं, अस्पतालों में डॉक्टर हैं, सरकारी स्कूलों में पढ़ाई चल रही है और लोगों को लग रहा है कि एक धक्का और, और बस………. मेरे काम हो जाएंगें।
लेकिन ठीक करने के लिए बहुत कुछ है। दो-तिहाई बहुमत होना अभिशाप भी है और वरदान भी। लोग यह नहीं मानते कि शासकों पर कोई अंकुश नहीं हो सकता है। लेकिन शासक वही है, अधिकारी वही है, वर्ण व्यवस्था वही है और विरोधाभास भी वही है। लोगों की शासन से अपेक्षाएं इतनी बढ़ गई हैं कि जितना करो उतना कम है।
अठारह महीने लगे हैं सिर्फ यह समझने में कि क्या सुधारना है – पुराने रेमिंगटन टाइपराइटरों को कबाड़खाने में डालकर कम्प्यूटरीकृत ऑफिस की स्थापना ही चुनौती बन गई। फिर फिरौती राज का अंत, पुलिस को ठीक-ठाक करना, पंचायत में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण, सड़क, पुल, अस्पताल में सिस्टम बैठाना और बाढ़ से जूझना। पृष्ठभूमि में हमेशा लड़ाई, जाति द्वारा मोल-भाव, लेन देन………
इस सबसे छुटकारा पाने के लिए नीतीश कुमार ने फेरबदल किया। खुद 16 से 18 घंटे काम करने वाला मुख्यमंत्री यह उम्मीद रखता है कि सहयोगी भी उतना ही काम करते होंगे। कुछ करते हैं, कुछ नहीं। लेकिन ठाठ सबके हैं, रौब सबका।
अफसरशाही के ठाठ कुछ कम नहीं हैं। जाति के प्रभाव में अफसर -चाहे पुलिस में हो या आईएएस में – सभी अपनी खाल बचाने में लगे हुए हैं। वे दिन चले गए जब विधायक अपने क्षेत्र के डीएम-एसपी क ो निर्देश दे दिया करते थे और अगर काम न होता था, तो 1, अणे मार्ग यानी मुख्यमंत्री निवास से फोन किया जाता था। अब डीएम-एसपी का कुछ दबदबा है। लेकिन यह वर्ग अपना धर्म नहीं निभाए, तो इसे कौन हड़काए?
इधर, कहलगांव में गोली चल गई और विपक्ष को सरकार पर प्रहार करने का मौका मिल गया लेकिन डीएम-एसपी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं मानी। कहलगांव में एनटीपीसी का कारखाना है। वहां के किसानों ने अपना हक मांगा – हमें बिजली दो। एनटीपीसी कैसे दे सकती थी? बातों-बातों में हड़ताल हो गई, झड़प हो गई और गोली चल गई।
जब पूछा गया कि भाई, जब बातों से और समझाने से मामला सुलट सकता था, तो गोली क्यों चलाई गई, तो वरिष्ठ पुलिसकर्मियों का जवाब था : हमसे ज्यादा सवाल-जवाब करोगे, तो हम भी हड़ताल कर देंगे जैसे किसानों ने की है।
इधर, हाल ही में राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चे के कुछ घटकों की बैठक हुई, राशन के अनाज को लेकर। पिछले तीन साल के रेकॉर्ड के आधार पर केंद्र ने नया फर्ॉम्युला बनाया जिसके तहत राज्य सरकारों को उसी अनुपात में अनाज मिलेगा, जितना उन्होंने पिछले तीन साल में उठाया है।
पहले गरीबी रेखा से नीचे के परिवार बाजार से अनाज खरीदते थे। लेकिन अब बाजार के दाम इतने बढ़ गए हैं कि राशन की दुकान के अलावा कोई चारा नहीं है। और चूंकि बिहार अपना कोटा पूरा नहीं कर पाता था, तो अब केंद्र सरकार ने उसे कम कर दिया है – अब जब सबसे ज्यादा जरूरत है राज्य को।
मुख्यमंत्री इस समस्या से भी जूझ रहें हैं। कुल मिलाकर उन्हें भी लगता है कि वे कांटों का ताज पहने हुए हैं। सब कु छ बदल जाता है, लेकिन कुछ नहीं बदलता। नीतीश कुमार से पूछिए – वे कभी-कभी ऐसा ही सोचते हैं। पश्चिम बंगाल में एक बुद्धदेव भट्टाचार्य हैं, लेकिन उनके पीछे उनकी पूरी पार्टी है। नीतीश कुमार कमोबेश अके ले ही हैं।