अब यह स्पष्ट हो चुका है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप, वैश्विक व्यापार व्यवस्था को उलट-पुलट देने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। हालांकि नई व्यवस्था का स्वरूप क्या होगा यह भी स्पष्ट नहीं है। ट्रंप और उनके करीबी सहयोगियों के दिमाग में जो भी बातें हों लेकिन अंतिम परिणाम संभवतः उससे काफी अलग होगा। अंतरिम स्तर पर अराजकता जैसी स्थिति के कुछ परिणाम दिखेंगे और ये आर्थिक परिदृश्य को बदतर करेंगे।
ट्रंप का जो कुछ भी करने का इरादा है या वह जो भी कर रहे हैं, उसमें कई परतें और विरोधाभास हैं जिसे एक ही लेख में समेटना मुश्किल है। इस लेख में हम यह देखने की कोशिश करते हैं कि भारत कहां खड़ा है और इसके पास संभावित विकल्प क्या हैं। राहत की बात यह है कि इस तथाकथित बराबरी वाले शुल्क को 90 दिनों के लिए फिलहाल टाल दिया गया है, हालांकि 10 फीसदी का बुनियादी शुल्क अब भी बरकरार है। लेकिन इस 90 दिनों के शुल्क स्थगन का हिस्सा चीन नहीं है और उस पर लगाए गए निषेधात्मक शुल्क और उसकी जवाबी कार्रवाई के अपने परिणाम होंगे जैसा कि दुर्लभ खनिज निर्यात पर प्रतिबंधों से जाहिर होता है। कहा जा रहा है कि भारत बेहतर स्थिति में है क्योंकि इसने बराबरी के शुल्क लगाए जाने से पहले ही अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर चर्चा शुरू कर दी थी। उम्मीद है कि भारत और अमेरिका समय पर पारस्परिक रूप से लाभकारी समझौते को अंजाम देने के स्तर पर पहुंच जाएंगे।
हालांकि इन बातों के बावजूद, कम से कम दो वजहों से सतर्क रहना महत्त्वपूर्ण है। पहला, वैसे तो भारत को अपने हित में शुल्क कम करने की आवश्यकता है लेकिन यही पर्याप्त नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए वियतनाम और अन्य देशों द्वारा अमेरिकी आयात पर शुल्क घटाकर शून्य करने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। ट्रंप के लिहाज से किसी भी देश के साथ व्यापार घाटा अन्याय को दर्शाता है और इसे घटाकर शून्य किया जाना चाहिए जब तक कि इसे अमेरिका के पक्ष में अधिशेष में नहीं बदला जाता है। इस तरह किसी समझौते पर बातचीत करनी भी मुश्किल होगी। भारत से ऐसी रियायतें मांगी जा सकती हैं जिन्हें वह वैध कारणों से देने के लिए तैयार नहीं हो सकता है।
दूसरा, अमेरिकी प्रशासन की स्थिति में आए अचानक बदलाव और आर्थिक तर्क की कमी को देखते हुए यह अनिश्चितता बनी रहेगी कि यह समझौता कितने समय तक चलेगा। अन्य देशों और क्षेत्रों को भी इसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। अमेरिका के साथ समझौते के बाद अधिशेष कर लेने वाले देश फिर से प्रभावित हो सकते हैं। ऐसे में इस स्तर पर यह तय करना लगभग असंभव है कि जुलाई या उसके बाद क्या होगा।
अमेरिका ने खुद को दुनिया से अलग करने का फैसला किया है जिसके बाद अमेरिका के बिना एक नई वैश्विक व्यवस्था की चर्चा हो रही है। भारत को सभी संभावनाओं को लेकर सतर्क रहना चाहिए जिसमें कॉम्प्रिहेंसिव ऐंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप में शामिल होना भी जुड़ा है और इसे ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौतों को भी पूरा करना होगा। लेकिन एक वैकल्पिक वैश्विक व्यापार व्यवस्था का हिस्सा बनना आसान नहीं होगा। इसके अलावा भारत को चीन की चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है।
वर्ष 2024-25 में चीन के साथ व्यापार घाटा 99 अरब डॉलर से अधिक था। कई विश्लेषकों ने भी तर्क दिया है कि अमेरिका में निर्यात के अवसर काफी कम होने पर चीन अपने उत्पादों को भारत जैसे दूसरे देशों को भेजना चाहेगा। ऐसे में भारत में नीति-निर्माताओं को सतर्क रहने की आवश्यकता होगी। अमेरिका सहित बाकी दुनिया के लिए खुलने और चीन से आयात पर अंकुश लगाए रखने के लिए एक सख्त संतुलन बनाने की जरूरत है।
इसके अलावा ट्रंप की तिकड़म का प्रभाव केवल व्यापार तक ही सीमित नहीं रहेगा। इस बात को अब अच्छी तरह स्वीकार कर लिया गया है कि अमेरिकी बॉन्ड बाजार में बिकवाली के दबाव ने उन्हें अपनी योजनाओं पर धीमी गति से चलने के लिए प्रेरित किया। लेकिन इसने वित्तीय बाजारों द्वारा सामना की जा रही अनिश्चितता की सीमा को भी उजागर किया। अमेरिकी बॉन्ड बाजार को सबसे सुरक्षित माना जाता है जो दुनिया भर में वित्तीय संपत्तियों के मूल्य को प्रभावित करता है और उस पर लगातार दबाव से वैश्विक बाजारों में अस्थिरता और बढ़ सकती है। अमेरिका-भारत के यील्ड अंतर में कमी के कारण बाजार से पूंजी निकल सकती है और फिर रुपये पर दबाव पड़ सकता है।
भारत को लेकर ट्रंप का विचार चाहे जो भी हो इसके बावजूद तथ्य यह है कि अमेरिका की तरह भारत में भी चालू खाता घाटा है जिसका अर्थ यह है कि यह निर्यात से अधिक आयात करता है और विदेशी बचत पर निर्भर है। भले ही चालू वर्ष में चालू खाता घाटा, सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1 फीसदी रहने की उम्मीद है जिसे सामान्य माना जा सकता है लेकिन इस अनिश्चित माहौल में विदेशी निवेशकों के पूंजी लगाने से बचने के कारण फंडिंग एक समस्या बन सकती है।
अमेरिका में अधिक शुल्क से मुद्रास्फीति भी बढ़ सकती है जिससे न केवल संभावित ब्याज दर की कटौती में देरी हो सकती है बल्कि फेडरल रिजर्व को दरें बढ़ाने के लिए भी मजबूर होना पड़ सकता है। चूंकि बाजार इस तरह के नतीजे के लिए तैयार नहीं दिखते हैं इसलिए अनिश्चितता काफी बढ़ सकती है। मौजूदा स्थिति में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को रुपये का अवमूल्यन और करने देना होगा भले ही इसकी रफ्तार उसे पसंद न हो। कमजोर रुपया स्वतः स्थायित्व लाने वाले कारक के रूप में कारगर होगा और यह अधिक शुल्क के कुछ असर को कम करने में मदद करेगा। आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने इस चक्र में नीतिगत रीपो दर में 50 आधार अंकों की कमी की है और अपने रुख को तटस्थ से उदार कर दिया है। इससे कुछ विश्लेषकों का मानना है कि एमपीसी वृद्धि के दृष्टिकोण में बढ़ते जोखिम के साथ और भी बड़ी दर कटौती करेगी। मुद्रास्फीति का कम आंकड़ा इस विचार को और मजबूत कर सकता है। हालांकि वित्तीय बाजार को अपनी उम्मीदों में समायोजन करना पड़ सकता है। एमपीसी को मुद्रास्फीति और रुपये के संभावित अवमूल्यन के प्रभाव पर विचार करना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में वृद्धि को समर्थन देने के लिए, अधिक नीतिगत उदारता के अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं।
इसी तरह सरकार को राजकोषीय घाटा कम करने की दिशा में बने रहने के लिए भी कुछ अच्छा करना चाहिए। सार्वजनिक ऋण और घाटे का स्तर किसी भी सार्थक तरीके से वृद्धि में सहयोग नहीं करेगा। अमेरिका की नीतियों में बदलाव का वैश्विक व्यापार और वृद्धि पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा और इसका भारत के निर्यात और कुल वृद्धि पर भी असर दिखेगा। हालांकि फिलहाल संभावित नुकसान की सीमा का अंदाजा लगाना मुश्किल है और यह आने वाली तिमाहियों में स्पष्ट होगा लेकिन तत्काल प्रभाव पूंजी प्रवाह और वित्तीय बाजारों पर पड़ेगा। ऐसे में किसी भी नीतिगत स्तर पर साहसी कदम उठाने से बचना अहम होगा। फिलहाल नुकसान को कम करने पर ध्यान होना चाहिए। यह जानबूझकर तैयार किया गया मानव-निर्मित संकट है। उम्मीद है कि शीघ्र ही सद्बुद्धि आएगी और दुनिया एक आसन्न आपदा से बच जाएगी।