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जीएसटी सुधारों के लिए क्या हो नीति, दिशा और गति

जीएसटी परिषद की निर्णय प्रक्रिया में केंद्र सरकार, सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों के शामिल होने के कारण बड़े सुधारों को अंजाम देना आसान नहीं है।

Last Updated- October 14, 2024 | 9:32 PM IST
GST

यह दलील सही नहीं है कि जीएसटी कर व्यवस्था पूरी तरह व्यवस्थित हो चुकी है और इसमें किसी प्रकार के सुधार की आवश्यकता नहीं है। विस्तार से बता रहे हैं एम गोविंद राव

मैं ने अपने पिछले आलेख में कहा था कि वस्तु एवं सेवा कर (GST) व्यवस्था में नए सुधारों की आवश्यकता है ताकि इन्हें सरल, अधिक पारदर्शी बनाया जा सके और इनका आगे तक प्रभाव कम रहे। उपभोग कर की प्रणाली को अधिक समग्र, कम भेदकारी और निर्यात के लिहाज से प्रतिस्पर्द्धी बनाने के लिए सुधार जरूरी हैं।

2047 तक विकसित राष्ट्र बनने के लिए जरूरी है कि कर व्यवस्था को अधिक राजस्व दिलाने वाला बनाया जाए और उपभोग कर का असर आगे नहीं जाने दिया जाए। कर सुधार उस समय अधिक कामयाब होते हैं जब अर्थव्यवस्था तेजी पर होती है क्योंकि राजस्व में कमी का जोखिम घट जाता है। तीन मेरे तीन प्रमुख सुझाव हैं;

(क) रियायती सूची में जल्द खराब होने वाली और जरूरी वस्तुएं ही हों, (ख) राजस्व में कमी लाए बगैर कर की केवल दो दरें रखी जाएं और तीसरी दर ‘खराब’ मानी जाने वाली वस्तुओं के लिए ही हो तथा (ग) जीएसटी को उन वस्तुओं पर भी लागू हो, जो अभी इसके दायरे से बाहर हैं, मसलन – पेट्रोलियम उत्पाद, बिजली और अचल संपत्ति। इससे जीएसटी को अधिक व्यापक बनाने में मदद मिलेगी।

यह सही है कि देश में कर नीतियों में बड़े सुधार करना कठिन है। ऐसे में अधिक सरल और कारगर उपभोग कर व्यवस्था की दिशा में बढ़ना सही होगा। सार्वजनिक चयन की अवधारणा में एक आम सिद्धांत यह है कि गठबंधन साझेदारों की संख्या जितनी अधिक होगी, निर्णय लेना उतना ही कठिन होगा क्योंकि सबकी अलग-अलग पसंद होंगी।

जीएसटी परिषद की निर्णय प्रक्रिया में केंद्र सरकार, सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों के शामिल होने के कारण बड़े सुधारों को अंजाम देना आसान नहीं है। लेकिन यदि दिशा में जरूरी बदलाव सभी समझ रहे हों तो धीरे-धीरे वांछित नतीजा हासिल किया जा सकता है। दुर्भाग्यवश अब तक सहजता, पारदर्शिता और कर संग्रह, अनुपालन तथा विसंगतियों से होने वाला खर्च कम करने की दिशा में कुछ ठोस नहीं किया गया है। उसके बजाय मामूली रद्दोबदल ही हुआ है।

सुधारों की संभावित दिशा से बचने के लिए अक्सर समानता और राजनीतिक सुविधा को वजह बताया जाता है। दरों में अंतर को यह कहकर उचित बताया जाता है कि इससे कर व्यवस्था प्रगतिशील बनती है। कोई नहीं कहता कि केवल गरीब ही कर चुकाएं मगर आय वितरण में असमानता दूर करने के लिए कर को प्रमुख नीतिगत जरिया बनाने की सोच भ्रामक हो सकती है।

दुनिया भर के अनुभव दिखाते हैं कि असमानता दूर करने में कर नीति बहुत कम योगदान कर सकती है। उदाहरण के लिए अमेरिका में ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन के जोसेफ पेकमैन ने 1966 से 1985 के बीच कुछ अध्ययन किए, जिनमें करों में बदलाव के बाद की स्थिति का अनुमान लगाया गया।

उन्होंने पाया कि अमेरिकी कर व्यवस्था ज्यादा प्रगतिशील नहीं है। जिन वस्तुओं पर यह सोचकर कम कर लगाया गया था या कर से छूट दी गई थी कि उन्हें गरीब इस्तेमाल करते हैं, उन्हें वे लोग भी उपयोग में लाते हैं, जो गरीब नहीं हैं। दूसरी ओर अगर समता के तहत ध्यान गरीबी कम करने पर ही है तो शिक्षा, स्वास्थ, कौशल विकास पर सार्वजनिक व्यय और गरीबी दूर करने वाली प्रत्यक्ष योजनाओं की मदद से गरीबों को सशक्त बनाना कारगर नीति होगी।

इनके लिए धन करों के जरिये जुटाना चाहिए और आवश्यक खाद्य वस्तुओं को छूट देकर तथा सीमा को ऊंचा रखकर उपभोग कर को प्रगतिशील बनाया जा सकता है। जिन देशों में मूल्यवर्द्धित कर (VAT) की अलग-अलग दरें होती हैं, उनमें भी आम तौर पर केवल दो दरें इस्तेमाल की जाती हैं। मगर भारत में कई दरें हैं और उन्हें उचित भी नहीं बनाया गया है।

श्रम के अधिक इस्तेमाल वाले निर्माण उद्योग में प्रयुक्त भवन निर्माण सामग्री पर 28 फीसदी कर इसका उदाहरण है। कर दरों को कम करने से वर्गीकरण और विवाद की समस्या हल हो जाएगी।

उदाहरण के लिए कोई रेस्तरां अपनी खानपान सेवा को रेस्तरां कारोबार के तौर पर वर्गीकृत करते हुए कर की दर को 18 फीसदी के बजाय 5 फीसदी श्रेणी में ला सकता है। कोयंबत्तूर में श्री अन्नपूर्णा होटल के मालिक ने क्रीम वाले बन पर लगने वाले कर के बारे में जो कहा, वह ऐसी ही कर विसंगति दर्शाता है।

विजय केलकर समिति की सिफारिश के मुताबिक कर की केवल एक दर रखना राजनीतिक रूप से मुमकिन नहीं होगा लेकिन जीएसटी परिषद को राजस्व या समानता की भेंट चढ़ाए बगैर कर की केवल दो दरें रखते हुए जटिलता कम करने पर विचार क्यों नहीं करना चाहिए।

सुझाए गए सुधार के बारे में दूसरी चिंता राजनीतिक स्वीकार्यता की है। यह दलील गलत है कि कर व्यवस्था जमी-जमाई है, इसलिए सुधार नहीं करने चाहिए। इसे यह कहकर सही ठहराना भी उतना ही गलत है कि दूसरे देशों में भी कर व्यवस्था में दिक्कत है, इसलिए हम यथास्थिति बनाए रख सकते हैं।

शांतिप्रिय लोगों के पास अक्सर खराब कर व्यवस्था को भी चुपचाप अपना लेने के अलावा कोई चारा नहीं होता। जीएसटी आने से पहले केंद्र तथा राज्यों द्वारा अप्रत्यक्ष कर लगाए जाने की प्रणाली भी जमी-जमाई थी मगर खराब थी। फिर भी बेहतर प्रणाली अपनाने के लिए समवेत प्रयास किए गए।

संयोगवश अमेरिका आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन का इकलौता ऐसा देश है, जहां वैट नहीं है। यह अच्छी तरह स्थापित बाजार अर्थव्यवस्था है और राज्यों द्वारा लगाए जा रहे रिटेल सेल्स टैक्स बुनियादी तौर पर वैट जैसा ही मगर वह भारत की तरह कई चरणों में नहीं लगता। हमें जीएसटी को अच्छा राजस्व लाने वाली प्रणाली बनाना है तो हमें बेहतर जीएसटी चाहिए।

उसके बाद ही राजकोषीय चिंताएं दूर होंगी तथा अर्थव्यवस्था अधिक प्रभावी ढंग से विकसित राष्ट्र का लक्ष्य पाने के लिए बढ़ेगी। कर सुधारों को राजनीतिक स्वीकार्यता तब मिलती है जब नेता आश्वस्त होते हैं कि सुधार से आर्थिक माहौल सुधरेगा और राजस्व हानि नहीं होगी। जब 1 जुलाई, 2017 को जीएसटी लागू किया गया तब राज्य कर में एकरूपता लाने के लिए राजस्व के मामले में अपनी स्वायत्तता बलिदान करने को तैयार हो गए थे। मगर वे तैयार इसी आश्वासन पर हुए कि राजस्व में होने वाले नुकसान की पूरी भरपाई की जाएगी।

जीएसटी की हर दर पर मिलने वाला राजस्व देखें तो 12 फीसदी और 18 फीसदी दरों के मिलाकर 16 फीसदी कर की दर बनाने पर 75 फीसदी राजस्व तो सुरक्षित हो जाए। भवन निर्माण सामग्री पर कर 28 फीसदी से कम कर 16 फीसदी किया जाए तो श्रम के बहुत अधिक इस्तेमाल वाले निर्माण क्षेत्र का विस्तार होगा और इस सामग्री का बाजार भी स्पष्ट तथा औपचारिक बनेगा।

पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी में शामिल करने से परिवहन क्षेत्र में कराधान अधिक व्यापक होगा और कर व्यवस्था भी प्रतिस्पर्द्धी बन जाएगी। चूंकि सरकार जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने पर जोर दे रही है, इसलिए वह जीएसटी के ऊपर अलग से हरित कर लागू कर राजस्व को सुरक्षित कर सकती है। निश्चित तौर पर कर सुधार एक प्रक्रिया है और वांछित दिशा में आगे बढ़ने के लिए इस पर ध्यान देना जरूरी है।

(लेखक चौदहवें वित्त आयोग के सदस्य तथा राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान के निदेशक रह चुके हैं)

First Published - October 14, 2024 | 9:25 PM IST

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