सितंबर 2020 के अंतिम सप्ताह में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए एक अहम घोषणा की। उन्होंने कहा कि चीन 2060 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल कर लेगा। यह बहुत बड़ी घोषणा थी जो कोविड-19 महामारी के कारण मची अफरातफरी में गुम सी गई।
चीन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए बड़े जवाबदेह देशों में एक है। ऐसे में उसकी यह घोषणा वैश्विक तापवृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने की दिशा में अहम है। इसका दुनिया भर में ऊर्जा बदलाव पर भी असर होगा। हालांकि यूरोपीय संघ 2050 तक कार्बन उत्सर्जन शून्य करने की बात कह चुका है लेकिन चीन की घोषणा अप्रत्याशित थी और यह अन्य अमीर देशों पर दबाव डालेगी कि वे इस दिशा में लक्ष्य तय करें। यदि जो बाइडन अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं तो शायद वह भी शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य तय करेगा। ज्यादा लोगों को आशा नहीं थी कि चीन इस सदी के अंत से पहले ऐसा लक्ष्य तय करेगा। यह घोषणा एक सुखद आश्चर्य की तरह आई। ये लक्ष्य अहम हैं क्योंकि मौजूदा उत्सर्जन को देखते हुए और जीवाश्म ईंधन के लिए उपलब्ध कार्बन बजट को देखते हुए दुनिया को 2050 तक कार्बन उत्सर्जन शून्य करना होगा। तभी वैश्विक तापवृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक थामा जा सकता है। चीन को तय समय में लक्ष्य हासिल करने के लिए काफी जटिल हालात का सामना करना होगा।
चीन दुनिया में ऊर्जा का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। उसकी प्राथमिक ऊर्जा खपत अमेरिका की तुलना में 40 फीसदी ज्यादा और यूरोपीय संघ की तुलना में दोगुना है। ग्रीनहाउस उत्सर्जन में चीन वैश्विक उत्सर्जन के 30 फीसदी के लिए उत्तरदायी है। अमेरिका और यूरोपीय संघ मिलकर जितना उत्सर्जन करते हैं, चीन का उत्सर्जन उससे अधिक है।
चीन के कुल ईंधन का 85 फीसदी जीवाश्म आधारित है जिसे 2060 तक घटाकर 20 फीसदी पर लाना होगा। उस समय नवीकरणीय ऊर्जा को 80 प्रतिशत करना होगा। चीन के कुल बिजली उत्पादन में 66 फीसदी योगदान ताप बिजली घरों का है। इसे 2060 तक शून्य तक लाना होगा और इनकी जगह सौर, पवन और परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल करना होगा।
यह बदलाव कितना कठिन होगा इसका अंदाजा लगाने के लिए चीन के बीते तीन दशक के अनुभव को देखना चाहिए। सन 1990 और 2019 के बीच उसके ईंधन मिश्रण में जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी 96 फीसदी से घटकर 85 फीसदी हुई। अगले 40 वर्ष में इस अनुपात को घटाकर 20 फीसदी करना होगा। बिजली उत्पादन में कोयले की हिस्सेदारी 71 फीसदी से घटकर 66 फीसदी हुई। अगले 40 वर्ष में इसे शून्य तक ले जाना होगा तभी चीन शून्य उत्सर्जन लक्ष्य हासिल कर पाएगा। कोयले के इस्तेमाल में इतनी मामूली कमी तब आई है जब वह सौर और वायु ऊर्जा क्षमता के मामले में दुनिया में अव्वल है।
शोधकर्ताओं के अनुसार इस बदलाव के लिए चीन को आगामी चार दशक में 6 लाख करोड़ डॉलर से 6.5 लाख करोड़ डॉलर का निवेश करना होगा। यह स्वच्छ तकनीक और नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश का बड़ा अवसर होगा।
इस बदलाव का असर तेल खपत पर भी होगा। बीते दो दशक में वैश्विक तेल मांग का 30 से 35 फीसदी चीन से आता है। खपत पूर्वानुमान बताते हैं कि चीन की तेल की मांग 2025 में चरम पर होगी और फिर उसमें गिरावट आनी शुरू होगी। सन 2025 से 2030 के बीच वैश्विक तेल मांग भी चरम पर होगी।
चीन में कोयला खपत 2 अरब टन के साथ पहले ही चरम पर है। अगले 40 वर्ष में यह गिरकर शून्य हो जाएगी। गैस इकलौता ऐसा जीवाश्म ईंधन है जो आगे चलता रहेगा और नवीकरणीय ऊर्जा के तैयार होने तक उसका इस्तेमाल जारी रहेगा। चीन में भी अगले 40 वर्ष में प्राकृतिक गैस की खपत बढ़ेगी।
विभिन्न नवीकरणीय तकनीकों में कम से कम चीन के लिए सौर ऊर्जा स्पष्ट विकल्प है। अनुमान है कि मौजूदा एक फीसदी से बढ़कर 2060 तक चीन के ऊर्जा मिश्रण में इसकी हिस्सेदारी 25 फीसदी हो जाएगी। बीते 20 वर्ष में सौर ऊर्जा की लागत में सर्वाधिक कमी आई है। आगे भी इसकी पूरी संभावना मौजूद है। पवन ऊर्जा में भी इजाफा होगा और इसकी हिस्सेदारी 3 फीसदी से बढ़कर 20 फीसदी पहुंच सकती है।
हाइड्रोजन आधारित ऊर्जा तकनीक में सर्वाधिक उछाल का अनुमान है और चीन के ऊर्जा मिश्रण में मौजूदा शून्य से बढ़कर 2060 तक यह 13 फीसदी की हिस्सेदार हो जाएगी। भविष्य में नवीकरणीय ऊर्जा की मदद से पानी के विद्युत अपघटन से मिलने वाली हाइड्रोजन ईंधन के रूप में काम आएगी। लिथियम आयन बैटरी की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक ऊर्जा घनत्व होने के कारण हाइड्रोजन बड़े वाणिज्यिक वाहनों को चलाने के लिए उपयुक्त होगी। इसकी चार्जिंग में समय कम लगेगा और यह ज्यादा चलेगी।
यह भी लगभग तय है कि कार्बन उत्सर्जन हकीकत में कभी शून्य नहीं होगा। जेट ईंधन और पेट्रोकेमिकल में तेल का इस्तेमाल होने के कारण कुछ न कुछ उत्सर्जन होता रहेगा। बिजली और औद्योगिक क्षेत्र में प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल होता रहेगा। शून्य उत्सर्जन से अनुमान यही है कि कार्बन उत्सर्जन में अधिकतम कमी लाई जाए। चीन के 6 लाख करोड़ डॉलर के निवेश के बावजूद सन 2060 तक उत्र्सजन 9,500 टन के मौजूदा स्तर से घटकर 1,500 टन तक ही पहुंचेगा। इस 1,500 टन की भरपाई कार्बन कैप्चर तथा अन्य तकनीक से करनी होगी।
भारत पर भी यह दबाव बनेगा कि वह शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य और तारीख तय करे। भारत दुनिया के बड़े ग्रीनहाउस उत्सर्जन करने वाले देशों में से एक है। ऊर्जा बदलाव कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए विपुल संसाधनों और तकनीक की आवश्यकता होगी। यह भी तय करना होगा कि हम कहीं लिथियम आयन बैटरी की तरह पूरी तरह आयात पर निर्भर न हो जाएं।
आज सर्वाधिक मुनाफा कमाने वाले सरकारी उपक्रम तेल खनन/उत्पादन और विपणन/रिफाइनरी क्षेत्र ही हैं। जाहिर है उनके पास भी अब गिनती का समय है। उन्हें अब नए सिरे से अपने कारोबारी मॉडल पर काम करना होगा। इतने बड़े पैमाने पर काम करने वाली कंपनी के लिए यह आसान नहीं होता।
केंद्र सरकार ने नवीकरणीय ऊर्जा, खासकर सौर ऊर्जा के क्षेत्र में अच्छी शुरुआत की है। हम यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठा रहे हैं कि तकनीक, आपूर्ति शृंखला और उत्पादन क्षमता हमारी पहुंच में हों। हमें गति से तालमेल बनाए रखना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि राज्यों में नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर निवेश का माहौल खराब न हो। हमें हाइड्रोजन कार्यक्रम भी शुरू करना चाहिए क्योंकि तमाम गड़बडिय़ों के बाद इस तकनीक का भी वक्त आ गया है।
(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)
