केंद्र सरकार के पूंजीगत व्यय में कमी न केवल स्पष्ट है बल्कि इसने पहले ही 11.11 लाख करोड़ रुपये खर्च करने के लक्ष्य की प्राप्ति को लेकर संदेह पैदा कर दिया है। यह लक्ष्य 2024-25 के बजट में उल्लिखित है। केंद्रीय वित्त मंत्रालय के अधिकारियों का संकेत है कि वर्ष की पहली छमाही में पूंजीगत व्यय में जो कमी आई है वह दूसरी छमाही में दूर हो जानी चाहिए और सालाना व्यय 2023-24 की तुलना में कुछ अधिक ही रहेगा।
यह याद रखना चाहिए कि गत वर्ष केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय 9.48 लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान रहा है जो 2022-23 की तुलना में 28 फीसदी ज्यादा था। कोविड के बाद इसमें तेज गति से इजाफा हो रहा है। बीते चार सालों में इसमें 29 फीसदी से अधिक की समेकित वार्षिक वृद्धि देखने को मिली है। यह एक असाधारण उपलब्धि है।
यह वृद्धि तब सुनिश्चित हुई जब मंत्रालयों और राज्यों को व्यय वितरण पर नजर रखी गई ताकि किसी तरह की बरबादी या दुरुपयोग न हो। व्यय की गुणवत्ता सुधारने के लिए कदम उठाए गए और यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया कि केंद्र सरकार के मंत्रालय अपना व्यय वर्ष की अंतिम तिमाही में नहीं खर्च करें या राज्य अपने व्यय को केंद्र से प्राप्त राशि के स्थान पर व्यय न करें।
अब लगता है इन नियमों को शिथिल किया जा रहा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पूंजीगत व्यय में वृद्धि को चालू वर्ष में भी बरकरार रखा जाए।
खबरों के मुताबिक वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा है कि नकदी प्रबंधन दिशानिर्देशों के तहत लगे नियंत्रणों को 2025 की जनवरी-मार्च तिमाही में शिथिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में केंद्रीय मंत्रालय और विभाग इस वर्ष की अंतिम तिमाही में अपने सालाना पूंजीगत व्यय अनुमान का 33 फीसदी खर्च कर सकते हैं। यह कदम केंद्र को पूंजीगत व्यय बढ़ाने में सहायक हो सकता है लेकिन मौजूदा संदर्भ में नकदी प्रबंधन दिशानिर्देशों को शिथिल करने का कदम समझदारी भरा नहीं है। पूंजीगत व्यय को जब हड़बड़ी में साल खत्म होने के पहले लक्ष्य पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो इस कवायद का उद्देश्य ही विफल हो जाता है।
अर्थव्यवस्था इससे लाभान्वित नहीं हो पाती है। नकदी-प्रबंधन जैसे तात्कालिक हल अपनाने के बजाय सरकार के लिए बेहतर होगा कि वह यह देखे कि पूंजी खर्च होने की गति धीमी क्यों पड़ गई है। समस्या की प्रकृति को चिह्नित करना जरूरी है। केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय 2024-25 की पहली तिमाही में 35 फीसदी गिरा। इसी अवधि में आम चुनाव हुए थे और पूर्ण बजट जुलाई के तीसरे सप्ताह में पेश किया जा सका। दूसरी तिमाही में पूंजीगत व्यय की गति ने जोर पकड़ा लेकिन इसमें केवल 10 फीसदी का इजाफा हुआ। स्पष्ट है कि पहली तिमाही के झटके से उबरने के लिए यह पर्याप्त नहीं था।
ऐसे में 2024-25 की पहली छमाही में पूंजीगत व्यय में कुल मिलाकर 15 फीसदी की कमी आई। अक्टूबर 2024 के बाद से केंद्र सरकार के लिए पूंजीगत व्यय को इतना बढ़ाना मुश्किल होगा ताकि वह 17 फीसदी की वार्षिक वृद्धि हासिल कर सके। सवाल यह है कि क्या नकदी प्रबंधन को शिथिल करने के दिशानिर्देश वास्तव में कोई असर डालेंगे।
सरकार के पूंजीगत व्यय में कमी के साथ समस्या यह है कि राज्यों को भी ऐसे व्यय के रखरखाव में समस्या हो रही है। लगभग सभी राज्यों के पूंजीगत व्यय में बीते पांच सालों में तेज इजाफा नजर आया है। हालांकि उनकी गति केंद्र सरकार से धीमी रही है। परंतु 2024-25 की पहली छमाही में प्रमुख राज्यों के पूंजीगत व्यय में करीब 12 फीसदी की गिरावट आई। दूसरे शब्दों में कहें तो पूरी सरकारी व्यवस्था ही व्यय बढ़ाने में गतिरोध का सामना कर रही है।
उपचार तलाशने के पहले इसका अध्ययन किया जाना आवश्यक है। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र और राज्य सरकारें जिन क्षेत्रों में अतिरिक्त पूंजी व्यय करना चाहती हैं उनकी ग्रहण करने की क्षमता प्रभावित हुई है। आगे के कदम उठाने से पहले इसे हल करना होगा। क्या यह आर्थिक वृद्धि की गति में व्यापक धीमेपन के संकेत हैं? कोविड के तत्काल बाद सरकारी निवेश बढ़ाने की रणनीति कारगर रही थी। क्या उसमें बदलाव का वक्त आ गया है?
यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि तमाम गिरावट के बावजूद सड़क और रेलवे के क्षेत्र में पूंजीगत व्यय मजबूत बना रहा है और उन्होंने अपने सालाना पूंजीगत व्यय आवंटन का 52-54 फीसदी व्यय किया है। ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र पिछड़ गए हैं। इस रुझान से संकेत लेते हुए केंद्र सरकार को अन्य क्षेत्रों का परीक्षण करना चाहिए और विशिष्ट समस्याओं का अध्ययन करना चाहिए जो फंड के सहज वितरण को बाधित कर रही हैं।
यह भी संभव है कि वर्ष के बीच में पूंजीगत व्यय की प्राथमिकताओं को नए सिरे से तय करना और अधिक संसाधनों को सड़क और रेलवे जैसे क्षेत्रों में लाने में मदद करे, जिनकी व्यय करने की गति तेज है। इसका एक अर्थ उन क्षेत्रों के पूंजीगत व्यय आवंटन में कटौती भी हो सकता है जो अपने आवंटन का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं कर सके। नकदी-प्रबंधन दिशानिदेर्शों का इस्तेमाल किसी मंत्रालय के वार्षिक आवंटन का एक न्यूनतम हिस्सा व्यय करने को बढ़ावा देने में प्रयोग किया जाना चाहिए। अगर वह न्यूनतम राशि तय तिमाही में नहीं इस्तेमाल की जाती है तो सरकार को उपयोग से बचे उस हिस्से को मंत्रालयों या उन क्षेत्रों को दे देना चाहिए जिन्हें अधिक संसाधनों की आवश्यकता है।
अधिक जटिल समस्या राज्य द्वारा उस पूंजीगत व्यय को खर्च कर पाने में अक्षमता है जो उनकी ही सरकार अलग-अलग क्षेत्रों को आवंटित करती हैं। दुर्भाग्य की बात है कि इस बात का कोई समन्वित परीक्षण नहीं होता है कि आखिर क्यों कुछ राज्य अधिक धन व्यय कर रहे हैं जबकि अन्य अपने व्यय में कमी दर्शा रहे हैं। तथ्य यह है कि असम, कर्नाटक, महाराष्ट्र, त्रिपुरा, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और यहां तक कि बंगाल जैसे राज्यों में भी 2024-25 की पहली छमाही में पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में पूंजीगत व्यय में इजाफा देखने को मिला है।
आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और तेलंगाना जैसे राज्यों में समान अवधि में पूंजीगत व्यय में गिरावट भी समान रूप से चकित करने वाला है। पूंजीगत व्यय के इस रुझान का असर आर्थिक वृद्धि पर पड़ रहा है। भारी भरकम व्यय शक्ति के साथ राज्यों की भी आर्थिक विकास में अहम भूमिका है।
शायद वित्त मंत्रालय की एक शाखा या नीति आयोग राज्यों के पूंजीगत व्यय के रुझानों को परख कर राज्य सरकारों को नीतिगत सलाह दे सकते हैं या जरूरी सुधार सुझा सकते हैं। राज्य न केवल सरकार के राजकोषीय घाटे को नियंत्रित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं बल्कि वे अर्थव्यवस्था में निवेश की गति बरकरार रखने में भी मददगार साबित होते हैं।