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क्या Apple द्वारा भारतीय बाजार (Indian Market) पर देर से ध्यान देना और उसे विनिर्माण केंद्र (manufacturing hub) बनाना वैसी ही घटना है जैसी कि ठीक 40 वर्ष पहले भारतीय कार बाजार में Suzuki (मारुति) का प्रवेश? इस सवाल का जवाब हां और न दोनों है, हालांकि दोनों मामलों में अंतर, समानताओं पर भारी पड़ता है।
Suzuki ने एक छोटे से कार बाजार में प्रवेश किया था जहां काफी पुराने मॉडल थे और उत्पाद की गुणवत्ता बेहद खराब थी। उसे उम्मीद थी कि वह अपनी कम कीमत वाली कार के जरिये बाजार में नाटकीय बदलाव लाएगी। Apple एक ऐसे बाजार में प्रवेश कर रही है जो पहले ही मोबाइल फोन के मामले में दुनिया के बड़े बाजारों में से एक है।
Suzuki के उलट उसकी नजर बाजार के एकदम ऊपरी वर्ग पर है। यही वजह है कि उसकी बाजार हिस्सेदारी संख्या के आधार पर केवल 5 फीसदी के करीब है लेकिन मूल्यांकन के आधार पर वह 18 फीसदी है। उससे आगे केवल सैमसंग (Samsung) है जिसकी बाजार हिस्सेदारी 22 फीसदी है।
Suzuki ने सरकार के साथ हिस्सेदारी की थी और उसे लंबी अवधि तक प्रतिस्पर्धा से बचाव तथा विशेष लाभ हासिल थे। जबकि Apple तथा उसके आपूर्तिकर्ताओं के लिए जो लाभ हैं वे लाभ उनके प्रतिस्पर्धियों के लिए भी हैं।
Suzuki ने भारतीयों को समकालीन कारों से परिचित कराया। लगभग उसी समय अन्य जापानी कंपनियों ने मोटरसाइकिल तथा वाणिज्यिक वाहन बाजार में प्रवेश किया था। तब से छोटी कारों के बाजार में कंपनी का दबदबा रहा है। Apple एक अत्यधिक प्रतिस्पर्धी बाजार में प्रवेश कर रही है जो पहले ही महंगे से महंगे और सस्ते से सस्ते उत्पादों से भरा हुआ है।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि Suzuki अपने साथ कई जापानी वेंडर भी लाई थी ताकि वे भारत में कारोबार स्थापित कर सकें और मारुति कारों के आपूर्तिकर्ता बन सकें। यही वजह है कि आज भारत में ऐसा वाहन कलपुर्जा उद्योग है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकता है।
चूंकि एक कार फैक्टरी मोटे तौर पर एक असेंबली यूनिट होती है, ऐसे में Suzuki द्वारा तैयार किए गए वेंडरों की व्यवस्था महत्त्वपूर्ण साबित हुई। स्टील उद्योग भी उसी व्यवस्था का अंग है जिसे डीप ड्रॉइंग स्टील जैसे विशेष ग्रेड का निर्माण करना पड़ा।
Apple भी उत्प्रेरक की वही भूमिका निभा सकता है। बशर्ते कि भारत भी यह दिखाए कि वह फोन कलपुर्जों के निर्माण और सब असेंबली के लिए एक अच्छी जगह है। लेकिन ऐसे में दो तरह की नीतिगत मदद को किसी न किसी मोड़ पर समाप्त करना होगा।
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उनमें से एक है उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन और दूसरा टैरिफ संरक्षण जिस पर हाल ही में विश्व व्यापार संगठन ने भी आपत्ति जताई। क्या उस स्थिति में भारत का आज का फलता-फूलता मोबाइल निर्यात बाजार बरकरार रह पाएगा?
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया भर के अन्य कार निर्माता भी नजर बनाए हुए थे और भारतीय कार बाजार का विस्तार होने पर उन्होंने भी Suzuki का अनुसरण किया। हालांकि उन्हें अलग-अलग परिणाम देखने को मिले। कई देसी कंपनियां भी इस बीच यात्री वाहन बाजार में महत्त्वपूर्ण रूप से उभर कर सामने आईं।
तीन अन्य कंपनियों ने मोटर साइकिल बाजार में अपनी जगह बनाई। क्या मोबाइल फोन के क्षेत्र में भी ऐसा ही होगा? शुरुआत में सैमसंग को भारत अधिक अनुकूल नहीं लगा और उसने वियतनाम पर ध्यान केंद्रित किया लेकिन दिल्ली के पास उसकी एक उत्पादन इकाई है। सवाल यह है कि क्या उसे उत्पादन आधार बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, खासतौर पर इसलिए क्योंकि टीवी और टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में भी उसकी अच्छी पहुंच है।
भारत में Apple की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह एक फोन कंपनी से आगे क्या कुछ करती है। साथ ही इस पर कि क्या वह सैमसंग की तरह अपने संपूर्ण उत्पाद प्रोफाइल के साथ उपभोक्ताओं को आकर्षित कर पाती है, ताकि वह अपने लाखों लैपटॉप, टैबलेट और वॉच भी ग्राहकों को बेच सके। उस स्थिति में भारत में उनका भी उत्पादन और असेंबली हो सकेगी।
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उदाहरण के लिए क्या तब टाटा भारतीय फॉक्सकॉन बन सकती है या क्या वह विस्ट्रॉन की भूमिका निभा सकती है? या फिर क्या भारत लचीली श्रम नीतियां और किफायती विनिर्माण अपना सकता है? इन सवालों के जवाब कुछ समय बाद ही मिल सकेंगे।
जब एक कार और उसके कलपुर्जे देश में बनाए जाते हैं तो अधिकांश मूल्य श्रृंखला देश में रहती है। यह मोबाइल फोन से एकदम अलग है जहां उत्पादन लागत खुदरा मूल्य का बहुत छोटा हिस्सा होती है। Apple की मूल्य श्रृंखला का अधिकांश हिस्सा अमेरिका में रहता है।
दूसरी बात, हालांकि Apple के CEO ने भारत में अपने एक लाख श्रमिकों की संख्या को बढ़ाकर दोगुना और तीन गुना करने की बात कही है लेकिन फिलहाल इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण/असेंबली के उतना रोजगार और मूल्य तैयार करने की संभावना कम है जितना कि वाहन उद्योग ने किया है।
बहरहाल, फिलहाल के लिए तो यही पर्याप्त है कि देश में इलेक्ट्रॉनिक्स असेंबली और निर्यात की शुरुआत भविष्य में कुछ बड़ा होने की दिशा में एक पहल हो सकती है।