प्रतीकात्मक तस्वीर
देश में शक्तियों के बंटवारे की बहस पारंपरिक रूप से संवैधानिक ढांचे के भीतर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर केंद्रित रहती है। बहरहाल आज कहीं अधिक बड़ी चुनौती इस शास्त्रीय त्रयी से इतर नियामकीय संस्थाओं में निहित है। नियामक अपने-अपने क्षेत्र में छोटे स्वयंभू राज्यों की तरह काम करते हैं और इस दौरान वे एक साथ अर्द्ध-विधायी, कार्यकारी और अर्द्ध न्यायिक शक्तियों का इस्तेमाल करते हैं।
व्यवहार में अक्सर इसका अर्थ यह होता है कि एक नियामकीय एजेंसी के अंतर्गत एक ही व्यक्ति या शाखा कई भूमिकाएं निभा सकते हैं। उदाहरण के लिए कानून निर्माता, जांचकर्ता और निर्णयकर्ता की भूमिका। इन कामों की प्रक्रियागत सीमा बहुत धुंधली होती है। क्लैरिएंट इंटरनैशनल लिमिटेड ऐंड एएनआर बनाम सेबी (2004 ) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि नियामक न केवल नियमन तय करता है बल्कि वह उन्हें लागू भी करता है और उनके उल्लंघन पर फैसले भी देता है। उसने चेतावनी दी कि इन शक्तियों को एक ही संस्था में शामिल करना भविष्य में सार्वजनिक विधि से संबंधित कई चुनौतियां पैदा कर सकता है।
अब इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कार्यकारी और अर्द्ध न्यायिक कामों को अलग-अलग किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि तथ्य स्थापित करने वाले लोगों को दंड देने के अधिकारी लोगों से अलग किया जा सके। विशाल तिवारी बनाम भारत संघ (2024) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को निर्देश दिया कि अर्द्ध न्यायिक और कार्यकारी शाखाओं में अंतर रखा जाए। प्रतिस्पर्धा कानून में एक तुलनात्मक संस्थागत डिजाइन मौजूद है जहां महानिदेशक कार्यालय (जांच) , भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग से अलग स्वतंत्र रूप से काम करता है। कई नियामक यह परंपरा अपनाते हैं कि किसी एक पूर्णकालिक सदस्य के अधिकार क्षेत्र से उत्पन्न मामलों का निर्णय किसी अन्य सदस्य द्वारा किया जाता है।
इसके बावजूद अक्सर व्यवहार में यह पृथक्करण नाकाम हो जाता है। कंपनी कानून के तहत राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण (एनएफआरए) को अपनी कार्यप्रणाली को अलग-अलग विभागों में संगठित करने का निर्देश दिया गया है। हालांकि, ऑडिट गुणवत्ता समीक्षा को अनुशासनात्मक कार्यों से अलग न करने के कारण, दिल्ली उच्च न्यायालय ने डेलॉयट हस्किंस बनाम भारत संघ (2025) मामले में एनएफआरए द्वारा जारी कई कारण बताओ नोटिस और अंतिम आदेशों को रद्द कर दिया। इस निर्णय के विरुद्ध अपील स्वीकार करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने एनएफआरए को अंतिम आदेश जारी करने या उन्हें लागू करने से रोक दिया है, जब तक कि मामले का निर्णय नहीं हो जाता।
अमेरिका में बात इसके उलट है। वहां प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग यानी एसईसी और संघीय व्यापार आयोग अपने-अपने जांच स्टाफ और निर्णय लेने वाले आयुक्तों के बीच कठोर विभाजन रखते हैं। अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एसईसी बनाम जार्केसी (2024) मामले में इस सिद्धांत पर दोबारा बल दिया और कहा कि एसईसी अपने आंतरिक प्रशासनिक कानून न्यायाधीशों का उपयोग धोखाधड़ी के मामलों में दीवानी दंड लगाने के लिए नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करना संविधान द्वारा प्रदत्त जूरी ट्रायल के अधिकार का उल्लंघन होगा। जब दंड या जुर्माना दंडात्मक प्रकृति का होता है, तो उसका निर्णय न्यायालयों द्वारा ही किया जाना चाहिए।
अर्द्ध विधायी और अर्द्ध न्यायिक कामों का मिश्रण और दिक्कतदेह है क्योंकि इसमें कानून बनाने वाले और निर्णय करने वाले एक ही व्यक्ति होते हैं। यह वैसा ही है जैसे कि संसद कानून बनाए और उनके उल्लंघन के मामलों में निर्णय भी दे। एनएफआरए का अनुभव बताता है कि कैसे नियामक विधायिका द्वारा तय सुरक्षा उपायों के क्रियान्वयन में नाकाम हो सकते हैं। हर नियामक से यह उम्मीद करना सही नहीं है कि वह खुद ऐसे उपाय अपनाएगा।
भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) ने आरंभ में ऐसे विनियम बनाए थे जो एक महत्त्वपूर्ण सुरक्षा प्रदान करते थे: किसी जांच से जुड़े पूर्णकालिक सदस्य को उसके निर्णय में भाग लेने की अनुमति नहीं होगी। बाद में इस प्रावधान में संशोधन कर इसे केवल ‘संलिप्तता’ तक सीमित कर दिया गया। यह तकनीकी बदलाव दिखने में मामूली लग सकता है, लेकिन इसके गंभीर प्रभाव हैं। इससे उन सदस्यों को, जिनका जांच से पर्यवेक्षण या संस्थागत संबंध रहा है, उन्हीं मामलों का निर्णय करने की अनुमति मिल जाती है जिनकी निगरानी उन्होंने की थी। अपने विधायी अधिकार के साथ, नियामक ने पक्षपात के विरुद्ध एक सुरक्षा को कमजोर किया; और अब अपने न्यायिक अधिकार में, वह उसी कमजोर नियम को लागू कर रहा है जिससे हितों के टकराव का जोखिम वास्तविक और तात्कालिक हो गया है।
संवैधानिक व्यवस्था में जुर्माने विधायिका तय करती है और न्यायपालिका उन्हें लागू करती है। 1990 के दशक के आरंभ तक यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि सरकार के बाहर की कोई संस्था जुर्माना लगा सकती है। हालांकि नियामकीय शासन के हित में, सेबी को ऐसे दंड लगाने का अधिकार दिया गया, लेकिन यह कुछ सख्त शर्तों के अधीन था। कानून में उल्लंघनों और उनसे संबंधित दंडों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया था। सेबी केवल केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए नियमों के तहत ही ये दंड लगा सकता था, और लगाए गए जुर्माने की राशि भारत की संचित निधि में जमा की जानी थी। यह दृष्टिकोण अन्य नियामकीय कानूनों में भी अपनाया गया है।
समय के साथ, उल्लंघनों और प्रतिबंधों की सूची सहायक कानूनों और अधीनस्थ निर्देशों के माध्यम से लगातार विस्तृत होती गई है। उदाहरण के लिए, सेबी अधिनियम किसी भी विनियम के प्रावधान के उल्लंघन को दंडनीय बनाता है, जिससे नियामक को नियम बनाकर नए उल्लंघन तय करने का अधिकार मिल जाता है। कुछ मामलों में, स्वयं विनियमों में अनुपालन न करने पर दंड निर्धारित किए गए हैं। उदाहरण के लिए, सेबी (स्टॉक ब्रोकर्स) विनियम, 1992 में ब्रोकर्स द्वारा की गई विभिन्न चूकों के लिए जुर्माने की एक विस्तृत श्रृंखला निर्धारित की गई है। इसी तरह का रुझान अन्य नियामकीय क्षेत्रों जैसे बीमा, पेंशन और दूरसंचार आदि में भी देखा जा सकता है।
यहां तक कि परिपत्रों ने भी समय के साथ उल्लंघनों की सूची को लगातार विस्तारित किया है। उदाहरण के लिए, 2020 में सेबी द्वारा जारी एक परिपत्र ने सेबी (सूचीबद्धता दायित्व और प्रकटीकरण आवश्यकताएं) विनियम, 2015 के तहत 28 विशिष्ट उल्लंघनों को सूचीबद्ध किया और उनके लिए जुर्माने निर्धारित किए, जिन्हें स्टॉक एक्सचेंजों द्वारा लगाया जाना था और निवेशक संरक्षण कोष में जमा किया जाना था। नियामक की स्वीकृति से जारी हालिया स्टॉक एक्सचेंज परिपत्र ने ब्रोकर्स के लिए दंड ढांचे को तर्कसंगत बनाते हुए 12 नए जुर्माना प्रावधान जोड़े। इसका प्रभाव यह है कि नियामक स्वयं ही उल्लंघन की परिभाषा तय करता है और स्वयं या अपने प्रतिनिधियों को दंड लगाने का अधिकार भी देता है, जो विधायी और न्यायिक कार्यों के मिश्रण के खतरे को उजागर करता है।
भारत का नियामकीय परिदृश्य नए मोर्चों पर विस्तारित हो रहा है जैसे फिनटेक, डेटा संरक्षण, जलवायु प्रशासन आदि। ऐसे में नियामकों को सीमित शक्तियां देने की प्रवृत्ति बढ़ती जाएगी। नियामकों को अधिकार संपन्न बनाने में कुछ भी गलत नहीं है। आधुनिक बाजार मजबूत, प्रतिक्रियाशील संस्थानों की मांग करते हैं लेकिन शक्ति के साथ प्रतिरोध भी आना चाहिए। नियामकों को भी हितों के टकराव के मामलों में सावधानी बरतनी चाहिए।
भारत को ऐसी संस्थागत संरचना संबंधी कानूनों की आवश्यकता है जो स्पष्ट रूप से यह निर्धारित करें कि प्रत्येक नियामक संस्था में तीन अलग-अलग शाखाएं हों- नियम निर्माण, कार्यान्वयन और न्याय निर्णयन के लिए। नियामकों को यह विवेकाधिकार नहीं होना चाहिए कि वे न्याय निर्णयन की प्रक्रिया को अपनी पसंद की किसी बाहरी एजेंसी को सौंप दें। जहां आंतरिक रूप से यह पृथक्करण संभव न हो, वहां स्वतंत्र पंचाटाें को हस्तक्षेप करना चाहिए। न्यायालयों को सतर्क रहना चाहिए और उन नियामकों को चिह्नित करना चाहिए जो कानून बनाने और उसके उल्लंघन पर निर्णय देने की सीमाओं को धुंधला करते हैं।
भारत का संवैधानिक वादा केवल प्रभावी शासन का नहीं बल्कि निष्पक्ष शासन का है। जब नियामक नियम भी बनाते हैं और उनके उल्लंघन पर निर्णय भी सुनाते हैं तो वह वादा टूटने लगता है। भारतीय नियामक राज्य की ताकत का आकलन इस बात से नहीं होगा कि वह कितनी शक्ति जुटाता है बल्कि इस बात से भी होगा कि वह उसका कितना उचित इस्तेमाल करता है। अर्द्ध विधायी और अर्द्ध न्यायिक कार्यों का पृथक्करण कोई प्रक्रियागत जरूरत नहीं बल्कि शासन की निष्पक्षता और विश्वसनीयता की बुनियादी जरूरत है।
(लेखक वकील हैं जिनका नियामक निकायों में कार्य करने का अनुभव है)