भारत सरकार और उद्योग पिछले कुछ दिनों से अमेरिका से टैरिफ या शुल्क में राहत के लिए 9 जुलाई की समय-सीमा का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। कई लोगों को भारत और अमेरिका के बीच आखिरी समय में व्यापार समझौते की उम्मीद थी, लेकिन ऐसी कोई घोषणा नहीं हुई। इसके बजाय अमेरिका ने यह विराम अवधि 31 जुलाई तक बढ़ा दी जिससे समय तो मिला लेकिन देशों पर अमेरिका की शर्तों पर सौदे करने का दबाव बढ़ गया।
वास्तव में अमेरिका जिन समझौतों की पेशकश कर रहा है, वे सामान्य व्यापार समझौते नहीं हैं बल्कि दबाव डालकर किए गए पारस्परिक सहमति समझौते हैं। ये एकतरफा समझौते केवल उसी स्थिति में टैरिफ से राहत देते हैं जब दूसरे देश, अमेरिका के लिए निर्यात की गारंटी देने के साथ ही राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के लिए राजनीतिक रूप से उपयोगी होने वाली जीत पर सहमत हों। इस तरह के समझौते में निष्पक्षता या पारस्परिक लाभ की परवाह बहुत कम की जाती है।
यह कहानी 2 अप्रैल को शुरू हुई, जब राष्ट्रपति ट्रंप ने 57 देशों पर अलग-अलग आधार पर टैरिफ लगाने की घोषणा करके दुनिया को चौंका दिया। उन्होंने घोषणा की कि भारतीय वस्तुओं पर 26 प्रतिशत, यूरोपीय संघ (ईयू) के निर्यात पर 20 प्रतिशत, और अन्य पर 54 प्रतिशत तक टैरिफ लगाए जाएंगे। इसका तत्काल प्रभाव यह हुआ कि चीन और जापान ने मिलकर 1 लाख करोड़ डॉलर के अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड बेच दिए जिससे वैश्विक बाजार और वॉल स्ट्रीट दोनों को समान रूप से झटका लगा।
जवाब में व्हाइट हाउस ने भी 9 अप्रैल को अपना रुख नरम कर लिया। टैरिफ को करीब 90 दिन के लिए टाल दिया और चीन को छोड़कर अधिकांश आयातों पर 10 प्रतिशत का एकसमान टैरिफ लगाया। टैरिफ पर लगाई गई इस विराम अवधि को देशों के लिए अमेरिका के साथ तेजी से द्विपक्षीय सौदों पर बातचीत करने के लिए एक ‘गुंजाइश’ के रूप में पेश किया गया था।
अमेरिका के भारी दबाव के बावजूद, 8 जुलाई की समय सीमा तक केवल दो देशों, वियतनाम और ब्रिटेन ने अमेरिका के साथ करार पर हस्ताक्षर किए। शुरुआत में 46 प्रतिशत टैरिफ का सामना करने वाले वियतनाम ने एक समझौते पर बातचीत की जिसके तहत अमेरिका का सामान, वियतनाम में बिना शुल्क के प्रवेश करता है जबकि वियतनाम के निर्यात पर अमेरिका में अब भी 20 प्रतिशत टैरिफ लगता है। ब्रिटेन ने 2,500 अमेरिकी उत्पादों पर बड़ी टैरिफ कटौती की पेशकश की और इसने न्यूनतम पारस्परिक लाभ सुनिश्चित करने की कोशिश की।
निराशा में ट्रंप को और देशों को समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए टैरिफ विराम को 31 जुलाई तक बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। 7 जुलाई को उन्होंने 14 देशों को व्यक्तिगत चेतावनी पत्र भेजे। जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, कजाखस्तान और ट्यूनीशिया को बताया गया कि यदि कोई समझौता नहीं हुआ तो 1 अगस्त से 25 प्रतिशत तक टैरिफ लगाया जा सकता है। बोस्निया, दक्षिण अफ्रीका और अन्य देशों के लिए 30-40 प्रतिशत शुल्क की बात की गई। इस सप्ताह ऐसी और भी ‘अंतिम चेतावनी’ मिलने की उम्मीद है।
लेकिन अमेरिका ने एक शर्त भी रख दी है कि कोई भी देश किसी तरह का बदला लेने की हिम्मत न जुटा पाएं। अमेरिका ने कहा कि जो देश जवाबी कार्रवाई में अपने टैरिफ बढ़ाते हैं उन्हें और भी अधिक अमेरिकी शुल्क का सामना करना पड़ सकता है।
अमेरिका 20 देशों के साथ बातचीत कर रहा था। ऐसे में अहम सवाल यह है कि आखिर केवल दो देशों ने क्यों हस्ताक्षर किए? ये भी वास्तविक व्यापार समझौते नहीं हैं बल्कि यह दबाव में डालकर किए गए पारस्परिक सहमति समझौते हैं। इनमें अस्थायी टैरिफ राहत के बदले में अमेरिकी सामानों की गारंटी वाली खरीद और साझेदारों द्वारा की गई संरचनात्मक रियायतें शामिल हैं। इसमें कोई पारस्परिक लाभ शामिल नहीं है।
उदाहरण के तौर पर, अमेरिका के साथ जापान और दक्षिण कोरिया के औपचारिक मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) हुए हैं जो क्रमशः 2020 और 2012 से लागू हैं। इन दोनों देशों ने 90 प्रतिशत से अधिक अमेरिकी वस्तुओं पर टैरिफ खत्म कर दिया है। फिर भी दोनों देशों को अब केवल व्यापार अधिशेष के लिए 25 प्रतिशत नए टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है। ट्रंप, बाजार तक पहुंच बनाने की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि वह गारंटी के साथ मांस, गैस, विमान और अधिक चीजों की खरीद की मांग कर रहे हैं।
ऑस्ट्रेलिया का मामला भी अजीब है। वर्ष 2005 के एफटीए के तहत 99 प्रतिशत अमेरिकी वस्तुओं को देश में बिना शुल्क के आने देने और अमेरिका के साथ 17.9 अरब डॉलर का व्यापार घाटा रहने के बावजूद, उस पर अधिक अमेरिकी गोमांस और अन्य सामान खरीदने के लिए दबाव डाला जा रहा है। अमेरिका की गणना में, व्यापार संतुलन, एफटीए और पिछली रियायतें अब मायने नहीं रखतीं हैं।
हालांकि अभी तक कोई आधिकारिक खबर नहीं है लेकिन भारत ने अपनी पेशकश कर दी है और इसने अमेरिकी मांगों का जवाब देने के साथ ही अपनी शर्तें भी तय कर दी हैं। अमेरिका का कोई भी जवाब या समझौते की घोषणा अचानक हो सकती है। संभवतः किसी भी दिन ट्रंप के ट्रुथ सोशल पर देर रात के पोस्ट के माध्यम से भी यह हो सकता है। भारत संयुक्त बयान को तरजीह दे सकता है लेकिन यह सब ट्रंप के मिजाज पर निर्भर करता है। संभावित समझौते के मुख्य बिंदु भी सामने आ रहे हैं। खबरों के अनुसार, भारत ऑटोमोबाइल और अन्य औद्योगिक उत्पादों पर टैरिफ कम करने और सीमित मात्रा में एथनॉल, बादाम, सेब और शराब के आयात की अनुमति देने तैयार है। भारत नियामकीय सुधारों पर भी सहमत हो सकता है। बदले में, अमेरिका तरजीही देशों के टैरिफ में कोई कमी नहीं करेगा, केवल ‘लिबरेशन डे’ शुल्क ही हटाएगा। कटौती के बाद भी, भारतीय निर्यात पर अमेरिकी मूल टैरिफ के ऊपर संभवतः 10-15 प्रतिशत का अतिरिक्त शुल्क लगेगा।
उदाहरण के तौर पर रियो में हाल ही में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के बाद इसके सदस्य देशों ने अमेरिका की एकतरफा व्यापार नीतियों की आलोचना की और एक साझी मुद्रा शुरू करने पर चर्चा की। इस पर ट्रंप ने ‘अमेरिकी-विरोधी’ नीतियों को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हुए सभी ब्रिक्स सदस्य देशों पर नया10 प्रतिशत टैरिफ लगाने की धमकी दी।
मई 2025 में, चीन का कुल निर्यात पिछले साल की तुलना में सालाना आधार पर 4.6 प्रतिशत बढ़ा, लेकिन अमेरिका में चीन का निर्यात 34.5 प्रतिशत कम हो गया जो बढ़ते तनाव का एक स्पष्ट संकेत है। इस नुकसान की भरपाई के लिए, चीन ने अपना ध्यान अन्य बाजारों की ओर देना शुरू किया। ऐसे में यूरोपीय संघ में चीन का निर्यात 12 प्रतिशत, आसियान देशों में 15 प्रतिशत और भारत में 12.4 प्रतिशत बढ़ा। इसके कारण तीसरे देशों के बाजारों में माल की डंपिंग और अनुचित प्रतिस्पर्धा की चिंताएं बढ़ीं जिससे अंदाजा हुआ कि अमेरिकी टैरिफ किस तरह व्यापार को बाधाकारी तरीके से नया रूप दे रहे हैं।
वियतनाम में निर्यात सकल घरेलू उत्पाद का 93.8 प्रतिशत है, इसके विपरीत भारत का यह आंकड़ा केवल 21.9 प्रतिशत है। यह भारत के लिए काफी राहत की बात है।
(लेखक जीटीआरआई के संस्थापक हैं)