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ट्रंप, मोदी, राहुल और चुनाव का फॉर्मूला तीन

सच यह है कि मोदी अपने विजयी अश्व से उतरकर अखाड़े की लड़ाई में आ गए। इससे अहम राज्यों में उनकी गति भंग हुई। वह विपक्ष के आरोपों का नाराजगी से जवाब देने लगे।

Last Updated- November 10, 2024 | 9:37 PM IST
PM Modi and Donald Trump

चुनावी जीत का फॉर्मूला तीन स्तंभों पर टिका है और सफल प्रचार अभियान को उन पर आधारित होना चाहिए। ट्रंप ने इस पर अमल किया। मोदी ने भी 2014 और 2019 में ऐसा किया मगर 2024 में नहीं।

अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप की जीत हमें क्या बताती है कि नेता ऐसा क्या करते हैं कि वे जीत जाते हैं, हारते हैं या फीकी जीत दर्ज कर पाते हैं। ट्रंप इस बार जीते हैं, राहुल अक्सर हारते रहते हैं और मोदी ने इस बार जून में फीकी जीत हासिल की। तीनों के बारे में सोचिए।
ट्रंप की शानदार जीत से निकला पहला सबक है सफल अभियान के लिए तीन स्तंभों का फॉर्मूला। उसे राष्ट्रवाद, विजयवाद और अविश्वास का नाम देते हैं।

यह कैसे काम करता है, यह जानने के लिए मागा यानी ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (अमेरिका को दोबारा महान बनाएं) की अवधारणा पर विचार कीजिए। यानी अमेरिका अभी जितना महान है, उससे अधिक महान बनाने की कोशिश ही राष्ट्रवाद है यानी उसे दोबारा महान बनाया जाएगा। उसे हालिया अतीत की उस स्थिति में लाने, जब वह शीर्ष पर था की बात विजयवाद है। जंग शुरू होने से पहले ही जीत का ऐलान कर दीजिए।

अगर आप दलील देंगे कि अमेरिका पहले से महान था और उसकी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और उसका जीडीपी जो 2008 में यूरो क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद का 50 फीसदी था अब उसके दोगुना हो गया है, उसके शेयरों में तेजी आ रही है, प्रौद्योगिकी और नवाचार में वह दुनिया का नेतृत्व करता है तो मैं आपको बताता हूं अविश्वास क्या है। चुनावी राष्ट्रवाद में मेरा देश तब तक ठीक से महान नहीं होता, जब तक मैं उसकी बागडोर नहीं संभालता। मेरे संभालते ही वह बहुत बेहतर हो जाएगा।

भारत की बात करें तो हम देख सकते हैं कि राहुल गांधी 2014 और 2019 में बुरी तरह क्यों हारे और मोदी ने शानदार प्रदर्शन क्यों किया। उसके बाद अचानक क्या हुआ, जो 2024 में मोदी अपनी ही नहीं बाजार और चुनाव विश्लेषकों की अपेक्षाओं से भी पिछड़ गए? 240 सीटें उनके लिए निराशाजनक था। दूसरे को चित करने का आदी अगर अंकों के आधार पर जीते तो जीत को खराब ही माना जाएगा। यह क्यों हुआ?

हमारे द्वारा तय तीन बिंदुओं – राष्ट्रवाद, विजयवाद और अविश्वास की कसौटी पर कांग्रेस और राहुल गांधी की कसना आसान होगा। 2014 में राहुल ऐसी पार्टी के लिए प्रचार अभियान का नेतृत्व कर रहे थे जो एक दशक से सत्ता में थी। परंतु उनके प्रचार अभियान में शायद ही कभी सरकार की उपलब्धियों का बखान किया गया। क्या उनकी पार्टी ने एक दशक के कार्यकाल में भारत को महान बनाया? और क्या अब वह उसे और अधिक महान बनाने जा रहे थे? क्या इस दशक ने भारत को सैन्य और कूटनीतिक दृष्टि से अधिक मजबूत तथा रणनीतिक दृष्टि से अधिक सुरक्षित, वैश्विक रूप से अधिक प्रभावशाली बनाया? क्या कांग्रेस / संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने भारत को उस ‘गर्त’ से बाहर निकाला जिसमें ‘वाजपेयी’ की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने उसे छोड़ा था? ऐसा कुछ नहीं था, इसीलिए राष्ट्रवाद और विजयवाद का मुद्दा छूट गया।

उनका अभियान ज्यादातर अमीर और गरीब, असमानता, भाजपा की सांप्रदायिकता, उनकी और उनकी पार्टी की गरीबों, वंचित जातियों और आदिवासियों के लिए चिंता पर केंद्रित रहा।

राहुल और उनके समर्थक कह सकते थे कि वह सच के करीब रहे क्योंकि उनकी पार्टी के 10 साल के शासन के बाद भी गरीबी, असमानता और अभाव की स्थिति बनी रही। वे कह सकते थे कि इन हालात में वह जीत पर आधारित अभियान कैसे खड़ा कर सकते थे।

इसका जवाब हमारी तीन बिंदुओं वाली स्थापना के तीसरे हिस्से में है जो है: अविश्वास

यह राजनीति है। आप मतदाताओं से बात कर रहे हैं या फिर कहें तो दो तरह के मतदाताओं से। मतदाताओं की एक किस्म वह है जो अनिर्णय में रहती है और आपमें तथा आपके प्रतिद्वंद्वी में बहुत अंतर न कर पाते हुए सभी विकल्पों पर विचार करती है। इससे भी महत्वपूर्ण होते हैं आपके वफादार मतदाता। उन्हें इतना प्रेरित करना जरूरी है कि उन्हें आपकी पार्टी की जीत का यकीन हो जाए और वे बड़ी संख्या में मतदान के लिए आएं।

मतदाताओं का ध्रुवीकरण होने पर ये बातें ही तय करती हैं कि आपको बड़ी चुनावी जीत मिलेगी या सफाया होगा। 2019 में किसी को भी लग सकता था कि कांग्रेस मोदी के पांच साल के कार्यकाल की रिपोर्ट के साथ प्रचार में उतरेगी और दलील देगी कि उसने काफी बेहतर काम किया था और अगर भारत को उसी वैभव पर लाना है तो मतदाताओं को उसे ही वोट देना चाहिए। ऐसा कुछ नहीं हुआ।

पूरा चुनाव मोदी सरकार के भ्रष्टाचार (चौकीदार चोर है), कुशासन, नाकाम नोटबंदी और सांप्रदायिकता के आरोपों पर लड़ा गया। पूरा प्रचार अभियान नकारात्मक था। ऐसा कुछ नहीं कहा गया कि कांग्रेस के शासन में भारत महान था और उसे दोबारा महान बनाने के लिए वोट दिया जाए। कह सकते हैं कि पुलवामा के बाद मोदी भावनाओं के ज्वार पर सवार थे, जिसने उनकी नाकामियों को ढक दिया। लेकिन हमें यह भी पूछना होगा कि क्या कांग्रेस के अभियान में कहीं राष्ट्रवाद था? जीत की उम्मीद रहने भी दें तो क्या कोई आशावाद भी था?

इससे पहले 2014 में मोदी लगभग उन्हीं विचारों की लहर पर सवार होकर जीते थे, जिन्होंने 2024 में ट्रंप को जीत दिलाई। भारत के सुरक्षा और सशस्त्र बल कमजोर थे और दुनिया उन्हें गंभीरता से नहीं लेती थी। आए दिन आतंकी हमले होते थे और भारत एक थप्पड़ खाने के बाद चुपचाप अपना दूसरा गाल आगे कर देता था।

ब्रिक्स में उसकी स्थिति कमजोर थी और मोदी भारत को दोबारा महान बनाने का वादा कर रहे थे। उसका ‘सोने की चिड़िया’ वाला अतीत का वैभव वापस दिलाना चाहते थे, चीन को लाल आंखें दिखाई जानी थीं और पाकिस्तान के लिए तो 56 इंच का सीना था ही।

ये सारी बातें इतनी हावी थीं और कांग्रेस अपने ही विरोधाभासों में इतनी फंसी थी कि वह नया जनादेश चाहती थी लेकिन पिछले दो कार्यकालों को याद नहीं कर रही थी। किसी ने उसे यह याद नहीं दिलाया कि भारत ने उससे पहले वाले दशक में 8 फीसदी की जीडीपी वृद्धि हासिल की थी या फिर उस अवधि में तमाम नए संस्थान बने थे। मोदी भला इन बातों का जिक्र क्यों करते? उन्हें तो कमियां निकालनी थीं। वह तो भारत को दोबारा महान बनाने वाले थे।

तब मोदी 2024 में अपनी ही तार्किक आकांक्षाओं से पीछे क्यों रह गए? सच तो यह है कि उन्होंने अपना प्रचार अभियान बहुत अच्छी तरह से चलाया, जो उपरोक्त तीन बिंदुओं वाले फॉर्मूला पर आधारित था। भारत उनके कार्यकाल में कितना महान बना यह जी20 बैठक के दौरान उनसे गले मिलने के लिए कतार लगाए नेताओं को देखकर जाना जा सकता था। उनके कार्यकाल में भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की दहलीज पर था और आतंकवादी घटनाओं के क्षेत्र में बीते पांच साल, पांच दशकों से बेहतर रहे हैं। अगर वह देश को और महान बनाने का वादा कर रहे हों तो लोग उन्हें वोट क्यों न करते?

अब बात करते हैं उनके अभियान की और उसकी 10 मुख्य बातें लेते हैं। इनमें से तकरीबन सभी कांग्रेस की कही बातों, उसके वादों या जो कुछ कांग्रेस करने को कह रही थी उन पर केंद्रित थीं मसलन: मंगलसूत्र, भैंस, घुसपैठिये, पाकिस्तान से प्रेम, अल्पसंख्यकवाद, जातिवाद, वंचित जातियों के नेताओं के साथ उसका व्यवहार, वंशवाद, भ्रष्टाचार आदि। गिनती और भी लंबी है।

चुनाव की तैयारी के समय उनके पास कई मुद्दे थे जैसे जी20 में बढ़ता वैश्विक कद, महिला आरक्षण, पिछड़ों के लिए राम मंदिर और जाटों तथा पिछड़ों को खुश करने के लिए चौधरी चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न देना। मगर सब कुछ भुला दिया गया। यह मोदी का नया अवतार था जहां वह बचाव करते दिख रहे थे। इस दौरान उन्होंने यह बात ज्यादा नहीं कही कि कैसे अपने 10 साल के कार्यकाल में उन्होंने भारत को महान बनाया है और उसे ज्यादा महान बनाने के लिए क्या उन्हें पांच साल और नहीं मिलने चाहिए?

सच यह है कि मोदी अपने विजयी अश्व से उतरकर अखाड़े की लड़ाई में आ गए। इससे अहम राज्यों में उनकी गति भंग हुई। वह विपक्ष के आरोपों का नाराजगी से जवाब देने लगे। इससे पहले ऐसे मामलों में उनका जवाब कुछ यूं होता था कि ये लोग जवाब देने के लिए लायक भी हैं क्या?

यह केवल संदेश में बदलाव नहीं था। 2024 के मोदी उन तीन सूत्रों पर सवार नहीं थे, जिन्होंने उन्हें दो बार बहुमत दिलाया था और जो हाल ही में ट्रंप को सत्ता में वापस लाए हैं। वह केवल उसे बचाने में लगे थे जो उनके पास था। वह इसमें किसी तरह कामयाब हो पाए और इसीलिए 2019 की 303 सीटें 2024 में सिमटकर 240 ही रह गईं।

चुनावी लोकतंत्र में कैसे काम होता है उसका एक तरीका अब तय हो चुका है। अन्य देशों में भी किसी न किसी तरह यही हावी है क्योंकि राष्ट्रीय गौरव, संस्कृति और पहचान की बातें आर्थिक सरोकारों पर हावी हो जाती हैं।

First Published - November 10, 2024 | 9:37 PM IST

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