लेख

जलवायु संकट से निपटने के लिए सिर्फ वादों से नहीं चलेगा काम, ठोस कदम उठाने की जरूरत

जलवायु संकट से निपटने के लिए केवल वादों से काम नहीं चलेगा, हमें ठोस कदमों के जरिये आगे बढ़ना होगा। बता रहे हैं अरुणाभ घोष

Published by
अरुणाभ घोष   
Last Updated- November 21, 2025 | 9:50 PM IST

करीब 10 दिनों की गहन बातचीत के बाद ब्राजील के बेलेम शहर से यह संदेश स्पष्ट है: हम कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) वार्ताओं के कठिन चरण में हैं। आरंभिक वक्तव्य अब फीका पड़ चुका है और अब जरूरत है कि जलवायु संकट के अनुरूप एक ठोस प्रतिक्रिया तैयार की जाए। लगातार बारिश से हो रहे भूस्खलनों ने इंडोनेशिया और वियतनाम में दर्जनों लोगों की जान ले ली है।

पुर्तगाल एक बवंडर की चपेट में आया और नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन से पता चलता है कि मुंबई में मॉनसून के दौरान होने वाली मौतों में से 8 फीसदी से अधिक बारिश की वजह से होती हैं। इनसे ज्यादातर कमजोर वर्ग के लोग प्रभावित होते हैं। इस वर्ष की पहली छमाही में ही मौसम संबंधी दिक्कतों के कारण 100 अरब डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ। यह भविष्य का जोखिम नहीं बल्कि यह बदलती जलवायु की कठोर हकीकत है।

वर्ष 2015 में हुए पेरिस समझौते के ढांचे ने, जिसमें शीर्ष से नीचे की महत्त्वाकांक्षा और नीचे से ऊपर की ओर कदमों का मिश्रण था, उसने दुनिया को एक दशक पहले के 3-3.5 डिग्री सेल्सियस के विनाशकारी दायरे से नीचे 2.3-2.6 डिग्री सेल्सियस के दायरे में लाने में मदद की है। परंतु एक दशक बाद भी हम वादा करने वालों को ही पुरस्कृत कर रहे हैं न कि वादा निभाने वालों को। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के अंतर्गत प्रक्रियाएं टूटे हुए वादों की एक सूची भर बन रह जाने वाली है।

अब वक्त है कि इसे सार्थक कदमों में बदला जाए। इसके लिए बेलेम में आयोजित कॉप के आखिरी दिनों में तीन काम होने ही चाहिए। पहला और सबसे जरूरी कदम यह है कि हमें विश्वसनीय वित्तीय खाके की आवश्यकता है न कि केवल आंकड़ों की। बाकू से बेलेम तक के खाके का लक्ष्य 2035 तक सालाना 1.3 लाख करोड़ डॉलर के फंड का है। लेकिन जैसा कि भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने हाल ही में कहा शुरुआत ‘नई, अतिरिक्त और रियायती जलवायु वित्त से होनी चाहिए, वह भी अरबों नहीं, लाख करोड़ के पैमाने पर।’

तत्काल और कठिन प्रश्न यह है कि हम वर्तमान 100 अरब डॉलर से पहले 300 अरब डॉलर तक कैसे पहुंचें? हमें एक समयसीमा और धन जुटाने के लिए स्पष्ट दृष्टिकोण चाहिए। पुराने मॉडल की विफलता का एक कारण यह था कि उसमें निजी पूंजी का उपयोग नहीं किया गया। निजी से सार्वजनिक वित्त का अनुपात एक-से-पांच था, जबकि इसे उल्टा होना चाहिए था।

Also Read: विदेश में पढ़ाई करना चाहते हैं? जानें इसके लिए कैसे मिलता है लोन और क्या-क्या है जरूरी

ढांचागत रूप से हमें बड़े पैमाने पर निजी निवेश आकर्षित करने के लिए सार्वजनिक पूंजी का उपयोग करना होगा। इसका अर्थ है विकासशील देशों में उच्च पूंजी लागत के मूल कारणों से निपटना, जिसमें क्रेडिट-रेटिंग एजेंसियों की भूमिका में सुधार शामिल है, जिनके पुराने जोखिम आकलन निवेश को बाधित करते हैं।

दूसरा, हमें अनुकूलन वित्त की खाई को पाटना होगा। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एडाप्टेशन गैप रिपोर्ट ने एक चौंकाने वाली बात कही। इसमें पाया गया कि विकासशील देशों को वर्ष 2035 तक प्रति वर्ष 310 अरब से 365 अरब डॉलर की आवश्यकता होगी, लेकिन 2023 में उन्हें केवल 26 अरब डॉलर मिले। अहम बात है कि इसमें से 58 फीसदी हिस्सा ऋण के रूप में आया, जिससे राजकोषीय संकट और गहरा गया। हम ऋण संकट को और बढ़ाकर जलवायु संकट को हल नहीं कर सकते। अनुकूलन के लिए संकेतकों पर चर्चा देशों को अपनी राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप मापदंड चुनने में सक्षम बनाए और यह सुनिश्चित करे कि रियायती शर्तों पर बड़े पैमाने पर अनुकूलन वित्त की राह मौजूद हो। हमें अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक पूंजी को रियायती शर्तों पर अनुकूलन के लिए लगाने के लिए पुनर्संतुलन करना होगा।

जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता से दूर जाने के खाके पर कोई भी चर्चा बारीकी से होनी चाहिए, न कि कठोर आदेशों जैसी। ब्राजील के राष्ट्रपति लुइस इनासियो लूला दा सिल्वा ने इसकी आवश्यकता पर बात करते हुए ‘निर्भरता’ का उल्लेख किया, जो यह दर्शाता है कि यह केवल ‘गंदी’ बनाम ‘स्वच्छ ऊर्जा’ का साधारण द्वैत नहीं है। निर्भरता में नौकरियां, सार्वजनिक वित्त और पूरे क्षेत्रीय अर्थ तंत्र शामिल हैं। अचानक बदलाव सामाजिक अस्थिरता का जोखिम पैदा करता है।

Also Read: 47% चढ़ सकता है सर्विस सेक्टर कंपनी का शेयर, ब्रोकरेज ने BUY रेटिंग के साथ शुरू की कवरेज

विकासशील देश पांच समानांतर बदलावों का प्रबंधन कर रहे हैं। आधुनिक ऊर्जा तक पहुंच न होने से पहुंच तक, ग्रामीण से शहरी मांग पैटर्न तक, बिना औद्योगीकरण समाप्त किए विकास से सतत विकास तक, वैश्विक बाजारों में कमजोर से मजबूत सौदेबाजी शक्ति तक और केंद्रीकृत से विकेंद्रीकृत डिजिटल ग्रिड तक। राजनीतिक स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि स्वच्छ ऊर्जा पहुंच, आधुनिक ग्रिड, कम वित्तीय लागत और कठिन-से-आसान वाले क्षेत्रों के लिए खुली बौद्धिक संपदा पर आधारित एक हरित अर्थव्यवस्था निर्मित की जाए। यही वह तरीका है जिससे हम श्रम की गरिमा को केवल स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति अंकुश से नहीं, बल्कि आर्थिक सशक्तीकरण के माध्यम से सुरक्षित रखते हैं।

चौथा, कॉप 30 को औपचारिक रूप से कार्रवाई करने वाले संगठनों का समर्थन करना चाहिए और विस्तार करके नई साझेदारियों की संरचना को प्रेरित करना चाहिए। ऐसे नए गठबंधन बनने चाहिए जो हरित तुलनात्मक लाभ का उपयोग करके परस्पर-निर्भर आपूर्ति श्रृंखलाएं बनाएं, महत्त्वपूर्ण खनिजों को सुरक्षित करें और भारी उद्योग का अकार्बनीकरण करें। इसे एक नई साझेदारी को भी बढ़ावा देना चाहिए जो डिजिटल सार्वजनिक अधोसंरचना का उपयोग करके ऊर्जा पहुंच या लचीलापन बढ़ाने के लिए जलवायु निवेश को आगे बढ़ाए, इन पहलों को हाशिये से हटाकर कार्यान्वयन एजेंडा के केंद्र में लाए।

इसी तरह, एकतरफा व्यापार उपायों को भौगोलिक क्षेत्रों में स्वच्छ-ऊर्जा मूल्य श्रृंखलाओं में व्यापक अवसरों को पकड़ने का मार्ग देना चाहिए। भारत इस नए साझेदारी मॉडल में अग्रणी रहा है। ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) के एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि भारत ही एकमात्र विकासशील देश है जिसने कॉप की अध्यक्षता कर चुके देशों के बराबर देशों को संगठित किया है। इस दृष्टिकोण का प्रमाण पहले से ही भारत के अनुभव में दिखाई देता है।

हम जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई कर रहे हैं क्योंकि यह हमारे राष्ट्रीय हित में है, केवल प्रतिबद्धताओं के कारण नहीं। वर्ष2005 से हमारा उर्त्सजन 36 फीसदी से अधिक घट गया है और 2030 तक 48 से 57 फीसदी तक घटने की राह पर है। बाजार डिजाइन, जैसे रिवर्स ऑक्शन, ने लागतों को कम किया जिससे सौर-भंडारण टैरिफ ऐतिहासिक न्यूनतम स्तर पर पहुंचे। सीईईडब्ल्यू के शोध में यह भी गणना की गई है कि पहले से लागू नीतियां इस दशक में उत्सर्जन में चार अरब टन कमी लाएंगी, जो 2023 में यूरोपीय संघ के उत्सर्जन का 1.6 गुना है। परिणाम? हमने केवल पिछले वर्ष ही ऊर्जा बदलाव निवेश में लगभग 50 अरब डॉलर आकर्षित किए। यही है जलवायु वित्त से जलवायु निवेश की ओर वास्तविक बदलाव।

ऊष्मागतिकी के नियम हमारी भू-राजनीति के प्रति उदासीन हैं। कॉप 30 तभी सफल होगा जब हम बहसों के कक्ष से निकलकर निर्माण के युग में प्रवेश करेंगे, जहां केवल वही कूटनीति मायने रखती है जो पूंजी को परियोजनाओं से और समुदायों को लचीलेपन से जोड़ती है। निवेश, सह-विकास, संस्थान-निर्माण और कार्रवाई केंद्रित गठबंधनों पर ध्यान केंद्रित करके हम पेरिस की भावना को पुनर्जीवित कर सकते हैं। हमारे सामने अहम काम अब किसी टूटे हुए तंत्र को ठीक करना नहीं है, बल्कि लगातार प्रगति करना है, इससे पहले कि पृथ्वी हमारे भविष्य पर ताला लगा दे।


(लेखक सीईईडब्ल्यू के मुख्य कार्याधिकारी हैं और काॅप 30 में दक्षिण एशिया के विशेष दूत भी। ये उनके निजी विचार हैं)

First Published : November 21, 2025 | 9:45 PM IST