इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती
देश में निजी कॉरपोरेट निवेश के तीन चिंताजनक लक्षण रहे हैं। पहला, एक मात्रात्मक परीक्षण बताता है कि वर्ष2011-12 में एक ढांचागत रुकावट आई जो अर्थव्यवस्था में निजी निवेश के व्यवहार में बदलाव को रेखांकित करती है। निजी सकल स्थिर पूंजी निर्माण वृद्धि में तेज गिरावट देखी गई और वर्ष2003-12 के 25.2 फीसदी तथा 2003-08 के 40.7 फीसदी से कम होकर वर्ष2012-24 में यह 10.3 फीसदी रह गई।
2011-12 वह वर्ष था जब वृहद आर्थिक बुनियाद की कमजोरी के कारण अनिश्चितता सूचकांक अपने उच्चतम स्तर पर था। उस समय मुद्रास्फीति उच्चतम स्तर पर थी, चालू खाते के घाटे में अस्थिरता थी, बड़े पैमाने पर पूंजी बाहर जा रही थी और विनिमय दर दबाव में थी। भारत को वर्ष 2013 में पांच सबसे नाजुक उभरती अर्थव्यवस्थाओं में गिना जा रहा था।
दूसरा, एक्सिलरेटर प्रभाव (आर्थिक गतिविधियों में इजाफे की प्रतिक्रियास्वरूप निजी निवेश में इजाफा) 2011-12 के बाद तेजी से कमजोर पड़ा है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एक फीसदी की बढ़ोतरी निजी पूंजीगत व्यय में करीब 1.5 फीसदी इजाफे के रूप में सामने आती है। इसके पहले वर्ष 2003-12 में यह वृद्धि करीब 3 फीसदी थी। इससे पता चलता है कि जीडीपी वृद्धि अब निवेश को उतना नहीं बढ़ाती जितना 2011-12 के पहले बढ़ाती थी।
तीसरी बात यह है कि सार्वजनिक पूंजीगत व्यय से निजी निवेश में शायद ही कोई वृद्धि होती है। वर्ष2003-12 के दौरान, सार्वजनिक निवेश और एक वर्ष आगे के निजी निवेश के बीच सहसंबंध 0.54 था, जो 2012-13 के बाद घटकर मात्र 0.13 रह गया है। निजी निवेश में कमी उन क्षेत्रों में सबसे अधिक रही जिनमें सबसे अधिक नुकसान पहुंचने की आशंका है।
उदाहरण के लिए भारी निवेश वाले और रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्र मसलन विनिर्माण, व्यापार और होटल, निर्माण और बिजली जो कि एक साथ मिलकर सकल स्थिर पूंजी निर्माण का करीब 40 फीसदी तैयार करते हैं। निजी कॉरपोरेट निवेश विशुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई की आवक से भी प्रभावित हुआ है। वर्ष 2024-25 में यह जीडीपी का करीब 0.01 फीसदी रहा जो 25
साल का न्यूनतम आंकड़ा है। ऐसा तब हुआ जबकि रिकॉर्ड सकल आवक दर्ज की गई। कमजोर मांग का असर: निजी पूंजीगत व्यय में कमी की वजह घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमजोर मांग रही है। यह क्षमताओं के कमजोर इस्तेमाल के रूप में सामने आया जो 70-75 फीसदी रहा। ध्यान रहे कि यह नए निवेश को गति देने के लिए आवश्यक 80 फीसदी की सीमा से काफी कम रहा। खासतौर पर स्टील, सीमेंट और यात्री वाहन क्षेत्र में क्षमता से कम इस्तेमाल देखने को मिला।
वास्तविक निजी अंतिम खपत व्यय (पीएफसीई) वृद्धि 2012-24 के दौरान 6.1 फीसदी के थोड़े उच्च स्तर पर थी जबकि 2002 से 2012 के बीच यह 6 फीसदी थी। लेकिल नॉमिनल संदर्भ में यह 11.6 फीसदी बनाम 13.5 फीसदी के साथ काफी कमजोर थी। जीडीपी के घटकों के नॉमिनल मूल्यों को वास्तविक रूप में बदलने के लिए इस्तेमाल होने वाले थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) की मुद्रास्फीति दरें 2012-13 के बाद काफी कम रही हैं, जिसके कारण पीएफसीई का आंकड़ा ऊपर चला गया।
इसका अर्थ यह है कि वास्तविक निजी उपभोग उतना मजबूत नहीं रहा है जितना आंकड़ों में दर्शाया गया है, क्योंकि मूल्य सूचकांक के अनुचित उपयोग से आंकड़ों में विकृति आई है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह उत्पादक मूल्य सूचकांक के उपयोग को शीघ्रता से लागू करे और नॉमिनल मूल्यों को वास्तविक रूप में बदलने के लिए दोहरे अपस्फीतिकारक अर्थात् इनपुट और आउटपुट के लिए अलग-अलग डिफ्लेटर्स का प्रयोग करे, ताकि आर्थिक गतिविधियों और उनके प्रमुख घटकों की सटीक तस्वीर प्राप्त की जा सके।
देश में कमजोर निजी खपत में कई कारकों का योगदान रहा है मसलन वेतन भत्तों में कमी, अभी हाल तक उच्च वस्तु एवं सेवा कर दरें और परिवारों की बढ़ती वित्तीय जवाबदेहियां। बाहरी मांग में आई मंदी का असर हमारे गैर-तेल निर्यात पर गंभीर रूप से पड़ा है, जो वर्ष 2012-24 के दौरान नाममात्र रूप में औसतन 8.1 फीसदी प्रति वर्ष की दर से बढ़ा, जबकि 2003-12 के दौरान यह वृद्धि दर 19.9 फीसदी थी। कुल पूंजीगत व्यय में आई सुस्ती का संकेत इससे भी मिलता है कि पूंजीगत वस्तुओं का आयात भी धीमा पड़ गया है।
साफ कहें तो वर्ष 2008 में उत्तर अटलांटिक वित्तीय संकट के बाद सभी उभरते बाजारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में निजी निवेश कम हुआ था। इसके कारणों में अन्य बातों के अलावा धीमा वैश्विक व्यापार और घटती एफडीआई आवक भी शामिल थे। हालांकि भारत में निजी निवेश में तेज गिरावट तीन वजहों से अधिक चिंताजनक है। पहली बात, भारत अन्य उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बाहरी मांग पर उतना निर्भर नहीं करता। दूसरी बात, हालिया लगातार राजकोषीय अनुशासन के बावजूद, आम तौर पर सरकार पूंजीगत व्यय को बढ़ाने में सक्षम रही।
इसलिए, भारत में सार्वजनिक पूंजीगत खर्च में उतनी गिरावट नहीं आई जितनी अन्य उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में देखी गई। तीसरी बात, देश का व्यावसायिक वातावरण अन्य कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कहीं अधिक अनुकूल रहा है। इसका कारण है वित्त तक आसान पहुंच, महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक सुधारों की शुरुआत, और राजनीतिक स्थिरता।
सुधरता परिदृश्य: अब एक दशक से अधिक समय हो गया है जब निजी निवेश की वृद्धि दर कमजोर बनी हुई है। हालांकि, हाल की कई घटनाएं इसके पुनरुद्धार के लिए सकारात्मक संकेत देती हैं। चूंकि निजी पूंजीगत व्यय में मंदी का मूल कारण कमजोर मांग रहा है, सरकार ने निजी उपभोग को बढ़ावा देने के लिए सराहनीय कदम उठाए हैं। पहले पिछले केंद्रीय बजट में प्रत्यक्ष कर राहत प्रदान करके, और बाद में जीएसटी दरों को तर्कसंगत बनाकर।
कंपनियों ने अपने कर्ज का बोझ कम किया है और बैंकों ने अपनी बहीखाते को साफ किया है। ब्याज दरों में उल्लेखनीय गिरावट आई है, और बैंकिंग प्रणाली में पर्याप्त नकदी उपलब्ध है। प्राथमिक पूंजी बाजार से संसाधनों की जुटान 2019-20 के बाद से काफी बेहतर हुई है। कुल आयात में पूंजीगत वस्तुओं की हिस्सेदारी हाल के वर्षों में बढ़ी है। निवेश के दृष्टिकोण से एकमात्र प्रमुख चिंता का विषय वैश्विक वृहद आर्थिक और भू-राजनीतिक अनिश्चितता है।
लब्बोलुआब यह है कि निजी पूंजीगत व्यय के चक्र के लिए मांग में सतत वृद्धि और अनुकूल कारोबारी माहौल दोनों आवश्यक हैं। ऐसे में हाल ही में जीएसटी दरों को युक्तिसंगत बनाना सरकार द्वारा उठाया गया एक अहम कदम है जो निजी उपभोग को बढ़ा सकता है। इसके बाद साझा लाभ को ध्यान में रखते हुए अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौते को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इसके अलावा उन क्षेत्रों को चिह्नित करने की आवश्यकता है जिनमें ढांचागत सुधारों की मदद से उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है और कारोबारी जगत में उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है।
(लेखक क्रमश: सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस में वरिष्ठ फेलो और शोध सहायक हैं। यह उनके निजी विचार हैं)