उत्तर पूर्व के पहाड़ी क्षेत्रों में ‘संयुक्त वन प्रबंधन'(जेएफएम) की हुकुमत जोर पकड़ रही है। यह प्रबंधन समिति इन राज्यों में बसने वाले समुदायों की जमीनों को जब्त कर रही है।
इसी वजह से इन पहाड़ी राज्यों खास तौर पर मणिपुर के आदिवासियों में असंतुष्टि है। वे अपनी जमीन को छोड़ना नहीं चाहते।ये समूह 1996 में सुप्रीम कोर्ट के दिए आदेशों में कुछ बदलाव चाहते हैं। इस आदेश के मुताबिक समुदायों की कब्जे वाली जमीन को राज्य वन विभाग को अपने नियंत्रण में ले लेना चाहिए और इस जमीन को वन संरक्षित घोषित कर देना चाहिए।
इन समूहों का यह आरोप है कि जबसे यूपीए सरकार की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ के तहत वन विभाग के लिए ज्यादा फंड मुहैया कराया जा रहा है तब से अचानक ही जेएफएम का यह आदेश थोपा जाने लगा है। 1996 में टी. एम. गोर्वधन बनाम भारत सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में राज्य को गांव स्तर पर संयुक्त वन प्रबंधन समिति क ो बनाने की थी। साथ ही, जंगल पर से इन समुदायों क ी दखल को खत्म करने और इसे संरक्षित करने की बात की गई।
कुछ दिन पहले ‘ऑल ट्राइबल लॉयर्स एसोसिएशन, मणिपुर’ और ‘नागा पीपुल्स मुवमेंट फॉर ह्युूमन राइट्स इन इंफाल’ ने एक कांफ्रेस आयोजित कराया, जिसमें इन आदिवासियों ने शिरकत की । ये आदिवासी विकास परियोजनाओं को थोपे जाने से बेहद खफा थे। उनका कहना था कि राष्ट्रीय, सार्वजनिक हित और लुक ईस्ट पॉलिसी के नाम पर चल रही इन योजनाओं से समाज और पर्यावरण को नुकसान हो रहा है।
इन संगठनों का कहना था कि वे 1996 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश में बदलाव के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास ही जाएंगे क्योंकि यह आदेश वास्तव में न तो संरक्षण,न भारत के आदिवासियों और न ही मणिपुर के हित में है। उनके मुताबिक जेएफएम के इस अभियान को खत्म कर देना चाहिए। मणिपुर के निर्दलीय सांसद मनिरत्नम माय का कहना है कि यह कमिटी वन अधिकारियों और गांव के सदस्यों क ी अगुवाई में चल रहा है। उन लोगों ने गांववालों को पौधे लगाने की इजाजत तो दे दी है, लेकिन इन जंगलों से कुछ भी लेने की इजाजत उन्हें नहीं है।
मणिपुर सरकार ने पांच पहाड़ी जिलों के गांवों में जेफएम कमिटी का गठन किया है। अगर यहां के जंगल को अपने अधिकार में लेने की कोशिश होगी तब इसका विरोध भी जरूर होगा। माय कहते है, ‘अदालत को इस धारा को बदल देना चाहिए और यह आदेश देना चाहिए कि जंगल गांववालों के द्वारा संरक्षित किया जाना चाहिए न कि सरकार इस पर कब्जा करे।’
माय को अदालत के दखल से कोई ऐतराज नहीं है लेकिन वह मेघालय के उस पहल को नहीं भूलते जिसमें स्थानीय उपायों के जरिए जंगल को सुरक्षा देने पर जोर दिया गया था, जिसे अदालत ने अस्वीकार कर दिया था। उनका कहना है कि इसमें सख्ती बरतने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि जब तक गांववाले सहयोग नहीं करेंगे तब तक यह सफल नहीं हो सकता।
मणिपुर के समुदायों का कहना है कि राज्य वन विभाग गुप्त रूप से यह दावा कर चुकी है कि राज्य के जंगल का 78 प्रतिशत हिस्सा मणिपुर में है। इसी दावे के आधार पर वन विभाग ने बॉडर रोड टास्क फोर्स पर करोड़ों रुपये का दावा ठोक दिया है क्योंकि इन पहाड़ी इलाकों में रोड बनाने में कई पेड़ाें का नुकसान होता है। इन समूहों के मुताबिक वन विभाग विभिन्न वन उत्पादों पर टैक्स लगा रही है।
इसके अलावा, अब बेंत और बांस के पौधों को लगाने के लिए भी अनुमति की जरूरत होगी। इन्हें कृषि मंत्रालय के बंबू मिशन पर भी ऐतराज है जिसमें आदिवासियों के अधिकार को राज्य के हवाले कर दिया गया है।
माय का कहना है कि किसी चीज को थोपने के बजाय मौजूदा ग्राम परिषद में वन समितियों को बनाकर एक मध्यमार्ग का रास्ता बनाया जा सकता है। अगर समुदायों की जमीनों पर कब्जा कर को संरक्षित जंगल करार दिया जाएगा तब गांव के लोग अपने लगाए हुए पेड़ों को भी छू नहीं सकेंगे।