कोई भी वर्तमान सरकार पर यह आरोप नहीं लगा सकता है कि वह अपनी सामाजिक प्राथमिकताओं में तेजी से बदलाव कर रही है। 2014 में मौजूदा सरकार के कार्यकाल के पहले दिन से लेकर अब तक भारतीय गणराज्य की दिशा एकदम स्पष्ट रही है: हम अधिक बहुसंख्यकवादी और सांस्कृतिक दृष्टि से रूढि़वादी राष्ट्र की अवधारणा की ओर बढ़े हैं।
परंतु इस दिशा में बढ़ने को शायद ही ‘प्रगति’ कहा जा सकता है। यह गति उतनी भी तेज नहीं रही है जितनी कि इस सरकार के मुखर समर्थक शायद अपेक्षा करते होंगे। बहरहाल, देश के नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर हुए आयोजनों और उसके इर्दगिर्द बने मिथकों के बीच इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाया गया है।
कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि भारत की राजनीति में आए सांस्कृतिक बदलाव को पहचानना मुश्किल रहा है। अतीत में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी तो उसकी सामाजिक-रूढि़वादी प्राथमिकताएं थीं- खासतौर पर मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व वाले मानव संसाधन विकास ने पाठ्य पुस्तकों को नए सिरे से लिखने का सिलसिला शुरू किया।
बहरहाल वाजपेयी का अपना व्यक्तित्व और राजग-1 की गठबंधन की प्रकृति ने उन कदमों को सीमित कर दिया। 2014 में जब भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ तो यह आशा करना उचित ही था कि वह अपने पिछले कार्यकाल की तुलना में कहीं अधिक कठोर रुख अपनाएगी।
वाकई में दक्षिणपंथ की लंबे समय से लंबित कई प्राथमिकताओं पर काम शुरू भी किया गया। जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किया गया और एक समय जिस जगह पर बाबरी मस्जिद स्थित थी वहां मंदिर बनाने को विधिक मंजूरी मिल गई। परंतु समान नागरिक संहिता की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई। ध्यान रहे यह भारतीय जनता पार्टी की तीन शीर्ष प्राथमिकताओं में शामिल रही है। वहीं देशव्यापी विरोध के बाद नागरिकता संशोधन अधिनियम को खामोशी से प्राथमिकता से बाहर कर दिया गया।
यकीनन भारत की सार्वजनिक संस्कृति में ऐसे अनेक बदलाव आए हैं जिनके माध्यम से कहा जा सकता है कि बीते कुछ वर्षों में उसने बहुसंख्यकवाद के समक्ष समर्पण कर दिया है। लेकिन इनमें से कई व्यक्तियों या संस्थानों के निजी चयन रहे हैं और उन्हें किसी भी तरह कानूनी या संहिताबद्ध नहीं बनाया गया। 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिली भारी भरकम जीत के बाद कम धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की स्थापना किए जाने की आशंका थी लेकिन इस दिशा में पूरी गति से काम नहीं हुआ।
अब यह देख पाना संभव है कि यह पुन:स्थापित दूसरा गणराज्य किस तरह का नजर आएगा। प्रधानमंत्री द्वारा नए संसद भवन का उद्घाटन किया जाना अध्यक्षीय और धार्मिक प्रकृति का था। वास्तविक राष्ट्रपति कहीं दिखाई नहीं पड़ीं, हालांकि नागरिक शास्त्र की पुस्तकें हमें यही सिखाती हैं कि भारत की संसद के दोनों सदन भारत के राष्ट्रपति से बनते हैं।
नई संसद के उद्घाटन समारोह में लोकसभा अध्यक्ष को प्रधानमंत्री के सहयोगी के रूप में दर्शाया गया जबकि देश की संसद के एक सदन के पीठासीन अधिकारी के रूप में उनकी भूमिका कहीं अधिक केंद्रीय होनी चाहिए थी। क्या मौजूदा प्रधानमंत्री की निर्विवाद लोकप्रियता के परे ऐसा वैयक्तीकरण अपिरहार्य था? दुनिया के जिन देशों ने बहुसंख्यकवाद का रुख किया और उदार लोकतंत्र से दूरी बनाई वहां अक्सर संसदीय प्रणाली को लोकप्रिय ढंग से निर्वाचित कार्यकारी राष्ट्रपतियों के कार्यकाल से प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया गया है।
तुर्किये इसका सटीक उदाहरण है जिसने भारत जैसे ही राजनीतिक दबाव में इस तरह का बदलाव किया है। भारत में भी यह बहस कतई नई नहीं है। पिछली बार जब एक राजनेता ने समूचे राजनीतिक परिदृश्य पर दबदबा बनाया था तो वह सन 1970 का दशक था। उस समय भी राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने को लेकर खुलकर आवाज बुलंद की गई थी।
धार्मिक छवि की बात करें तो हम सभी ने देखा कि कैसे भारतीय गणराज्य की स्थापना के सिद्धांतों की अनदेखी की गई। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन संस्थापक सिद्धांतों को भी नए सिद्धांतों से प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया गया। सन 2014 में जब नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री ने काशी विश्वनाथ मंदिर की यात्रा की थी तो ऐसा दृश्य बना था मानो वह मंदिर का उद्घाटन समारोह हो। हाल के दिनों की बात करें तो 2021 में काशी कॉरिडोर की शुरुआत के समय भी ऐसा ही माहौल था।
परंतु इन कोशिशों को भारत की संसद तक ले आना एक नयी परिपाटी है। जाहिर सी बात है कि एक नए गणराज्य की स्थापना के लिए नए मिथकों की भी आवश्यकता होगी। लंबे समय से भुला दिए गए ‘राजदंड’ की खोज इस जरूरत में एकदम सटीक बैठती है। एक खास तमिल धार्मिक समुदाय द्वारा देश के प्रथम प्रधानमंत्री को तोहफे के रूप में दिए गए राजदंड को ‘सत्ता हस्तांतरण’ के प्रतीक में बदलकर धार्मिक स्वरूप प्रदान कर दिया गया। यह वह प्रतीक है जिसे देश के आरंभिक धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने आम जनता से प्राय: विस्मृत करवा दिया था। नए गणराज्य को वैधता प्रदान करने के लिए ऐसे तमाम नए मिथकों की आवश्यकता होगी।
भुला दिए गए शाही या धार्मिक उत्सव की बात करें तो देश की धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक परंपरा से पीछे हटने की प्रक्रिया में ये आवश्यक है। रेचेप तैय्यप एर्दोआन ने भी तुर्किये में ऑटोमन रूढि़यों का विशेषज्ञता के साथ इस्तेमाल किया। रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन द्वारा किए जाने वाले उद्घाटनों में भी जारशाही की झलक महसूस की जा सकती है। हाल ही में शी चिनफिंग ने थंग साम्राज्य के चित्र के साये में एशियाई नेताओं का स्वागत किया। हमें इस दूसरे भारतीय गणराज्य से भी इससे कम किसी चीज की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।