सन 1940-50 के दौर में जन्मे लोग शायद उस दौर के लिए सबसे खुशकिस्मत रहे होंगे। जरा विचार कीजिए कि उस समय विश्व स्तर के सकारात्मक रुझानों ने उन्हें किस कदर लाभान्वित किया होगा। दूसरे विश्व युद्ध के समापन के बाद 78 वर्षों तक कोई वैश्विक संघर्ष नहीं हुआ। आधिकारिक तौर पर यह विश्व शांति का सबसे लंबा दौर रहा।
यकीनन इस बीच छोटी-छोटी जंग हुईं और वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका और यूक्रेन में रूस की कार्रवाई इसका उदाहरण हैं। पश्चिम एशिया और अफ्रीका में कई असैन्य संघर्ष भी देखने को मिले लेकिन दुनिया की आबादी का बड़ा हिस्सा करीब आठ दशकों से शांत है।
सन 1946 से 1966 के बीच के 20 वर्षों में एशिया और अफ्रीका औपनिवेशिक दासता से मुक्त हुए और वहां के देशों में स्वशासन तथा उससे जुड़े लाभ दुनिया के सामने आए।
सन 1950 के बाद वस्तुओं एवं सेवाओं के अंतरराष्ट्रीय कारोबार का अबाध और दीर्घकालिक विस्तार हुआ और उसके साथ ही तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति भी हुई। इनकी बदौलत दुनिया ने भौतिक समृद्धि में नए मुकाम तय किए। जन स्वास्थ्य सुविधाओं के तेज विस्तार और आधुनिक दवाओं और शिक्षा में इजाफे ने भी समृद्धि और लोगों की बेहतरी को गति प्रदान की है।
कुछ संकेतकों की बात करें तो संयुक्त राष्ट्र के आबादी संबंधी आंकड़ों के मुताबिक जन्म के समय वैश्विक जीवन संभाव्यता 1950 के 45 से बढ़कर 2022 में 73 पहुंच गई। सर्वाधिक आबादी वाले दो देशों में यह दोगुनी हो गई। भारत में यह 35 से 70 और चीन में 43 से 77 तक पहुंच गई। विश्व बैंक के गरीबी और असमानता प्लेटफॉर्म को देखें तो दुनिया में अत्यधिक गरीबों की संख्या 1990 के 38 फीसदी से कम होकर 2019 में 10 फीसदी रह गई। पूर्वी एशिया में यह 65 फीसदी से कम होकर एक फीसदी रह गई है।
इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस क्षेत्र में उत्पादन और वृद्धि में किस कदर तेजी आई। दक्षिण एशिया में यह 50 फीसदी से घटकर 10 फीसदी के भीतर, सब सहारा अफ्रीका में 55 फीसदी से 35 फीसदी, लैटिन अमेरिका में 17 फीसदी से चार फीसदी रही गई।
यकीनन इस बीच अकाल भी आए, बीमारियां भी फैलीं, लोगों के समूह ने एक दूसरे को अधीन किया, आतंकवाद की घटनाएं घटीं, लोगों और उनके समक्ष अवसरों में जबरदस्त असमानता देखने को मिली। इसके अलावा भी बुरी चीजें घटित हुईं। उन सभी को असाधारण भौतिक मानव प्रगति के समक्ष रखकर देखना होगा।
आश्चर्य नहीं कि 1940-50 के दशक में भारत तथा दुनिया के अधिकांश हिस्सों में ऐसी एक दिशा में होने वाली प्रगति को हल्के में लिया जाने लगा। वास्तव में उन्हें बढ़ती आकांक्षाओं की क्रांति के दौर में किसी कम चीज की अपेक्षा ही नहीं रही।
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बहरहाल इस भौतिक प्रगति की पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों को भारी कीमत चुकानी पड़ी और इससे पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बुरी तरह बिगड़ गया। इस सदी में इसकी कीमत साफ नजर आने लगी। 200 सालों से निरंतर जीवाश्म ईंधन जलाने के कारण (खासकर औद्योगिक देशों में) तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने वैश्विक तापवृद्धि और जलवायु परिवर्तन के गंभीर संकट उत्पन्न किए।
पृथ्वी का बड़ा हिस्सा इतना गरम हो गया है कि वहां रहना मुश्किल है। समुद्र में बढ़ती गर्मी समुद्री जीवों को प्रभावित कर रही है और निचले तटवर्ती इलाकों में बाढ़ आ रही है। बढ़ता वायु प्रदूषण स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहा है। बीमारियां फैलने वाले वायरस बढ़ रहे हैं और नई महामारियों की आशंकाओं को बल मिल रहा है।
हाल के वर्षों में मौसम में भारी उतार-चढ़ाव आने लगा है। बाढ़, सूखा, तूफान और जंगलों में आग की घटनाओं में नाटकीय वृद्धि हुई है। इसकी वजह से लोगों की जिंदगी और आजीविका को गहरी क्षति पहुंची है। इन समस्याओं को हल करने के लिए जरूरी कदम उठाने की आवश्यकता है। इनके बारे में सब जानते हैं लेकिन इसके लिए जरूरी राजनीतिक प्रतिबद्धता की कमी है।
वर्ष 2008-10 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद विश्व की आर्थिक वृद्धि में धीमापन आया है और ताकतवर देश मुक्त अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य को लेकर अपनी प्रतिबद्धताओं को शिथिल करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। यह आंशिक तौर पर भूराजनीतिक रुझानों के कारण है और आंशिक तौर पर इसलिए कि उन लोगों का घरेलू राजनीतिक प्रतिरोध बढ़ा है जो या तो वैश्वीकरण से प्रभावित हुए हैं या जिन्हें उसके लाभ नहीं मिले हैं।
2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप को जीत मिलने के बाद संरक्षणवाद बढ़ा और और विश्व अर्थव्यवस्था में भी विभाजन बढ़ा। उसी वर्ष यूनाइटेड किंगडम में ब्रेक्सिट पर जनमत संग्रह के बाद वहां भी इस पर जोर बढ़ा। यूक्रेन युद्ध और शी चिनफिंग के अधीन चीन की बढ़ती युद्धप्रियता के बाद नए भूराजनीतिक समीकरण ने भी इसे मजबूती दी। भारत में यानी व्यापारिक उदारीकरण को चौथाई सदी बीतने के बाद संरक्षणवाद बढ़ने लगा।
इंसानी बेहतरी और गरिमा के नजरिये से आर्थिक वृद्धि अहम है लेकिन बेहतर रोजगार के अवसर तो और भी महत्त्वपूर्ण हैं। अक्सर वृद्धि और रोजगार में आपसी संबद्धता नहीं नजर आती। उदाहरण के लिए 2011-12 और 2017-18 के बीच भारत की जीडीपी वृद्धि औसतन सात फीसदी रही।
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बहरहाल, आधिकारिक रोजगार आंकड़ों के अनुसार समय के साथ बेरोजगारी तेजी से बढ़कर छह फीसदी हो गई। 15 से 29 वर्ष के युवाओं की बेरोजगारी तीन गुना बढ़कर 18 फीसदी हो गई, महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी 43 फीसदी से घटकर 23 फीसदी रह गई और सभी वयस्कों के लिए रोजगार दर 55 फीसदी से घटकर 47 फीसदी रह गई। तब से अब तक इन अनुपातों में सुधार हुआ है लेकिन बड़े एशियाई देशों की तुलना में यह अभी भी पीछे है। अभी हाल ही में चीन में युवा बेरोजगारी दर 20 फीसदी से अधिक हो गई। वहां सरकार ने इन आंकड़ों का प्रकाशन ही रोक दिया।
हाल के दशकों में दुनिया भर में तकनीकी प्रगति ने स्पष्ट रूप से श्रम की बचत को लेकर पूर्वग्रह दर्शाया है। रोबोटिक्स का प्रसार, 3डी प्रिंटिंग और कई अन्य डिजिटल तकनीकों ने कम कुशल श्रमिकों की असुरक्षा बढ़ा दी है। हाल के समय में आर्टिफिशल इंटेलिजेंस में तेज प्रगति ने उच्च कौशल वाली श्रेणियों को भी ऐसी ही असुरक्षा से भर दिया है।
लब्बोलुआब यह कि 1960 से 2000 तक के दशकों की तुलना में आज जलवायु परिवर्तन की चुनौती, अधिक भंगुर वैश्विक आर्थिक व्यवस्था और अच्छे रोजगारों की बढ़ती कमी नई विश्व व्यवस्था पर गहरा असर डाल रहे हैं। बढ़ता ध्रुवीकरण और दुनिया के अमीर तथा ताकतवर देशों में प्रमुख अमेरिका में राजनीतिक सक्रियता की कमी ने हालात और बिगाड़ दिए। शायद 1940-50 के दौर के लोग सबसे अधिक खुशकिस्मत नहीं रहे हों लेकिन हालिया दशकों को देखें तो वे सबसे खुशकिस्मत जरूर प्रतीत हो सकते हैं।
(लेखक इक्रियर के मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)