लंबे समय तक चला बहुत ही उबाऊ और थकाऊ लोक सभा चुनाव संपन्न हो चुका है। पूरे चुनाव के दौरान कुछ नए मुद्दे सुनने को मिले तो कई असाधारण उम्मीदवार भी राजनीतिक पटल पर उभर कर सामने आए।
पूरे चुनाव के दौरान आचार संहिता लगी होने के कारण नीतियां और कानून बनाने का काम भले ठप रहा, लेकिन यह नेताओं को बड़ी-बड़ी बातें करने से नहीं रोक पाई, जबकि चुनावी प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही गलतबयानी पर सख्ती से अंकुश लगाया जाना चाहिए था।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में चुनाव बहुत ही जटिल प्रक्रिया से गुजरते हैं और मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि बड़ा देश होने का तर्क देकर चुनाव प्रक्रिया को लंबा खींचा जाए। ज्यादा दिनों तक चुनाव में उलझे रहने से उभरने वाली चिंताओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भलीभांति अवगत हैं।
इसलिए वह इससे छुटकारा पाने के लिए प्राय: ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की वकालत करते हैं। गृहमंत्री तो ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की व्यवस्था को लेकर इतने आश्वस्त हैं कि वह नई सरकार बनने पर इसे लागू करने की बात डंके की चोट पर कहते आए हैं।
लंबी चुनावी प्रक्रिया से छुटकारा दिलाने के लिए ‘एक देश, एक चुनाव’ का फॉर्मूला अपनाना ‘बीमारी से ज्यादा भयावह इलाज’ साबित हो सकता है। इसके कई कारण हैं। भारत में शासन के कई स्तर हैं। प्रशासनिक मोर्चे पर भी बहुत सी चुनौतियां हैं। इसलिए हमें कम से कम समय में संपन्न हो जाने वाली चुनावी प्रक्रिया की आवश्यकता है, लेकिन साथ ही, ये भी महत्त्वपूर्ण है कि वे सार्थक हों।
चुनाव प्रचार के दौरान एक बात तो पूरी तरह स्पष्ट हो गई है। मतदाता विधान सभा और लोक सभा के लिए अलग-अलग तरीके से होने वाले मतदान से बहुत खुश नजर आते हैं। वे इस बात को भलीभांति समझते हैं कि दोनों तरह के चुनावों में अलग-अलग प्रकृति के कौशल और नीतिगत व्यवस्था की आवश्यकता होती है। इससे मतदाता नीतियों को लेकर अपनी असहमति या नाराजगी का संदेश राजनीतिक वर्ग तक आसानी से पहुंचा पाते हैं।
लोक सभा और विधान सभा के चुनावों को एक साथ संपन्न कराने से मतदाताओं को मिलने वाली यह सुविधा समाप्त हो जाएगी। राज्य सरकारों का आकलन उनके अपने कामों के आधार पर होना चाहिए न कि इस बात पर कि दिल्ली की सत्ता संभालने वाली पार्टी ने पूरे कार्यकाल के दौरान कितना अच्छा या बुरा कार्य किया है।
वास्तव में, हमें एक नहीं, कई चुनावों की आवश्यकता है। भारत में स्थानीय चुनाव उसी स्तर पर संपन्न कराए जाने चाहिए, जैसे वे अन्य जगह होते हैं। इसके लिए स्थानीय निकायों को कर वसूली करने और नीतियां बनाने के लिए अधिक शक्तियों की जरूरत होगी। पंचायती राज व्यवस्था देने वाला संविधान का 73वां संशोधन जल्दबाजी में लाया गया अधूरा कानून है। दरअसल, इसमें आधे-अधूरे नियम कायदे हैं और आधी-अधूरी व्यवस्था हमेशा असफल रहती है।
इसमें उन नीतिगत क्षेत्रों को सूचीबद्ध किया गया है, जिन्हें राज्य शासन के तीसरे स्तर पर हस्तांतरित कर सकते हैं, लेकिन इसमें किसी भी हस्तांतरण को अनिवार्य नहीं बनाया गया है। नतीजतन, सभी राज्यों ने स्थानीय निकाय तो बनाए हैं, लेकिन उन्हें बहुत अधिक शक्तियां या करने के लिए कार्य नहीं दिए हैं। इसके बजाय वे कार्य राज्य की राजधानी में गैर-जिम्मेदार एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र में रख दिए गए हैं।
मतदाताओं के सामने स्पष्ट मुद्दे होने चाहिए, जिनके आधार पर वे वोट दे सकें। इसी प्रकार जनप्रतिनिधियों के लिए चुनाव होना बहुत जरूरी है, ताकि जीतने के बाद वे आम जन के उन मुद्दों को हल करने की दिशा में काम कर सकें, जिनके लिए उन्हें चुना गया है। संसद सदस्य के लिए मतदान करने से संस्थागत रूप से अपने समुदाय में सार्वजनिक सेवाओं के लिए जवाबदेही का स्तर बदलने में बहुत कम मदद मिल पाती है। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था ऐसी है कि इसमें इस प्रकार के दोष एक राष्ट्र, एक चुनाव की व्यवस्था लागू होने पर जारी रहेंगे।
एक पूर्ण और स्वस्थ लोकतंत्र में प्रशासन की तीसरे स्तर की व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए अर्थपूर्ण नियमित चुनाव कराना बहुत ही आवश्यक है। व्यवस्था ऐसी हो कि यदि हमारी सड़कें और नालियां अच्छी नहीं बनी हैं, तो उसके लिए जिम्मेदार जनप्रतिनिधि को हम चुनाव के जरिये बदल दें।
आज यदि संस्थाएं ठीक तरीके से काम नहीं करती हैं तो हम किस पर गुस्सा निकालें। यह अस्थायी रूप से संतुष्टिप्रद हो सकता है, लेकिन कार्यगत स्तर पर इसका कोई तर्क नहीं है।
लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया केवल सार्वजनिक सेवाओं और शासन की गुणवत्ता के लिए ही जवाबदेही प्रदान नहीं करती है बल्कि यह लोगों को अपनी आवाज उठाने का मौका देती है और एक ऐसा मंच प्रदान करती है जहां लोग खुलकर अपनी पहचान के लिए लड़ सकें।
लेकिन भारतीय समाज स्थानीयता, जाति, धर्म, भाषा और राष्ट्रीयता जैसी अनेक विविधताओं से भरा है। ऐसे देश में जब अलग-अलग समय और सरकार के अलग-अलग स्तर पर कई चुनाव होते हैं तो लोग पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने मुद्दों के लिए आवाज बुलंद करते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि समाज में न केवल शांति स्थापित होती है बल्कि, लोग एकजुट भी होते हैं।
इन तमाम अवसरों को जब एक चुनाव के जरिये एकल व्यवस्था में केंद्रित कर दिया जाएगा तो इससे हालात बेहतर होने के बजाय बदतर होंगे। पहचान का संघर्ष खत्म होने के बजाय और तीव्र होगा। यह संभव है कि एक या दूसरी पार्टी अस्थायी तौर पर फायदे में रहे, लेकिन चुनाव ही न हो, यह तो किसी के भी हक में ठीक नहीं होगा।
खासकर इस साल की लंबी और थकाऊ चुनावी प्रक्रिया को देखकर एक देश, एक चुनाव का नारा देने के तर्क को समझा जा सकता है। लेकिन, काफी कुछ केंद्र में नई सरकार पर निर्भर करेगा। संसद को चुनावी व्यवस्था में अनावश्यक और अनुत्पादक बदलावों में उलझकर असली मुद्दों से भटकना नहीं चाहिए।
यदि संसद वास्तव में मतदान प्रक्रिया में सुधार करना चाहती है, तो उसे पंचायती राज व्यवस्था को और अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए विभिन्न दलों में आम सहमति बनानी होगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आम चुनाव की प्रक्रिया कई सप्ताह तक न चले। अवश्य ही इसकी अवधि छोटी होनी चाहिए।