भारत के निर्यात में आईटी तथा उससे संबद्ध सेवा क्षेत्र का प्रदर्शन अन्य क्षेत्रों की तुलना में बेहतर रहा है। इसके व्यापक रुझान के बारे में जानकारी प्रदान कर रहे हैं अजय शाह
निर्यात की गतिशीलता आज के भारत के लिए खासतौर पर महत्त्व रखती है। इस मामले में दो क्षेत्र एकदम अलग नजर आते हैं: आईटी निर्यात और अन्य कारोबारी सेवाएं। ये दो ऐसे क्षेत्र हैं जहां भारत का प्रदर्शन अच्छा रहा है। इनका आकार उल्लेखनीय हो रहा है। निजी और सरकारी क्षेत्रों के निर्णय लेने वाले इस व्यापक रुझान से लाभान्वित हो सकते हैं।
खपत, निवेश और सरकारी व्यय, सभी को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। भारत में सेवा निर्यात सबसे उम्मीद भरा क्षेत्र है। भारत में निर्यात का आकलन अमेरिकी डॉलर में करते आए हैं ताकि मुद्रास्फीति की समस्या आड़े न आए। परंतु अमेरिका में भी हाल के वर्षों में मुद्रास्फीति की स्थिति ठीक नहीं रही है। इसलिए हमने 2012 के अमेरिकी डॉलर के वास्तविक संदर्भों में मूल्यांकन किया है।
निर्यात कुल मिलाकर 2.9 फीसदी (मुद्रास्फीति समायोजित अमेरिकी डॉलर में) की चक्रवृद्धि दर से बढ़ा। इसे दोगुना होने में तकरीबन 23 वर्ष की अवधि लगेगी, वहीं वस्तु निर्यात सालाना 1.2 फीसदी की चक्रव़ृदि्ध दर से बढ़ा जो इस दर से 56 वर्ष में दोगुना होगा।
निर्यात की गतिशीलता सेवा क्षेत्र में निहित है। सेवा क्षेत्र कुल निर्यात सालाना 5.7 फीसदी की चक्रवृद्धि दर से बढ़ा जो इस गति से 12 वर्ष में दोगुना होगा। यहां महत्त्वपूर्ण बात है अन्य कारोबारी सेवाएं जो सालाना 8.7 फीसदी की चक्रवृद्धि दर से बढ़ी, जो आठ वर्ष में दोगुना होगी।
भारत को काफी लंबे समय से आईटी और आईटी सक्षम सेवा क्रांति के लिए जाना जाता है। सिटीकॉर्प ओवरसीज सॉफ्टवेयर लिमिटेड (सीओएसएल) सन 1980 के दशक के मध्य में एसईईपीजेड में फलफूल रही थी और इन्फोसिस का आईपीओ सन 1994 में आया। लेकिन अब जबकि उस दौर के दिग्गज भी अपने-अपने करियर के एकदम आखिरी पड़ाव पर पहुंच रहे हैं, आईटी क्रांति के तोहफे लगातार सामने आ रहे हैं। आईटी सबसे बड़ा उद्योग बन गया है और उससे होने वाले निर्यात में लगातार इजाफा जारी है। भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक विचार है भारतीय मानव संसाधन के ऊपरी क्रम का इस्तेमाल करके उत्पादन के लिए सस्ते श्रमिकों की तलाश करना और आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन यानी ओईसीडी के सदस्य देशों में उसकी बिक्री करना।
आईटी तथा ‘अन्य कारोबारी सेवाओं’ को शामिल करने पर हमारा सालाना निर्यात करीब 310 अरब डॉलर का है। अकेले इन दोनों क्षेत्रों से सालाना 300 अरब डॉलर का निर्यात हासिल करना एक अत्यंत उल्लेखनीय संभावना है। भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार को देखें तो यह आंकड़ा बहुत बड़ा है।
इसका निजी क्षेत्र के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण अर्थ है। फिर चाहे हमें गैर वित्तीय कंपनियों की कारोबारी योजना पर विचार करें या फिर वित्तीय कंपनियों को लेकर उद्योग जगत के एक्सपोजर पर, यह परिदृश्य निर्यात आधारित आईटी और आईटी सक्षम सेवाओं के महत्त्व पर जोर देता है। फिर चाहे यह प्रत्यक्ष रूप से हो या सहवर्ती कार्यक्रमों की सहायता से।
सेवा निर्यात की इस कहानी में दरें निर्धारित करने वाला कदम मानव संसाधन में निहित है। इस श्रम शक्ति के सभी तत्त्व ज्ञान की पर्याप्तता की समस्या से जूझ रहे हैं। आम लोग, सेवा नियोक्ता और ज्ञान आधारित संस्थानों को ज्ञान को हासिल करने और फैलाने पर जोर देने की आवश्यकता है ताकि देश में बड़ी तादाद में ऐसे लोग तैयार हो सकें जो विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों में इंजीनियरिंग तथा अन्य क्षेत्रों में उच्च रोजगार हासिल कर सकें। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी शोध को लेकर फंडिंग मुहैया करा सके जो स्वायत्त अथवा निजी ज्ञान संस्थानों को दी जा सकती है। यह काम बिना प्रबंधन के नियंत्रण, केंद्रीकरण अथवा नियमन के होना चाहिए।
वस्तु निर्यात के क्षेत्र में कमजोर प्रदर्शन नीति निर्माताओं द्वारा विगत 20 वर्षों में अपनाए गए तौर तरीकों को लेकर सवाल पैदा करता है। वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी में इजाफा हुआ है। यह इजाफा चीन के साथ दुनिया की संबद्धता में आई कमी के साथ ही देखने को मिला है लेकिन यह पहलू निर्यात की सफलता के लिए पर्याप्त नहीं है। जरूरत इस बात की है कि रणनीतिक सोच अपनाया जाए और नीतियों को नए सिरे से तैयार किया जाए।
कर व्यवस्था में बड़े पैमाने पर बदलाव की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए उपकरों को समाप्त करना और आयात पर एकदम सहज जीएसटी तथा निर्यात पर कोई जीएसटी न होना। मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) को लेकर हो रही गतिविधियों के कारण व्युतक्रम शुल्क ढांचे (वह ढांचा जहां इनपुट पर लगने वाले कर की दर आउटपुट पर लगने वाले कर की दर से अधिक होती है) के कारण अनेक प्रकार की विषमताएं उत्पन्न हो रही हैं। सन 1991 से 2011 के बीच के दौर में व्यापार गतिरोधों को एकपक्षीय ढंग से हटाने का रुख उल्लेखनीय है क्योंकि भारत के लिए महत्त्वपूर्ण निर्यात केंद्रों में व्यापार गतिरोध कम हैं और भारत के लिए एफटीए से चाहने को कुछ खास नहीं है।
एक काम जो भारत से होने वाले निर्यात में एकदम सहजता से मदद कर सकता है वह है हर प्रकार के सीमा शुल्क और उपकरों को समाप्त करना। वस्तु उत्पादकों और सेवा उत्पादकों दोनों को कच्चे माल के लिए कम कीमत चुकाने से लाभ मिलेगा। साथ ही जीरो रेटिंग के चलते उन्हें जीएसटी का पूरा रीफंड भी मिलेगा। इसके अलावा नीति निर्माताओं को भी खुद को नए सिरे से तैयार करना होगा ताकि भारत में काम करने वाली कंपनियों को भारत में होने वाली कठिनाइयों से निजात दिलाई जा सके। इसमें कर प्रशासन, पूंजी नियंत्रण, विदेशों में काम करने में मिलने वाली आर्थिक स्वायत्तता, विदेशी श्रमिक, एफएटीएफ/पीएमएलए, कंपनी अधिनियम का बोझ, श्रम कानून, नियामक आदि शामिल हैं।
पारंपरिक तौर पर हमारी समझ यह कहती है कि मजबूत विकास, मजबूत सरकारी संस्थानों की मौजूदगी में ही संभव है। चीन और भारत में वृद्धि उस समय एक पहेली बन कर सामने आई जब कमजोर संस्थानों के होते हुए भी वृद्धि देखने को मिली। यह पहेली तब हल हुई जब देखा गया कि वृद्धि टुकड़ों में अर्थव्यवस्था के उन हिस्सों में देखने को मिली जहां सरकार के साथ संबद्धता कम थी। चीन में ऐसा एसईजेड में हुआ जहां चीन की सरकार ने स्वायत्तता प्रदान की थी। भारत में ऐसा सेवा निर्यात में हुआ जहां भारतीय श्रम शक्ति वैश्विक अर्थव्यवस्था से संबद्ध है और सरकार से उसका संपर्क सीमित है।
क्या और अधोसंरचना इसमें मददगार होगी? सन 1990 के दशक तथा 2000 के दशक के सुधारों ने ब्रॉडबैंड के विस्तार में मदद की और सेवा निर्यात क्रांति की जमीन तैयार की। यह बात अधोसंरचना के पक्ष में पारंपरिक दलीलों के साथ जाती है। लेकिन निजी निवेश 2011 में चरम पर पहुंचा। यही वह समय था जब भौतिक अधोसंरचना में भी सुधार हो रहा था। यहां निर्यात की सफलता और बेहतर अधोसंरचना के रिश्ते को लेकर सवाल पैदा होता है।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)