देश के नियामकीय ढांचे पर नजर डालें तो पता चलेगा कि कम से 16 संस्थान हैं जो अर्थव्यवस्था के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की निगरानी करते हैं। हो सकता है यह संपूर्ण सूची नहीं हो लेकिन यह इस बात के आकलन के लिए पर्याप्त है कि इन नियामकीय संस्थानों ने अपना प्रबंधन कैसे किया है और क्या सुधार के बाद के दौर में वे स्वतंत्र तरीके से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों का नियमन करने में सक्षम हैं।
ये नियामकीय संस्थान कई क्षेत्रों का नियमन करते हैं जिनमें वित्तीय मध्यवर्ती मसलन बैंक और बीमा कंपनियां, आवासों को वित्तीय सहायता देने वाले संस्थान तथा छोटे उद्योग, पूंजी बाजार, बिजली वितरण, दूरसंचार, प्रतिस्पर्धा नीति, पोर्ट टैरिफ, हवाई अड्डे, पेंशन फंड, वेयरहाउसिंग, खाद्य सुरक्षा, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस, विमानन और ऋणशोधन निस्तारण आदि शामिल हैं। इनमें से अधिकांश संस्थान संसद द्वारा मंजूर विभिन्न कानूनों के अधीन बने हैं और इसलिए वे स्वतंत्र निकायों की तरह काम करते हैं। परंतु उनमें से कुछ आज भी सरकार के विस्तार के रूप में सेवा दे रहे हैं। नागर विमानन नियामक यानी नागरिक उड्डयन महानिदेशालय ऐसा ही एक संस्थान है।
विभिन्न क्षेत्रों के लिए नियामकों के चयन की जरूरत उदारीकरण के चलते पैदा हुई। सरकार ने अपनी भूमिका नीति निर्माण करने तक सीमित करने का निर्णय लिया। उसने इन क्षेत्रों के लिए अलग-अलग नियामक बनाए और यह सुनिश्चित किया कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों इन नीतियों का पालन करें। इनका पालन नहीं करने पर नियामकों द्वारा जुर्माना लाए जाने की व्यवस्था थी क्योंकि उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने की इजाजत थी।
इस प्रकार सरकार कारोबारों के संचालन से और दूर हो गई। इसमें निजी और सरकारी दोनों तरह के उपक्रम शामिल थे। एक बार जब सरकार नीतियां बना लेती तो किसी निजी या सरकारी कंपनी ने नियमों का पालन किया या नहीं अथवा गलत व्यवहार करके उपभोक्ताओं के हितों को नुकसान तो नहीं पहुंचाया यह सब तक करने का काम स्वतंत्र नियामकों के हवाले था। इस मानक के मुताबिक देखा जाए तो कई क्षेत्रीय नियामकों ने अपना काम काफी अच्छी तरह किया, भले ही वे अपेक्षाओं पर खरे न उतरे हों।
परंतु एक सवाल जो बार-बार उठता है वह इन नियामकीय संस्थानों के नेतृत्व से संबंधित है। इनकी अध्यक्षता कौन करता है? इस सवाल का जवाब हमें यह याद दिलाता है कि इन संस्थाओं के नियामकों के चयन में कुछ तो गड़बड़ी है। करीब तीन चौथाई नियामकीय संस्थानों की अध्यक्षता सेवानिवृत्त सरकारी अफसरशाहों के पास होती है। जाहिर है भारतीय प्रशासनिक सेवा यानी आईएएस से आने वालों को प्राथमिकता मिलती है। नौ नियामक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं और तीन केंद्र सरकार की सहायक सेवाओं मसलन भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा, भारतीय रेल सेवा और भारतीय लागत लेखा सेवा से आते हैं। केवल चार नियामक ही पेशेवर हैं।
इससे आपको इन नियामकों की नियुक्ति और इनकी निगरानी की भूमिका के बारे में क्या पता चलता है? निश्चित रूप से किसी नियामकीय संस्था की अध्यक्षता किसी सेवानिवृत्त या सेवारत आईएएस अधिकारी को देने में कुछ भी गलत नहीं है। निश्चित रूप से कुछ पूर्व आईएएस नियामक ऐसे रहे हैं जिन्होंने बतौर नियामक काफी अच्छा प्रदर्शन किया है। लेकिन अगर तीन चौथाई नियामक सरकार के वरिष्ठ पदों पर कार्यरत अधिकारी होंगे तो दो तरह की दिक्कतें पैदा हो सकती हैं।
पहली, अगर कोई व्यक्ति नियामक बनने से पहले सरकार में अहम पद पर रहा हो तो उसकी नियामकीय स्वतंत्रता जोखिम में पड़ सकती है। सरकार के साथ उसके लंबे कार्यकाल के कारण नीतिगत प्रवर्तन के मामले में उसके निर्णयों में पूर्वग्रह झलक सकता है। दूसरी ओर सरकार भी बतौर नियामक अपने पुराने अधिकारियों के काम को प्रभावित कर सकती है। नियामकीय ढांचे का एक उद्देश्य यह भी है कि एक बार नीति बनने के बाद नियमन को सरकारी प्रभाव से मुक्त रखा जाए। बहरहाल, वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों का नियामकीय संस्थाओं का प्रमुख बनना एक गठजोड़ को जन्म दे सकता है और इससे नियमन के उद्देश्य को क्षति पहुंच सकती है।
दूसरा, ज्यादा गंभीर समस्या यह है कि वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के नियामक की भूमिका निभाने से ऐसी छवि बन सकती है कि इन नियमित क्षेत्रों में इतनी क्षमता नहीं है कि नियामक बनने लायक सक्षम पेशेवर तैयार किए जा सकें। एक पेशेवर नियामक जिसके पास उद्योग जगत का प्रासंगिक अनुभव हो, वह नियमन के लिए वरदान होता है। हितों का टकराव हो सकता है लेकिन सरकार पेशेवर नियामकों पर करीबी नजर रख सकती है ताकि वे स्वतंत्र रूप से काम करें और किसी प्रभाव में न रहें। ऐसे में यह अहम है कि सरकार आईएएस अथवा वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों की नियामकीय संस्थाओं में नियुक्ति के मामले में अपनी निर्भरता कम करे। सरकारी अधिकारियों पर निर्भरता नयी नहीं है। सुधार के शुरुआती दिनों के बाद जब कई नियामकीय संस्थाएं बनीं तो अक्सर नियामक निजी क्षेत्र से होते थे और तब इन संस्थाओं के नेतृत्व के लिए सरकारी संस्थाओं पर निर्भरता नहीं थी।
समस्या सन 1990 के दशक के अंत में शुरू हुई और बीते दो दशकों की सरकारें इस मामले में लगातार गलत रही हैं। खेद की बात है कि आईएएस तथा अन्य सेवाओं के अधिकारियों द्वारा नियामकीय संस्थाओं पर काबिज होने को अफसरशाही और सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं दोनों का समर्थन मिला है। सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों को नियामक बनाना इन दोनों के हित में रहा है।
अब जबकि सरकार ने सरकारी परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण की प्रक्रिया शुरू की है तो नियामकीय संस्थाओं पर से इन अफसरशाहों की पकड़ समाप्त करने का भी वक्त है। ऐसे मुद्रीकरण और निजीकरण के कारण नियामकीय संस्थाओं की अहमियत और बढ़ जाएगी। ऐसे में अगर नियामक सेवानिवृत्त अफसरशाह हुआ और सरकार के साथ उसके करीबी रिश्ते हुए तो वह उपभोक्ताओं के हितों की कीमत पर नियमन को प्रभावित कर सकता है। इससे सरकार अप्रत्यक्ष तरीके से इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप कर सकती है और उन कारोबारियों के हितों को पूरा कर सकती है जिनका सरकार के साथ गठजोड़ हो।
अपनी प्रतिस्पर्धा और कारोबारी सुगमता बढ़ाकर आर्थिक वृद्धि तेज करने का प्रयास कर रही अर्थव्यवस्था के लिए ये दोनों ही संभावनाएं बेहतर नहीं हैं। प्रतिस्पर्धा और कारोबारी सुगमता की बुनियाद है प्रभावी और स्वतंत्र नियमन। अब कोशिश यह होनी चाहिए कि पर्याप्त क्षमता विकसित की जाए ताकि विभिन्न क्षेत्रों के पेशेवर नियामक बन सकें। परंतु उसके लिए सरकार को स्पष्ट संकेत देना होगा कि नियामकीय संस्थाओं में नेतृत्व वाले पद सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों के लिए आरक्षित नहीं रहेंगे।
