गर्मी दस्तक देने वाली है और इसके साथ ही 2 सवाल भी लोगों के जेहन में गर्माने लगे हैं। पहला सवाल आर्थिक है और दूसरा राजनीतिक। पहला यह कि सेंसेक्स अब और कितना नीचे जाएगा और दूसरा यह कि आम चुनाव कब होंगे? इन दोनों सवालों का जवाब देना बड़ा मुश्किल है।
बगैर किसी लाग-लपेट के कहें, तो इन सवालों का निश्चित जवाब किसी के पास नहीं है।कहा जा सकता है कि इन दोनों सवालों में शायद ज्यादा आसान आम चुनाव से जुड़ा सवाल है।
वह इसलिए कि इसे प्रभावित करने वाली वजहें सेंसेक्स को प्रभावित करने वाली वजहों के मुकाबले काफी कम हैं। हालांकि, मामले को ठीक इसके उलट भी देखा जा सकता है।
मसलन, आर्थिक पहलुओं को साफ तौर पर पहचाना जा सकता है, जबकि राजनीति में हमेशा अनिश्चितता बनी रहती है। पहले हम सेंसेक्स पर विचार कर लें। जनवरी में इसने 21 हजार का आंकड़ा छू लिया। अब महज 2 महीने के भीतर यह 15,400 अंक तक आ पहुंचा है।
इतना ही नहीं उतार-चढ़ाव का दौर इतना चंचल रहा है कि इस बाबत कोई भी भविष्यवाणी करना काफी मुश्किल हो गया है। हालांकि, यह सच है कि जितनी तेजी से सेंसेक्स भागा था, उसमें गिरावट की आशंका जताई जा रही थी।
लेकिन जिस तरीके से इसमें बदलाव हुआ, ऐसी किसी को उम्मीद नहीं थी। आलम यह है कि 3 महीनों के भीतर शेयर बाजार के उत्साह की फिजां निराशा के माहौल में बदल चुकी है।
बाजार में नए इश्यू का अचानक से बंद हो जाना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मिसाल के तौर पर, काफी ‘प्रतिष्ठित’ माने जा रहे रिलायंस पावर के शेयरों की खरीद-फरोख्त डिस्कांउट पर हो रही है।
इन सारी बातों को देखते हुए ऐसा लगता है मानो बाजार को आर्थिक पहलुओं के बजाय भय और भावना के पहलू ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं।
गौरतलब है कि इस साल भी भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 8 से 8.5 फीसदी के बीच रहने की उम्मीद है। हालांकि, बाजार के इस अफरातफरी भरे माहौल के लिए बड़े सटोरियों की चालबाजियों की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
संक्षेप में कहें तो छोटे निवेशकों की आफत है, जबकि बड़े निवेशक इस बात को सुनिश्चित करने में लगे हैं कि उन्हें बहुत ज्यादा नुकसान न हो। इस पूरे मामले से जो दीर्घकालिक समस्या पैदा हो सकती है, वह है म्युचुअल फंडों की साख खराब होने का। बाजार की इस उठापटक का म्युचुअल फंडों पर भी काफी असर पड़ा है।
अब तक वैसे छोटे निवेशकों को भी म्युचुअल फंड खरीदने की सलाह दी जाती रही है, जिन्हें बाजार के दांवपेंच की जानकारी नहीं है। फंडों में अभी सिर्फ ऋण पत्रों की ही साख ठीकठाक है। इक्विटी के बजाय ऋण पत्रों में निश्चित रिर्टन मिलता है।
अगर लोग यह मानने लगें कि म्युचुअल फंड में निवेश करना बेहतर विकल्प नहीं रहा, तो जाहिर है इसमें निवेश में भारी कमी आएगी। अमेरिका से आ रही खबरें भी शेयर बाजार के लिए काफी परेशानी पैदा कर रही हैं। भारतीय शेयर बाजार के भविष्य को तय करने में विदेशी संस्थागत निवेशकों की भूमिका काफी अहम हो गई है।
इसके मद्देनजर अमेरिका भारतीय शेयर बाजारों के लिए काफी महत्वपूर्ण हो गया है। 10 हजार मील दूर जो कुछ भी हो रहा है, वह भारतीय शेयर बाजार की किस्मत तय करेगा। इन सारी बातों को देखते हुए कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण महज एकतरफा मामला नहीं है। अब बात राजनीतिक सवाल की।
सवाल यह है कि आम चुनाव कब होंगे? मेरी राय में यह अक्टूबर के आखिरी या नवंबर के पहले हफ्ते से पहले मुमकिन नहीं हैं, जब खरीफ फसल किसानों के घर में आ जाएगी या आने की कगार पर होगी। मेरे विचार से घटनाओं का क्रम कुछ इस प्रकार होगा।
सबसे पहले सरकार जून में (किसी भी समय) परमाणु करार पर दस्तखत करेगी। इसके बाद वामदल सरकार से समर्थन वापस लेंगे। इसके बाद राष्ट्रपति सरकार से 6 महीनों तक सत्ता में बने रहने का अनुरोध करेंगी।
राष्ट्रपति के इस अनुरोध की दो वजहें होंगी। पहला मॉनसून का आगमन और दूसरा चुनाव क्षेत्रों के पुनर्निधारण लिए जारी परिसीमन की प्रक्रिया। हालांकि, जून से 6 महीने का वक्त दिसंबर में आता है, लेकिन सरकार अक्टूबर के शुरू में ही चुनावों का ऐलान कर देगी।
चुनाव आयोग को तैयारी के लिए 6 हफ्ते की जरूरत होगी यानी चुनाव 20 अक्टूबर से 30 नवंबर के बीच होंगे। यूपीए के सहयोगी दलों को भी इस पर ऐतराज नहीं होगा, क्योंकि सरकार करीब-करीब अपनी पूरी पारी खेल चुकी होगी।
यूपीए सरकार की अवधि मई 2009 में पूरी होनी है। अगर 6 महीने पहले सत्ता छोड़ने से यूपीए के फिर से सरकार में आने की संभावना बढ़ जाती है, तो इसे एक सस्ता सौदा ही माना जाएगा। अब हम दूसरे बड़े सवाल पर आते हैं।
सवाल यह नहीं है कि क्या यूपीए सत्ता में लौटेगा या नहीं। सवाल यह भी नहीं है कि यूपीए की सरकार बनने की सूरत में कमान कांग्रेस के हाथ में होगी या किसी और सहयोगी दल के हाथ में।
मेरी राय में सवाल यह है कि कांग्रेस और बीजेपी को कितनी-कितनी सीटें मिलेंगी। मेरे हिसाब से दोनों पार्टियों को 125 से ज्यादा सीटें मिलने की संभावना नजर नहीं आती।
दोनों पार्टियों द्वारा गवांई जाने वाली सीटों पर क्षेत्रीय पार्टियों का कब्जा होगा। यहां फिर सवाल खड़ा होता है कि इन क्षेत्रीय पार्टियों में कौन-कौन से दल शामिल होंगे, क्योंकि समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल की बढ़त पर भी सवालिया निशान लग चुका है। मेरा मानना है कि कांग्रेस और बीजेपी की हार का सबसे ज्यादा फायदा मायावती को मिलेगा।
अगर मायावती की पार्टी को यूपी में 50 से 60 सीटों के बीच और देश के बाकी हिस्सों में 20 सीटें भी मिल जाती हैं, तो यूपीए (या एनडीए) की कमान उन्हें मिल सकती है। इसके मद्देनजर मायावती को मैं देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में देख रहा हूं।