जापान के हिरोशिमा में जी-7 देशों के शिखर सम्मेलन के केंद्र में मूल प्रश्न यह था कि चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति से कैसे निपटा जाए। हाल में संपन्न इस सम्मेलन की अध्यक्षता जापान ने की। सातों देशों को आर्थिक सुरक्षा, आर्थिक दबाव और प्रतिकूल आर्थिक परिस्थितियों से जूझने जैसे प्रश्नों पर विचार करना था। यह एक महत्त्वपूर्ण कारण था जिस वजह से प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा ने न केवल भारत बल्कि ब्राजील, इंडोनेशिया, वियतनाम और दक्षिण कोरिया को भी सम्मेलन में भाग लेने के लिए अलग से आमंत्रित किया।
चीन को उसके आर्थिक उदय का भू-आर्थिक एवं भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से गैर-वाजिब इस्तेमाल करने से रोकने के किसी प्रयास की सफलता निर्धारित करने में इन देशों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी। जी-7 सम्मेलन समाप्त होने के बाद जारी विज्ञप्ति में कहा गया कि समूह आपूर्ति व्यवस्था में निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों की अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका को समर्थन देने के लिए सहयोग करने पर सहमत हुए। समूह इन देशों को दूसरे देशों पर निर्भर बनाने वाले नीतियों एवं व्यवहारों से बचाने का प्रयास करेगा और आर्थिक दबाव का मुकाबला करने में सहयोग देगा।
मगर चीन के प्रभाव से श्रेष्ठ तरीके से निपटने के विषय पर सम्मेलन में सदस्य देशों के बीच गहरे मतभेद का पता चलता है। चीन की अर्थव्यवस्था से आर्थिक अलगाव या इस पर आर्थिक निर्भरता कम करने पर बहस जी-7 सदस्य देशों में मतभेद को काफी प्रभावी ढंग से दर्शाती है। लगभग एक महीने पहले फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों पेइचिंग की यात्रा पर गए थे। वहां मैक्रों ने जब यह कहा कि चीन की अर्थव्यवस्था से अलगाव के बारे में सोचने का उनके पास समय नहीं है तो अमेरिकी मीडिया में गहरा असंतोष जताया गया था।
ऐसा नहीं था कि मैक्रों ने किसी हड़बड़ी या जल्दबाजी में आकर चीन के संबंध में ऐसा बयान दिया था। उनका वक्तव्य चीन से आर्थिक अलगाव पर यूरोपीय देशों की सोच को सटीक रूप से व्यक्त कर रहा था। कुछ वर्ष पहले यूरोपीय देश चीन पर बढ़ती निर्भरता को लेकर चिंतित थे मगर वे यह भी स्वीकार करते हैं कि यूरोपीय अर्थव्यवस्था बाहरी दुनिया से व्यापारिक संबंधों से काफी लाभान्वित होती है।
यूरोपीय देशों का प्रयास उन विशेष क्षेत्रों को चिह्नित करना है जहां उन्हें अपनी अर्थव्यवस्थाओं को संभावित दबाव या निर्भरता से सुरक्षित रखना है, वहीं दूसरी तरफ यूरोपीय संघ-चीन के संबंधों में आई खटास का असर वृहद व्यापारिक समझौतों पर नहीं पड़ने देना है।
ऐसा लगता है कि जापान और दक्षिण कोरिया का भी यही दृष्टिकोण है। चीन के पड़ोसी देश होने के कारण उनके हाव-भाव यूरोपीय देशों, ऑस्ट्रेलिया या अमेरिकी देशों की तुलना में अधिक सधे हैं। मगर इसमें कोई शक नहीं कि वे अपनी आर्थिक सुरक्षा के प्रति चिंतित हैं। एक दशक पहले जापान की कंपनियां चीन की आर्थिक जोर-जबरदस्ती का पहला शिकार थीं।
तब ताइवान के विवादित सेनकाकू द्वीप पर उठे विवाद के बाद चीन ने जापान को दुर्लभ मृदा तत्त्वों का निर्यात कम दिया गया था। जापान की कंपनियां अपनी आपूर्ति व्यवस्था को जोखिम मुक्त करना और अपने ऊपर चीन का प्रभाव कम करना चाहती हैं।
मगर उन्हें यह भी अनुभव हो रहा है कि ये बातें उनकी अपनी शर्तों पर होनी चाहिए और जोखिम समाप्त करने का मतलब पूर्ण आर्थिक अलगाव नहीं होता है। उनका तो यह भी कहना है कि उनका कारोबार चीन से पहले ही अलग है, इसलिए और अधिक अलगाव की आवश्यकता नहीं है।
वास्तव में जापान बैंक ऑफ इंटरनैशनल को-ऑपरेशन द्वारा किए गए एक हालिया सर्वेक्षण में जापान की विनिर्माण कंपनियां कह चुकी हैं कि उन्होंने अमेरिकी और चीनी आपूर्ति श्रृंखला से स्वयं को काफी पहले अलग कर लिया था।
यूरोप, जापान और कोरिया में चीन से अलगाव को लेकर अमेरिका द्वारा अपनाई जाने वाली नीति चिंता भी चिंता का एक कारण है। यूरोपीय देशों का यहां तक मानना है कि चीन से अलगाव की बात करने की आड़ में अमेरिका सब्सिडी और संरक्षणवाद को बढ़ावा दे रहा है। उत्तर-पूर्व एशिया को लगता है कि चीन से आर्थिक अलगाव से अमेरिका स्थित कंपनियों की तुलना में उनकी बड़ी कंपनियों को अधिक नुकसान हो रहा है।
लिहाजा, चीन पर केंद्रित आपूर्ति श्रृंखला कमजोर करने की इच्छा केवल उन्हीं देशों तक सीमित होती जा रही है जिनकी अर्थव्यवस्था या राष्ट्रीय सुरक्षा को चीन से कोई बड़ा खतरा दिखाई दे रहा है। इनमें कुछ संदेह जी-7 की तरफ से जारी वक्तव्य में भी परिलक्षित हुए हैं। वक्तव्य में कहा गया है कि चीन के साथ आर्थिक संबंधों का दायरा कम करने की पहल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संवेदनशील माने जाने वाले एक स्पष्ट परिभाषित सीमित तकनीक तक ही सीमित रहेगी या फिर ऐसी तकनीक इस श्रेणी में आएंगी जो अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को नुकसान पहुंचा सकती हैं।
वक्तव्य के अनुसार ‘तकनीक के क्षेत्र में व्यापार’ पर कोई प्रभाव नहीं होगा। चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत की काट खोजने के इस नरम दृष्टिकोण का जी-7 सम्मेलन में अलग से बुलाए गए देशों खासकर वियतनाम, ब्राजील, इंडोनेशिया और भारत पर क्या असर होगा। वियतनाम और इंडोनेशिया के लिए चीन के साथ आर्थिक जुड़ाव संपन्नता की दिशा में जाने का एक स्पष्ट मार्ग होगा।
चीन के हस्तक्षेप पर कड़ा रुख रखने वाला वियतनाम जैसा दूसरा देश मिलना मुश्किल होगा मगर तेजी से बढ़ती इसकी अर्थव्यवस्था भी चीन से होकर गुजरने वाली आपूर्ति श्रृंखला से काफी लाभान्वित हुई है। वियतनाम से होने वाले कुल निर्यात में आधी से अधिक हिस्सेदारी निर्यात का मूल्य वर्द्धन करने के लिए विदेश से मंगाई गई वस्तुओं की होती है और चीन इसमें योगदान देने वाला सबसे बड़ा देश है। इसके बाद ब्राजील आता है।
चीन इसका सबसे बड़ा बाजार है और इसके कुल निर्यात का एक चौथाई हिस्सा चीन को जाता है। इस एक चौथाई में 96 प्रतिशत हिस्सा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जिंस आधारित होता है। इंडोनेशिया के साथ इन दोनों देशों की भी चीन पर निर्भरता से जुड़ी वाजिब चिंताएं हैं मगर आर्थिक साझेदारी जारी रखने के अलावा इन देशों के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
पूर्व में ऐसी उम्मीद जताई जा रही थी कि चीन पर आर्थिक निर्भरता कम होने से निवेश बढ़ेगा और निवेशक चीन के बजाय दूसरे मध्यम आय वाले देशों में जाएंगे मगर यह सोचना अब अवास्तविक लग रहा है। भारत और वियतनाम में मौजूद जापान की कंपनियों ने कहा है कि वे इन देशों में अपना परिचालन बढ़ाएंगे मगर यह अब भी कोविड महामारी के पूर्व स्तर तक नहीं पहुंच पाया है।
जहां तक भारत की बात है तो वह अमेरिका के साथ चीन से सख्त एवं विभिन्न क्षेत्रों में दूरी की हिमायत करने में अकेला पड़ चुका है। ये दोनों देश इस उम्मीद के साथ चीन से आर्थिक अलगाव की बात कर रहे हैं कि इससे उसकी अर्थव्यवस्था मजबूत हो जाएगी।
यह पूरी तरह संभव है कि हम 2000 से 2022 के दौरान चीन पर आर्थिक निर्भरता कम करने के जोरदार अभियान के नतीजों को याद करेंगे। भारत को चीन के प्रति अलगाव के इस रुख से मदद मिली थी। मगर क्या उस दौरान हम उतना लाभ ले पाए जितना ले सकते थे या जितना लेना चाहिए था।