सरकार ने डेट इंस्ट्रुमेंटों पर दीर्घावधि के पूंजीगत लाभ पर से कर लाभ को समाप्त करके अचानक गुगली डाल दी है। उसने संसद द्वारा बगैर चर्चा के पारित वित्त विधेयक में अंतिम समय में यह बदलाव शामिल किया।
पूंजीगत लाभ के लिए भारत की कर दरें कुछ इस प्रकार की रही हैं कि ज्यादा आय अर्जित करने वाले लाभान्वित होते रहे हैं। यह वह समूह रहा है जिसमें अधिकांश संपत्तिधारक शामिल होते हैं। ऐसे में एक समीक्षा लंबित थी लेकिन सरकार द्वारा ऐसे कदम के रूप में तो कतई नहीं।
पहला मुद्दा एक सिद्धांत का है जो कहता है कि ‘अनर्जित’ आय पर ‘अर्जित’ आय की तुलना में कम दरों से कर नहीं लगाया जाना चाहिए। हर कोई इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता है और इस बारे में भी अलग तरह की बात हो सकती हैं कि क्या कमाया गया और क्या नहीं।
हमें निश्चित रूप से अपनी पूंजी को समझदारीपूर्वक निवेश करने पर काम करना होता है लेकिन यहां हमारा पैसा ही उपयोग में होता है। चाहे जो भी हो, प्राथमिकता वाले व्यवहार के लिए यहां कोई गुंजाइश नहीं बनती। व्यवहार में ऐसी दलीलों की अनदेखी कर दी जाती है।
अधिकांश देशों में पूंजीगत लाभ कर के लिए प्राथमिकता वाली दरों की पेशकश की जाती है। इस बात पर एक तथ्य का बहुत अधिक असर होता है, वह यह कि पूंजी कर्मचारियों की तुलना में कहीं अधिक आसानी से राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर जाती है। एक ऐसे देश में जहां पूंजीगत लाभ पर कर को लेकर कड़े कानून हों, वहां से भले ही पूंजी बाहर न जाए लेकिन वहां विदेशी पोर्टफोलियो निवेश कम आता है।
आय और संपत्ति की बढ़ती असमानता वाली दुनिया में पूंजी के साथ प्राथमिकता वाले कर व्यवहार का बचाव करना मुश्किल होता जा रहा है। यहां सवाल यह है कि आखिर किन चीजों पर कर लगना चाहिए: संपत्ति पर या उस संपत्ति से हासिल होने वाली आय पर? या दोनों पर?
अधिकांश देशों में संपत्ति पर किसी न किसी तरह का कर लगता है और आमतौर पर इनसे सहजता से बच निकलने का कोई न कोई रास्ता रहता है। भारत एक अपवाद है क्योंकि उसने संपत्ति कर और संपदा शुल्क दोनों को समाप्त कर दिया है और यहां करीबी रिश्तेदारों एवं वंशजों के उपहारों पर भी कर नहीं लगता।
निश्चित तौर पर हमले का पहला बिंदु यही होना चाहिए क्योंकि किसी भी कर का अभाव एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में असमानता को बनाए रखता है। व्यावहारिक प्रतिरोध यह है कि आप बहुत अधिक राजस्व नहीं जुटा सकते।
जब निवेश की गई संपत्ति पर कर प्रतिफल की बात आती है तो दरों को लेकर (10 फीसदी, 15 फीसदी, 20 फीसदी, और स्लैब दरें) कोई एकरूपता नहीं है, वहीं होल्डिंग की अवधि भी अलग-अलग परिसंपत्तियों के लिए अलग-अलग है। कुछ परिसंपत्तियों पर कर केवल मूल्य सूचकांक के साथ मूल्य समायोजन के बाद ही लगता है जबकि अन्य को ऐसे इंडेक्सेशन का लाभ नहीं मिलता।
इंडेक्सेशन निवेशकों को कर कम करने में मदद करता है क्योंकि यह कर का आकलन मुद्रास्फीति को ध्यान में रखकर करता है। इंडेक्सेशन का काम उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का इस्तेमाल करके किया जाता है जो परिसंपत्ति मूल्य मुद्रास्फीति (उदाहरण के लिए अचल संपत्ति के लिए) के आकलन से काफी अलग हो सकता है।
सरकार ने दीर्घावधि के ऋण की होल्डिंग से इंडेक्सेशन को हटा दिया है लेकिन शेयरों से नहीं और इसका बचाव आसानी से किया जा सकता है क्योंकि औपचारिक क्षेत्र में वेतन भत्ते प्राय: मुद्रास्फीति से जुड़े रहते हैं। न्यूनतम वेतन को भी समय-समय पर मुद्रास्फीति के साथ समायोजित किया जा सकता है।
असंगठित श्रम बाजार में स्वत: इंडेक्सेशन के प्रमाण हैं, भले ही वह ठीक से नहीं हुआ हो। यानी ऐसी कोई वजह नहीं है कि पूंजी के लिए इसकी पेशकश न की जाए, बशर्ते कि आप चाहते हों कि समय के साथ पूंजी का वास्तविक मूल्य कम होगा।
डेट बाजार में दिक्कत यह है कि बैंक जमा पर ब्याज पर कर बिना इंडेक्सेशन के लगता है जिससे असमान हालात पैदा होते हैं। यहां कहा जा सकता है कि बैंक जमा प्रतिफल की तयशुदा दर होती है और वहां सुरक्षा का तत्त्व प्रबल होता है जबकि म्युचुअल फंड में ऐसा नहीं होता और वहां प्रतिफल अलग-अलग हो सकता है। यहां तक कि नुकसान भी उठाना पड़ सकता है।
तयशुदा ब्याज बचत के कई स्वरूपों को भी प्रारंभिक कर लाभ मिलता है जो अक्सर बाजार उपायों में नहीं मिलता। एक खास सीमा तक सभी पूंजीगत लाभों के लिए प्राथमिकता वाली दर की पेशकश करके चीजों को आसान किया जा सकता है। कुछ विकसित देश ऐसा करते हैं। इससे सामान्य खुदरा निवेशकों को अमीर निवेशकों से अलग किया जा सकेगा।
कई मामलों और विकल्पों पर विचार करते हुए शायद सरकार को पहले एकरूपता लाने पर विचार करना था। उसके बाद अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का निराकरण करना था। चाहे जो भी हो इन बातों पर संसद में और बाहर चर्चा होनी थी। खासतौर पर संभावित परिणाम के कारण।
सरकार के कदम निवेशकों को जोखिम वाले शेयरों को चुनने को प्रेरित कर सकते हैं या फिर वे बैंक जमा का रुख कर सकते हैं। इसका ऋण बाजार पर नकारात्मक असर होगा जबकि जरूरत उसके फलने-फूलने की है।