तकनीक से कर्मचारियों का दूर रहकर काम करना संभव हुआ है। यह रुझान मजबूत हुआ तो बुनियादी ढांचे के दम पर वृद्धि और समृद्धि लाने की आर्थिक सोच का क्या होगा? सवाल उठा रहे हैं अजित बालकृष्णन
मेरा एक मित्र जिसकी हजारों कर्मचारियों वाली एक टेक कंपनी है, उसने हाल ही में एक घटना को याद करते हुए मुझसे कहा, ‘हाल ही में एक दिन सुबह मेरी एक वरिष्ठ महिला अधिकारी मेरे पास आईं और उन्होंने कहा कि सर क्या हम घर से काम की व्यवस्था बंद कर सकते हैं?
उन्होंने जोर देकर कहा कि सभी कर्मचारियों को कार्यालय आना चाहिए।’ मित्र ने कहा कि वह इस बात पर चकित रह गए क्योंकि वह एक वरिष्ठ अधिकारी थीं और हाल के दिनों में तो कर्मचारी यही कह रहे थे कि घर से काम करने की व्यवस्था उनके लिए वरदान के समान है।
मेरे मित्र ने उस महिला अधिकारी से पूछा, ‘आप ऐसा सुझाव क्यों दे रही हैं…? क्या आपको घर से अपनी टीम का प्रबंधन करने में मुश्किल आ रही है?’
मेरे मित्र ने कहा कि इस सवाल का जवाब जरूर इनकार में मिला लेकिन ऐसा कहते समय उनके चेहरे पर जो भाव थे उनसे यही संकेत निकला कि बात केवल इतनी नहीं है बल्कि इस अनुरोध के पीछे कोई बड़ी वजह है। थोड़ा नरमी से पूछने पर उन्हें वास्तविक वजह पता चल गई: वह, उनके पति और उनकी बेटी सभी उनके फ्लैट में सास-ससुर के साथ रहते थे। सास-ससुर निरंतर उनसे कुछ न कुछ कहते रहते थे जिसके चलते वह काम पर ध्यान नहीं दे पाती थीं।
मेरे मित्र समेत दुनिया के अधिकांश मुख्य कार्याधिकारी घर से काम बनाम ऑफिस से काम करने के लाभ और हानि पर विचार कर रहे हैं लेकिन दुविधा का अर्थ कहीं अधिक बड़ा है।
मुझे सन 1970 का दशक याद आता है जब लोगों के चेहरे यह कहते हुए चमक उठते थे कि उनके बच्चे को ‘ऑफिस’ में काम करने की नौकरी मिल गई है। हम भारतीयों में और शायद दुनिया के अन्य देशों के लोगों में भी ऑफिस की नौकरी का मतलब था अच्छा वेतन, काम के उचित घंटे, चिकित्सा बीमा, अच्छी कार्य परिस्थितियां आदि। इन सबसे बढ़कर यह ‘मध्य वर्ग’ की ओर पहलकदमी भी होती थी।
मैंने खुद से कहा कि ‘ऑफिस’ के ऐतिहासिक मूल स्रोत की तलाश करना उचित होगा। जब मैंने विकिपीडिया पर खोज की तो उसने मुझे यह जवाब दिया, ‘ऑफिस एक ऐसी जगह है जहां किसी संस्थान के कर्मचारी अपने प्रशासनिक काम पूरे करते हैं।’
मैंने दुनिया के पहले ऑफिस की तलाश करते हुए पाया कि यह कई तलों वाली थी जहां कमरों में एक लाइन से मेज-कुर्सी होते और जिन पर बैठकर लोग रोज नौ-नौ घंटे काम करते। यह 17वीं सदी के मध्य में लंदन की लीडेनहाल स्ट्रीट पर स्थित था। इसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थापित किया था ताकि भारत में उसके फैले हुए कामकाज से संबंधित कागजी कार्रवाई की जा सके।
‘ऑफिस’ ही हमारे आधुनिक बड़े शहरों मसलन बंबई और न्यूयॉर्क, लंदन और सैन फ्रांसिस्को आदि के निर्माण की वजह रहा है। ये तो महज चंद नाम हैं, ऐसे शहरों की पूरी फेहरिस्त है। इन शहरों में बने ऑफिस में लोग एकत्रित होते हैं। इनके अलग-अलग नाम होते हैं, मसलन कॉर्पोरेट ऑफिस, आयकर कार्यालय, सचिवालय आदि।
इस तरह लोगों के ऑफिस में एकत्रित होने के कारण शहरों में आवासीय परिसरों की जरूरत तैयार हुई, फिर दुकानें और बाजार जरूरी लगने लगे ताकि इन लोगों का जीवन आसान हो सके। इसके साथ ही बहुत बड़े पैमाने पर झुग्गियां भी तैयार हुईं क्योंकि उनमें रहने वाले लोगों की इतनी कमाई नहीं होती है कि वे अच्छे घरों में रह सकें।
दूसरे शब्दों में बीती दो सदियों में लोग उन जगहों पर जाते रहे जहां उन्हें ऑफिसों में काम मिल सकता था, भले ही इसके लिए उन्हें रोज अपने घर से एक-दो घंटे का सफर करके जाना और आना पड़ा हो।
इसे व्यापक तौर पर ‘शहरीकरण’ कहा जाता है और इसे ही तरक्की का एक मानक भी माना जाता है। ‘प्रगतिशील’ सरकारें अब भारी भरकम धनराशि व्यय करके राजमार्ग और ट्रेन ट्रैक बना रही हैं ताकि लोग हर रोज अपने ऑफिस काम पर समय से पहुंच सकें। घरों और आवासीय परिसरों पर होने वाले ऐसे ही व्यय को ‘अचल संपत्ति’ कहा जाता है और ऐसी ही अचल संपत्ति पर हमारे देश के जीडीपी का 7 फीसदी व्यय किया जाता है। अचल संपत्ति क्षेत्र के कुछ जानकारों के अनुसार अगले कुछ वर्षों में यह राशि बढ़कर 20 फीसदी हो जाएगी।
यहां ऐसे परेशान करने वाले आंकड़े आते हैं जो अब तक सुर्खियों में नहीं आए हैं लेकिन उन पर गहराई से विचार करने का वक्त है: आधिकारिक सरकारी आंकड़ों के अनुसार कैलिफोर्निया के बे एरिया में जो अमेरिका तकनीकी दुनिया का केंद्र है, वहां 2020 से 2022 के बीच निवासियों की तादाद में 2.5 लाख की कमी आई है। यह 7.5 फीसदी की गिरावट है।
इसी अवधि में न्यूयॉर्क के निवासियों की संख्या 5.8 फीसदी कम हुई। एक अमेरिकी वेबसाइट के मुताबिक 2020 से 2022 के बीच 20 लाख लोगों ने अमेरिका के बड़े शहरों में रहना छोड़ दिया।
एक प्रतिष्ठित अमेरिकी पत्रिका द अटलांटिक के अनुसार, ‘बड़े शहरों में रहने वालों की घटती तादाद एक व्यापक सांस्कृतिक कहानी का हिस्सा है। घर से काम करने की व्यवस्था ने घर और ऑफिस के बीच जगह बना ली है। अब कई कार्यालयीन कर्मचारी महंगे बड़े शहरों से दूर रहने लगे हैं।’
भारत में भी ऐसी खबरें हैं कि बड़ी आईटी कंपनियां अपना ध्यान छोटे शहरों की ओर बढ़ा रही हैं ताकि अचल संपत्ति की लागत कम की जा सके और कर्मचारियों को काम और जीवन के बीच बेहतर संतुलन बनाने का अवसर दिया जा सके।
ये बस चंद सुर्खियां हैं या व्यापक सामाजिक बदलाव आ रहा है। यानी औद्योगीकरण और शहरीकरण ने जो कुछ किया, डिजिटल क्रांति की बदौलत वह चक्र उलटा घूम रहा है। वेबसाइटों पर उपलब्ध सूचनाओं को कहीं से भी हासिल किया जा सकता है, मोबाइल फोन के माध्यम से भुगतान किया जा सकता है, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की मदद से दूर रहकर बैठकों में शामिल हुआ जा सकता है।
शायद इन तकनीकों और सांस्कृतिक लाभ (मसलन महिला कामगारों की सांस्कृतिक दबावों से मुक्ति) और कई घंटों की यात्रा से निजात भी कुछ वर्षों में घर से काम करने को आम बना देगी। अगर यही रुझान रहा तो हमारी उस आर्थिक सोच का क्या होगा जहां सरकार सड़कों और पुलों तथा रेलवे और हवाई अड्डों पर यह सोचकर खर्च बढ़ाती है कि इससे आर्थिक वृद्धि और समृद्धि आएगी? क्या वाकई सामाजिक बदलाव हो रहा है?
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)