पिछले चार हफ्तों में श्रम बाजार कमजोर पड़ते दिख रहे हैं। इनमें से हरेक हफ्ते में श्रम भागीदारी दर (एलपीआर) एवं रोजगार दर में गिरावट आई है। बेरोजगारी दर फिर से तेजी पकड़ते हुए 5.5 फीसदी और 7.8 फीसदी के बीच झूल रही है और इसका औसत 6.8 फीसदी रहा है। लेकिन यह काफी हद तक महत्त्वहीन है। अहम बात यह है कि त्योहारी मौसम में भी श्रम बाजार कामकाजी उम्र वाली जनसंख्या के एक समुचित अनुपात को समाहित करने में नाकाम रहा है।
श्रम भागीदारी दर 25 अक्टूबर को समाप्त सप्ताह में 41.3 फीसदी रही जो हाल के समय का सर्वोच्च स्तर है। उसके बाद के चारों हफ्तों में इसमें गिरावट ही आई है। हमें ध्यान रखना होगा कि हालिया शिखर स्तर भी अपने-आप में बहुत कम है। अप्रैल एवं मई की तीव्र गिरावट के बाद जून में श्रम भागीदारी दर 42 फीसदी हो गई थी। लेकिन वह स्तर लंबा कायम नहीं रह सका। जून के मध्य से अगस्त के अंत तक एलपीआर 40.4 फीसदी और 42.2 फीसदी के बीच झूलता रही। उसके बाद सितंबर एवं अक्टूबर के दौरान यह गिरकर 40 फीसदी और 41.4 फीसदी के बीच रही।
हमने इस पर चिंता जताई थी कि आर्थिक गतिविधियों के तेज होने की प्रक्रिया जुलाई में ही थकान की शिकार होती हुई दिखने लगी थी और यह आशंका सही साबित हुई है। एलपीआर पूरी तरह पटरी पर आने से पहले ही गिरने लगी। वित्त वर्ष 2019-20 में औसत एलपीआर 42.7 फीसदी रही थी। लॉकडाउन लागू होने के पहले यह दर कभी 42 फीसदी के नीचे नहीं आई थी। अब यह 40 फीसदी के भी नीचे जाती दिख रही है। गत 15 15 नवंबर को समाप्त सप्ताह में एलपीआर 39.5 फीसदी थी, जबकि 22 नवंबर को समाप्त सप्ताह में यह 39.3 फीसदी दर्ज की गई थी।
गिरती हुई श्रम भागीदारी दर का मतलब है कि कामकाजी उम्र वाली आबादी का एक छोटा हिस्सा ही रोजगार की तलाश कर रहा है। निरपेक्ष रूप में एलपीआर ही श्रम-शक्ति के रूप में परिवर्तित होती है। अगर एलपीआर में तीव्र गिरावट जारी रहती है तो श्रम-शक्ति में भी संकुचन आता है। रिकवरी प्रक्रिया की रफ्तार धीमी पडऩे के बाद सितंबर महीने में यही हुआ। यह श्रमबल अक्टूबर में भी यथावत बना रहा। नवंबर में भी गिरावट का रुख कायम रह सकता है जो कि चिंता की बात है। बेरोजगारी दर का मतलब श्रमबल की उस संख्या से ही है जो रोजगार पाने में नाकाम रहती है।
गत 22 नवंबर को समाप्त सप्ताह में श्रमबल के 7.8 फीसदी हिस्से को रोजगार नहीं मिल पाया था। यह इसके पहले हफ्ते की 5.5 फीसदी बेरोजगारी दर या फिर उससे पहले के चार हफ्तों में 5.5 फीसदी और 7.2 फीसदी के बीच घूमती बेरोजगारी दर से काफी अधिक है। बेरोजगारी दर की यह उछाल रिकवरी शुरू होने के बाद से जारी रुझान के उलट है। रुझान कभी-कभार उछाल के साथ गिरती बेरोजगारी दर का रहा है। 10 अक्टूबर को समाप्त पहले पखवाड़े में यही हुआ था।
जो भी हो, 22 नवंबर को समाप्त सप्ताह में बेरोजगारी दर में आई अचानक तेजी के साथ श्रम भागीदारी दर में गिरावट भी दर्ज की गई जिसका नतीजा रोजगार दर में तीव्र ढलान के रूप में निकला। यह 15 नवंबर को समाप्त सप्ताह की 37.38 फीसदी की तुलना में पिछले हफ्ते 114 आधार अंकों की बड़ी गिरावट के साथ 36.24 फीसदी पर आ गई।
भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत बयां करने वाला सबसे अच्छा पैमाना रोजगार दर ही है। यह कामकाजी उम्र वाले लोगों में से रोजगार-प्राप्त लोगों का अनुपात दर्शाती है। पिछले वित्त वर्ष में रोजगार दर 39.4 फीसदी रही थी। वर्ष 2016-17 में यह 42.8 फीसदी रही थी और उसके बाद से ही लगातार गिरती जा रही है। अप्रैल 2020 में यह 27.2 फीसदी तक लुढ़क गई थी और मई में भी यह 30.2 फीसदी रही। फिर यह अक्टूबर में बढ़कर 37.8 फीसदी हो गई। नवंबर के पहले तीन हफ्तों में रोजगार दर में धीमी सुस्ती देखी गई है। पहले हफ्ते में यह 37.5 फीसदी, दूसरे हफ्ते में 37.4 फीसदी और तीसरे हफ्ते में 36.2 फीसदी रही। पिछले हफ्ते में 36.2 फीसदी की रोजगार दर जून के आखिर में रिकवरी प्रक्रिया थमने के बाद का सबसे निचला स्तर है। 25 अक्टूबर को समाप्त सप्ताह के बाद रोजगार दर में लगातार चौथे हफ्ते गिरावट आई है।
नवंबर में श्रम बाजार के मानकों की हालत बिगडऩा इस साल मई में शुरू रिकवरी प्रक्रिया की सांस जल्द ही फूल जाने का भी एक संकेत है। रिकवरी की प्रक्रिया पूरी ही नहीं हो पाई है। रोजगार दर कभी भी लॉकडाउन से पहले के स्तर पर नहीं पहुंच पाई और लॉकडाउन की बंदिशें ढीली पडऩे के बाद इसमें सुधार तो हुआ लेकिन पुराने स्तर पर पहुंचने के पहले ही इसमें फिर गिरावट आने लगी। पिछले हफ्तों में भारत अप्रैल एवं मई में लगे गहरे आघात से उबर रही अपनी अर्थव्यवस्था को लेकर जश्न मनाता दिखा है। सीएमआईई के उपभोक्ता पिरामिड परिवार सर्वेक्षण से मिले श्रम आंकड़े लॉकडाउन की आर्थिक लागत की गंभीरता का आकलन करने वाले पहले प्रयास थे। अर्थव्यवस्था की जल्द एवं ठोस रिकवरी को दर्ज करने का काम भी पहले सीएमआईई ने ही किया था। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक, रेलवे मालढुलाई और जीएसटी कर संग्रह जैसे सरकारी आंकड़ों से भी इसी तरह के रुख का अहसास हुआ।
हालांकि सितंबर या अक्टूबर तक बढ़ी हुई आर्थिक गतिविधि में देखी जा रही रिकवरी का गुब्बारा फूटता जा रहा है। श्रम आंकड़े नवंबर में अर्थव्यवस्था में खासी सुस्ती आने की तरफ इशारा कर रहे हैं। रबी फसलों की बुआई जल्द शुरू होने से यह उम्मीद जगती है कि चालू वित्त वर्ष में कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन अच्छा बना रहेगा। लेकिन भारत ने निम्न उत्पादकता वाले खेतों से श्रमिकों को उच्च उत्पादकता वाले कारखानों एवं दफ्तरों तक पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत की है। वह अपने कामगारों को फिर से खेतों की तरफ नहीं ले जा सकता है।
(लेखक सीएमआईई के प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्याधिकारी हैं)
