हमें अब तक के इतिहास में कभी ऐसे हालात का सामना नहीं करना पड़ा जहां शुल्कों का इस्तेमाल हथियार के रूप में इस तरह से किया गया हो कि दूसरे देशों को अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया जा सके या उनकी राष्ट्रीय संप्रभुता को खतरे में डाला जा सके। परंतु अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास में ऐसा ही किया है। अमित्र देशों को तो निशाना बनाने के लिए प्रतिबंध लगाना एक आम व्यवहार बन चुका है लेकिन इतने बड़े पैमाने पर शुल्क का इस्तेमाल रणनीतिक हथियार के रूप में करना चिंताजनक है।
ट्रंप ने शुल्क दरों को लेकर जो कदम उठाए हैं वे न केवल संरक्षणवादी हैं बल्कि वे एक रणनीतिक हथियार भी हैं जिनकी मदद से वे यह तय करने की कोशिश कर रहे हैं कि विभिन्न देश व्यापार कैसे करें। सभी देशों के साथ शुल्क दरों में इजाफा किया जाना अमेरिका में आयात होने वाली वस्तुओं की कीमत भी बढ़ाएगा लेकिन वह हमारी चिंता का विषय नहीं है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार और संबंधों में अनिश्चितता ने निवेशकों के उत्साह को प्रभावित किया है और इसका विश्व व्यापार, निवेश और आर्थिक वृद्धि पर विपरीत प्रभाव हुआ है। इससे भी अधिक गंभीर मुद्दा यह है कि विभिन्न देशों के पास अब अपनी आर्थिक या कूटनीतिक नीतियों को लेकर संप्रभु शक्तियां नहीं रह गई हैं और वे ट्रंप के आदेशों को मानने को विवश हैं।
भारत पर लगा 50 फीसदी का शुल्क यहां के वस्त्र, चमड़ा और जूते-चप्पल, रत्न एवं आभूषण, रसायन और इलेक्ट्रिकल मशीनरी के निर्यात को प्रभावित करेगा। इससे न केवल चालू वर्ष की वृद्धि, रोजगार, व्यापार संतुलन और वृहद आर्थिक हालात प्रभावित होंगे बल्कि निकट से मध्यम अवधि में निवेश पर भी बुरा असर होगा। इससे विकसित देश बनने का हमारा लक्ष्य भी प्रभावित होगा। ‘हम सबसे तेज विकसित होती अर्थव्यवस्था बने रहेंगे’ जैसी बहादुरी भरी बातों से सांत्वना नहीं पाई जा सकती है क्योंकि व्यापार की दिशा भी निवेश का प्रवाह प्रभावित करती है। देश का घरेलू निजी निवेश एकदम ठहरा हुआ है जबकि विशुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लगभग शून्य है। ऐसे में शुल्क दरों के कारण पूंजी बाहर जा सकती है और इसका दीर्घकालिक असर होगा। चीन प्लस 1 रणनीति के तहत निवेश आकर्षित करने की नीति भी कारगर होती नहीं दिख रही है।
हम एक अवज्ञापूर्ण रुख अपना सकते हैं कि हम एक संप्रभु देश हैं और कोई हम पर शर्तें नहीं थोप सकता है लेकिन एक महाशक्ति का प्रतिरोध करने की क्षमता हमारी आंतरिक शक्ति पर निर्भर करती है। निश्चित तौर पर चीन जैसे देश बेहतर मोलभाव करने की हालत में हैं। हमारी महानता को लेकर तमाम बयानबाजी के बावजूद हमें यह समझना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे पास अधिक मोलभाव करने की क्षमता नहीं है। वर्ष 2024 में भारत से अमेरिका को 86.5 अरब डॉलर का निर्यात किया गया जबकि हमारा व्यापार अधिशेष करीब 45.7 अरब डॉलर मूल्य का रहा। इस पर भी असर होगा।
अमेरिका मानता है कि भारत अमेरिकी निर्यात को पहुंच न देकर अपने आप को बचा रहा है और इसीलिए उसने 7 अगस्त से 25 फीसदी का शुल्क लगाया। 25 फीसदी का अतिरिक्त शुल्क 27 अगस्त से जुर्माने के रूप में लगाने की घोषणा की गई है क्योंकि भारत रूस से कच्चे तेल की खरीद कर रहा है और अमेरिका का कहना है कि इससे रूस को यूक्रेन में युद्ध जारी रखने में मदद मिल रही है। भारत ने पाकिस्तान के साथ जंग रोकने का श्रेय भी ट्रंप को नहीं दिया है, इस बात ने भी ट्रंप को नाराज किया है।
भारत की मोलतोल की कम शक्ति और वृद्धि को गति देने की आवश्यकताओं को देखते हुए सवाल यह है कि भारत को इस घटनाक्रम को लेकर किस तरह प्रतिक्रिया देनी चाहिए? यकीनन आत्मनिर्भर भारत के नाम पर संरक्षणवाद बढ़ाना कोई हल नहीं है। भारत को अपनी अर्थव्यवस्था में खुलापन लाना चाहिए और द्विपक्षीय समझौतों पर बल देना चाहिए। इसके साथ ही प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए सुधारों को आगे बढ़ाने का प्रयास होना चाहिए।
उच्च वृद्धि हासिल करने वाले हर देश में निर्यात एक शक्तिशाली वाहक रहा है। 1991 के उदारीकरण के बाद का भारत भी इसका उदाहरण है। वैश्विक निर्यात में उसकी हिस्सेदारी 1990 के 0.5 फीसदी से बढ़कर 2022 में 2.5 फीसदी हो गई। यह अनुभव रहा है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रतिबंध खुद को नुकसान पहुंचाने वाले रहे हैं, इसके बावजूद 2017 से ही हमारा रुख संरक्षणवादी रहा है। बढ़ते संरक्षणवाद की झलक हमारे सामान्य औसत शुल्क में इजाफे में महसूस की जा सकती है जो 2010-11 के 8.9 फीसदी से बढ़कर 2020-21 में 11.1 फीसदी हो गया। 15 फीसदी से अधिक दरों वाले शुल्क का अनुपात 2010-11 में 11.9 फीसदी से बढ़कर 2020-21 में 25.4 फीसदी हो गया। सर्वाधिक तरजीही देशों के गैर कृषि उत्पादों पर औसत शुल्क दर भी 2015 के 10 फीसदी से बढ़कर 2021 में 15 फीसदी हो गया।
तेज वृद्धि के लिए निवेश और व्यापार को उदार बनाना आवश्यक है। उन्नत तकनीक और उत्पादकता में सुधार की मदद से ही विदेशी निवेश आकर्षित किया जा सकता है। आत्मनिर्भर भारत के नाम पर हमने धीरे-धीरे आयात प्रतिस्थापन को अपना लिया। निर्यात प्रोत्साहन चुनिंदा क्षेत्रों तक सीमित हो गया। उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना को भी सीमित कामयाबी मिली है और इसकी भी समीक्षा करने की आवश्यकता है। हमारा लक्ष्य केवल आयातित कलपुर्जे जोड़ना नहीं होना चाहिए बल्कि उत्पादन, तकनीकऔर नवाचार के जरिये मूल्यवर्धन भी करना चाहिए। द्विपक्षीय व्यापार समझौतों की राह में एक बाधा कृषि और डेरी क्षेत्र को खोलने में हिचकिचाहट भी है। यह सोचना उचित नहीं है कि इन क्षेत्रों में अत्यधिक खुलापन कृषि और डेरी उत्पादों के क्षेत्र में आयात को बढ़ा देगा।
बीते वर्षों में अत्यधिक उर्वरक और कीटनाशक इस्तेमाल करने वाली नीतियों पर बल दिया गया। नीतियों में भी उत्पादकों के बजाय उपभोक्ताओं को तरजीह दी गई और मुफ्त पानी और बिजली के कारण मिट्टी में खारापन बढ़ा। फसलों में विविधता अपनाना भी कम हुआ। इन सब वजहों से उत्पादन में ठहराव आया।
कृषि उत्पादकता बढ़ाने का इकलौता तरीका है दूसरी हरित क्रांति को अपनाना जो तभी संभव है जब हम जीएम फसलों को लेकर अपनी हिचकिचाहट से निजात पाएं, नवाचार को अपनाएं, बेहतर बीज इस्तेमाल करें और उर्वरकों का संतुलित इस्तेमाल करें। सांस्कृतिक और धार्मिक चिंताएं भी हद से अधिक बढ़ाचढ़ाकर पेश की गई हो सकती हैं। विदेश यात्रा पर जाने वाले कई भारतीयों को जीएम फसलों और मांसाहारी पशुओं के दूध को लेकर कोई खास समस्या नहीं होती।
देश के सकल मूल्यवर्धन में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी केवल 14 फीसदी है। अब हमें बेहतर भविष्य की दिशा में प्रयास करना चाहिए। बदलाव की राह में राजनीतिक बाधाएं बहुत हैं लेकिन यही अवसर है कि हम दायरा बढ़ाएं, राज्यों का सहयोग लें और समयबद्ध योजना के साथ काम करें जिसका इस्तेमाल व्यापार वार्ताओं में भी हो सके। किसानों की तकदीर संवारने का इकलौता तरीका है उत्पादकता में सुधार करना न कि संरक्षण के नाम पर उनको मुश्किल में डालना।
(लेखक कर्नाटक क्षेत्रीय असंतुलन समाधान समिति के अध्यक्ष हैं। वह 14वें वित्त आयोग के सदस्य और एनआईपीएफपी के निदेशक रह चुके हैं।)