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भारत को पुराने नजरियों से देखना और पाकिस्तान से तुलना अनुचित

अगर अमेरिका, जो भारत को अपना सहयोगी मानता है, इस क्षेत्र को भारत-पाकिस्तान के चश्मे से देखता है, तो यह अस्वीकार्य है। यह भारत के प्रभाव क्षेत्र को मान्यता देने के बजाय उसे कमज

Last Updated- June 15, 2025 | 11:04 PM IST
India and Pakistan
प्रतीकात्मक तस्वीर

अगर भारत को सहयोगी मानने वाली इकलौती महाशक्ति भी इस क्षेत्र को भारत-पाकिस्तान को आमने-सामने रखकर एक चश्मे से देखती है तो यह स्वीकार्य नहीं है। यह बात भारत के प्रभाव को बढ़ाने के बजाय उसे कम करती है।

किसी खोटे सिक्के की तरह एच शब्द एक बार फिर हमारे साथ जुड़ गया है। एच यानी हाइफन जो हमें पाकिस्तान के साथ रखता है। इसकी वापसी अवांछित है क्योंकि एक के बाद एक हमारी सरकारों ने दशकों तक मेहनत करके हमें इससे निजात दिलाई थी। एक जमाने में बड़ी शक्तियां (पढ़ें अमेरिका) हमारा और पाकिस्तान का नाम एक साथ लेकर एक तरह की समकक्षता का परिदृश्य तैयार करती थीं। हमने उससे छुटकारा पाया था लेकिन अब वह वापसी करता दिख रहा है। अब तीन चीजें हो सकती हैं।

पहली चीज को हम जीरो-सम गेम कह सकते हैं जहां एक का लाभ और दूसरे की हानि बराबर हों। अगर अमेरिका उपमहाद्वीप को इस तरह देखता है तो उसे इस रिश्ते में संतुलन बनाकर चलना होगा। एक का लाभ दूसरे का नुकसान है। भारत को यह तुलना नापसंद है। वह अपना कद अलग मानता है और पाकिस्तान के साथ तुलना उसकी अवमानना है।

दूसरी बात है ‘कद से इनकार।’ अपनी बढ़ती व्यापक राष्ट्रीय शक्ति की बदौलत भारत मानता है कि उसे एक प्रभावी स्थान हासिल है। अगर अमेरिका जैसा साझेदार भी इस क्षेत्र को भारत-पाकिस्तान को बराबरी पर रखकर देखेगा तो यह अस्वीकार्य है। यह बात भारत के कद को घटाती है। यह दोहरी मुश्किल है क्योंकि चीन पहले ही भारत के उभार को नकार रहा है। भारत अमेरिका से यही उम्मीद करेगा कि वह उसका समर्थन करे जबकि वह पाकिस्तान को खुश करने वाली बातें कर रहा है। जबकि हम उम्मीद कर रहे थे कि क्वाड के जरिये चीन को नियंत्रित करने में हम साझेदार हैं।

तीसरी बात, इसका अर्थ है ‘एम’ शब्द की वापसी जो हमें पसंद नहीं। यहां एम शब्द से तात्पर्य मीडिएशन यानी मध्यस्थता से है। भारतीय जनमानस के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पिछले दशकों में हुई प्रगति को यह कहकर मिट्टी में मिला दिया कि उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम कराया। अब हम जानते हैं कि उनकी रुचि मध्यस्थता में नहीं बल्कि श्रेय लेने में थी। उन्होंने कहा कि कोई उनको श्रेय नहीं दे रहा है जबकि उन्होंने परमाणु युद्ध रुकवाया। पाकिस्तान को लग रहा है कि इस क्षेत्र में ट्रंप की नई अभिरुचि परमाणु युद्ध के डर से उत्पन्न हुई है।ऐसे में उन्हें लगता है कि वे दुनिया का ध्यान दोबारा परमाणु खतरे की ओर ले आने में कामयाब रहे हैं जबकि भारत ने दशकों की मेहनत से आतंक के खिलाफ वैश्विक साझेदारी का माहौल बनाया था। बिलावल भुट्‌टो का बयान इसकी बानगी है जिन्होंने अपनी चिरपरिचित अतिरंजित शैली में कहा कि जरूरत पड़ी तो अमेरिका भारत को कान पकड़कर बातचीत के लिए राजी करेगा। पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान ने हताशा में अमेरिका के साथ खोया रिश्ता दोबारा कायम करने में सबकुछ झोंक दिया है। परंतु ट्रंप पर भरोसा करने वालों का अंत हमेशा एक दुखद गीत से हुआ है: ‘इक बेवफा से प्यार किया…हाय रे हम ने ये क्या किया।’ ट्रंप केवल लेनदेन पर यकीन करते हैं उनकी वफादारी किसी के प्रति नहीं है। वह भी अपने घरेलू समर्थकों को लेकर उतने ही सजग हैं जितने कि भारत में नरेंद्र मोदी।

अच्छी बात यह है कि हमारा नीतिगत प्रतिष्ठान अभी भी भावुक होकर टिप्पणी नहीं कर रहा है और उसने सार्वजनिक रूप से कोई चिंता नहीं दिखाई। वह उस मुद्दे पर काम कर रहा है जो इस वक्त सबसे अहम है यानी भारत-अमेरिका व्यापार समझौता। अगर यह कामयाब रहा तो काफी दिक्कतें दूर हो जाएंगी। इस बीच किसी ने भी ‘के’ शब्द का जिक्र नहीं किया है। कोई यह नहीं कह रहा है कि भारत और पाकिस्तान को कश्मीर पर बातचीत करनी चाहिए और यह भी कि हम मध्यस्थता करना चाहते हैं। मैं तो यह भी नहीं कह सकता कि ट्रंप कश्मीर मुद्दे से अवगत भी हैं या नहीं।

कहने का अर्थ यह कि ट्रंप इतिहास, तथ्यों और विचारधारा से परे दुनिया को अपने ही नज़रिये से नया स्वरूप देने में लगे हैं। वह नॉटो को बेतुका बना रहे हैं, उन्होंने पश्चिमी गठबंधन का मखौल उड़ाया, कनाडा के प्रधानमंत्रियों का लगातार मजाक उड़ाया और बेंजामिन नेतन्याहू के साथ भी वह धैर्य का परिचय बिल्कुल नहीं दे रहे हैं। उन्हें वोलोदीमिर जेलेंस्की नापसंद हैं जबकि व्लादीमिर पुतिन उन्हें पसंद हैं। उनका ताजा बयान देखिए: ‘पुतिन कह रहे हैं कि दूसरे विश्व युद्ध में उनके 5.1 करोड़ लोग मारे गए और हम साझेदार थे। अब हर कोई रूस से नफरत करता है और उन्हें जर्मनी और जापान से प्यार है। इसे समझाइए। यह दुनिया अजीब है।’ यह उम्मीद करना सही नहीं कि एक ऐसा व्यक्ति जो इतिहास की फिक्र किए बिना दुनिया को अपने नज़रिये से बदलने की कोशिश कर रहा है वह पाकिस्तान के साथ अपना जिक्र न किए जाने की हमारी चिंता को समझेगा।

मोदी सरकार ने सोशल मीडिया के शोरगुल की अनदेखी करके सही किया है। अमेरिकी उप विदेश मंत्री पद के लिए नामित पॉल कपूर ने अपनी नियुक्ति वाली समिति के समक्ष जो बयान दिया है वह परिपक्व और भारत के लिहाज से बेहतर है। लेकिन उनकी एक पंक्ति ने भारत में अनेक लोगों को नाराज किया है जिसमें उन्होंने कहा था कि जहां अमेरिकी हितों के लिए जरूरी होगा वह पाकिस्तान के साथ काम करने को तैयार हैं।

सेंटकॉम कमांडर जनरल माइकल कुरिल्ला ने पाकिस्तान को आतंक के विरुद्ध एक जबरदस्त सहयोगी बताया है। यह बयान पेंटागन के एक जरूरी भू-सामरिक विभाजन से आता है जिसके तहत सेंटकॉम पाकिस्तान और भारत दोनों को पैसिफिक कमांड के तहत मानता है।

अपराध कवर करने वाले पत्रकार आपको बताएं कि किसी भी थाना प्रभारी की पहली कोशिश होती है कि उसके थाना क्षेत्र में अपराध कम हों भले ही इसके लिए उसे बुरे से बुरे व्यक्ति से सौदेबाजी करनी पड़ी। पैसिफिक कमांड के मुखिया से आपको एक अलग जवाब मिल सकता है। इससे बढ़कर अफवाहें फैलाने वाले हमारे खबरिया चैनलों ने खुद यह कहानी गढ़ ली कि पाकिस्तान के नए फील्ड मार्शल बने सेनाध्यक्ष को अमेरिकी आर्मी डे परेड के लिए आमंत्रित किया गया है। वो तो व्हाइट हाउस ने खंडन किया कि ऐसे किसी अतिथि को नहीं बुलाया जा रहा है।

आखिर में, हम यह देख सकते हैं कि हमारे संकट में विदेशी संबद्धता का क्या अर्थ हुआ है। इससे हमें मध्यस्थता, हस्तक्षेप और संबद्धता के बीच फर्क करने में मदद मिलेगी। शीतयुद्ध के पश्चात भारत को मानवाधिकार के मुद्दे पर चार सालों तक अमेरिका का जबरदस्त दबाव झेलना पड़ा। परंतु सुधारों के बाद जैसे-जैसे भारत का आर्थिक विकास हुआ, उसका कद भी बढ़ा। 1998 तक समीकरण बदलने लगे थे। क्लिंटन ने अपने दूसरे कार्यकाल में परमाणु हथियार संपन्न भारत की हकीकत को स्वीकार किया। 1999 में उसने करगिल संकट के दौरान अत्यधिक रचनात्मक भूमिका निभाई। बिल क्लिंटन ने नवाज शरीफ की खिंचाई ही नहीं कि बल्कि उन्हें 4 जुलाई को अमेरिकी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर करगिल से पीछे हटकर अपनी इज्जत बचाने का अवसर भी दिया। ऑपरेशन पराक्रम के दौरान अमेरिका के बारंबार हस्तक्षेप और ने दोनों पक्षों को शांत रहने में मदद की। 26/11 के हमले के बाद आतंक से लड़ाई में एकजुटता और उसके बाद की साझेदारी ने दो उद्देश्यों को पूरा करने में मदद की: पहला, भारत और पाकिस्तान को एक पलड़े में रखना बंद किया गया और दूसरा पाकिस्तान के सीने पर ‘आतंकी देश’ का बिल्ला चिपका रहा।

परंतु वक्त बदलता है। ट्रंप की वापसी के बाद भी वह बदला। इस उपमहाद्वीप में हर संकट को हल करने में अमेरिका की भूमिका रही। ट्रंप ने केवल भाषा बदली वह पुरानी कूटनीतिक भाषा के बजाय पांच साल के बच्चे की तरह श्रेय चाहते हैं। यही नई हकीकत है। खासकर अमेरिका के दोस्तों और साझेदारों के लिए।

उपसंहार- 2001 में जब परवेज मुशर्रफ आगरा शिखर बैठक के लिए आए थे तब वाजपेयी ने नई दिल्ली के होटल ताज पैलेस के सबसे बड़े बैंक्वेट हॉल में उनके लिए दोपहर भो रखा था। वह इतने चतुर थे कि उन्होंने उसमें फारुख अब्दुल्ला को भी बुलाया और उन्हें मुशर्रफ से एक टेबल की दूरी पर ही बिठाया। तय योजना के मुताबिक मीठा खाते वक्त फारुख उठकर एक बड़ी रहस्यमय मुस्कान के साथ मुशर्रफ के पास गए और बोले, ‘अरे ये देखिए, ये तो तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप हो गया।’ वहां मौजूद हर शख्स हंस पड़ा।

 

First Published - June 15, 2025 | 11:04 PM IST

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