Russia-Ukraine War: रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला करने के दो वर्षों में दुनिया में क्या परिवर्तन आया है? भविष्य की भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक राष्ट्रीय नीतियों पर इसका क्या असर पड़ सकता है? क्या यह केवल यूरोपीय युद्ध है जो शेष विश्व पर भी कुछ न कुछ असर छोड़ेगा, बशर्ते कि हम खाद्य और ईंधन आपूर्ति श्रृंखला पर इसके प्रभाव का प्रबंधन कर सकें? मुझे ऐसा नहीं लगता। वास्तव में तीन ऐसी प्रवृत्तियां हैं जिनके लिए हमें राष्ट्रीय स्तर पर नीतियों को लेकर अपने सोच में परिवर्तन की आवश्यकता होगी, खासकर भारत में।
पहली बात दुनिया पहले की तुलना में अधिक बंटी हुई है। वर्ष 2021 में ऐसी भावना थी कि दुनिया एक नए शीत युद्ध की दिशा में बढ़ रही है जहां दो धड़े प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। पश्चिमी देश या चीन आपस में जुड़े हुए थे लेकिन उनकी व्यवस्थाएं एक दूसरे से अलग थीं। दोनों धड़े अपनी-अपनी सोच के अनुकूल देशों को तलाश रहे थे ताकि एक दूसरे के खिलाफ नए गठजोड़ कायम किए जा सकें।
यह प्रक्रिया अब भंग होती नजर आ रही है। चीन समर्थक धड़े के सबसे प्रमुख देश रूस ने पश्चिम के खिलाफ हथियार उठा लिया है लेकिन बहुत कम रूसी मानेंगे कि यह उनकी ओर से चीन पर निर्भरता स्वीकार करने की इच्छा का प्रतीक है। पश्चिम विरोधी होने का अर्थ यह नहीं है कि आप चीन समर्थक माने जाएं। हां, चीन आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से रूस का पहले से कहीं अधिक गहरा साझेदार बन गया है लेकिन रूस अपने स्वतंत्र प्रभाव के केंद्रीय दर्जे को लेकर भी नए ढंग से सचेत है। इस बीच चीन जो स्थिरता पसंद करता है, उसे अपने विशाल उत्तरी पड़ोसी के अप्रत्याशित व्यवहार की याद दिला दी गई है।
यह भी कहा जाता है कि अटलांटिक पार के रिश्ते मजबूत हुए हैं। उदाहरण के लिए उत्तर अटलांटिक संधि संगठन का विस्तार हुआ है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने सावधानीपूर्वक यह सुनिश्चित किया है कि सुरक्षा के मोर्चे पर यूरोपीय साझेदारों तक अमेरिका की पहुंच रहे। रूस के आक्रमण ने यूरोप को याद दिलाया है कि उसे उसे ताकत जुटाने की आवश्यकता है।
इस बीच यूक्रेन की मदद के विचार (मोटे तौर पर यूरोप की सुरक्षा) को अमेरिका में कोई खास लोकप्रियता नहीं हासिल है। इन प्रक्रियाओं का अंतिम निष्कर्ष यही है कि यूरोप अमेरिका पर कम भरोसा कर पा रहा है और दुनिया में अपना रास्ता बनाने के लिए वह अधिक प्रोत्साहित है। अमेरिकी अपनी औद्योगिक नीति को बढ़ावा देकर तथा यूरोपीय प्रतिस्पर्धियों की कीमत पर अपने उद्योग को सब्सिडी देकर इस प्रक्रिया में आर्थिक रूप से मदद पहुंचा रहे हैं।
इस बीच भारत जैसे कुछ देश जो वैश्विक मामलों में धीरे-धीरे चीन विरोधी और इस प्रकार पश्चिम समर्थक रुख अपनाते दिख रहे थे उनके यहां प्रक्रिया धीमी हुई है क्योंकि उनके यहां बीते दो वर्षों में रूस समर्थक माहौल बना है। संप्रभुता की रक्षा (यह लंबे समय तक वैश्विक मामलों में भारत के हस्तक्षेप के मामलों में प्राथमिक तर्क रहा है) के नाम पर पश्चिम के साथ एकजुट होने के बजाय भारत सरकार यूक्रेन मामले में खुद को पश्चिम के नजरिये से अलग दिखाने के लिए संघर्ष करती रही है।
भारत में और उसके बाहर नीतियों में बदलाव आया है और उनमें द्विपक्षीय व्यवस्था के दोनों ध्रुवों से स्वायत्तता और स्वतंत्रता पर जोर बढ़ा है। ऐसे में द्विपक्षीय व्यवस्था की संभावना कम है। दूसरा, युद्ध के नियम भी बदले हुए प्रतीत होते हैं। पहली बात, पहले यूक्रेन और फिर रूस ने आक्रामक हमलों की शुरुआत की लेकिन वे विफल रहे क्योंकि उनमें पहले विश्व युद्ध की शैली में विशाल सेनाओं का इस्तेमाल किया गया। हवाई जंग जिसने पिछले दशकों में अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधनों की जीत तय की, वे लड़ाई का नतीजा तय कर पाने में विफल रहे हालांकि यूक्रेन के शहरों पर मिसाइल हमले होते रहे। हवाई कवर के बजाय इस मोर्चे का नियंत्रण सस्ते मानवरहित विमानों से तय हो सकता है।
ऐसे ही ड्रोनों की मदद से रूस के ब्लैक सी बेड़े के प्रभाव को कम किया गया। निश्चित रूप से समुद्री हमलों से निपटने के लिए भी सस्ते उपाय किए जा रहे हैं। लाल सागर में हूती विद्रोहियों से निपटने में इसका प्रयोग किया गया। इसके व्यापक प्रभाव परेशान करने वाले हैं। युद्ध लड़ने की लागत में आने वाली कमी सैन्य कदमों की सीमा कम हो जाती है। इससे गैर राज्य कारकों और निजी सैन्य कंपनियों को एक बार फिर इस प्रक्रिया में शामिल होने का मौका मिल रहा है। आपूर्ति श्रृंखलाओं को सुरक्षित रखना फिर से मुश्किल हो रहा है।
ऐसे में न केवल आक्रमण बल्कि यूक्रेनियन युद्ध लड़ने की वास्तविक प्रक्रिया ने एक नई और अपेक्षाकृत अधिक अव्यवस्थित दुनिया की शुरुआत की है। राष्ट्रीय नीतियों में सुरक्षा के अधिक बुनियादी कार्य को प्राथमिकता देनी होगी जिन्हें शायद पिछले दशकों के दौरान भुला दिया गया।
नीति का अंतिम निहितार्थ यह है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली जिसे एक समय सार्वजनिक बेहतरी अथवा वैश्विक स्तर पर साझा में से एक माना जाता था उसे अब ऐसे देखा जा रहा है जिसे पश्चिम आसानी से हथियार के रूप में इस्तेमाल कर लेता है। स्विफ्ट वैश्विक बैंकिंग लेनदेन प्रणाली को जल्दी बंद करने ने भी पहले से चली आ रही आशंकाओं को बलवती बनाया है। ये आशंकाएं ईरान जैसे देशों पर प्रतिबंध के पहले दौर से उत्पन्न हुई थीं। इन आशंकाओं का मानना था कि वैश्विक वित्तीय व्यवस्था पर सरकारी शक्तियां बहुत जल्दी काबिज हो सकती हैं।
अगर रूसी केंद्रीय बैंक की पश्चिम में जमा सैकड़ों अरब डॉलर की राशि जब्त की जाती है तो यह घटना भविष्य पर बहुत गहरा असर डालेगी। एक ओर तो यह बहुत आकर्षक नजर आता है, खासकर यह देखते हुए कि यूक्रेन युद्ध में संसाधनों की कमी हो रही है क्योंकि अमेरिका में राजनीतिक स्तर पर एक तरह की शिथिलता व्याप्त है। दूसरी ओर इससे निस्संदेह वैश्विक व्यवस्था का एक स्तंभ कमजोर होगा जिसे बचाने की इच्छा का दावा पश्चिम करता है। केंद्रीय बैंकिंग और वित्तीय स्थिरता के लिए नीतिगत प्रभाव अस्पष्ट हैं लेकिन वे अहम हो सकते हैं।
भारत सरकार पर यह दबाव रहा है कि दो वर्ष पहले शुरू हुए इस संकट को लेकर अपनी प्रतिक्रिया दे। परंतु उसने वैश्विक प्रभाव वाली यूरोपीय समस्या के रूप में दर्शाना चुना। हकीकत में यूक्रेन युद्ध ने कुछ वैश्विक रुझानों को स्पष्ट कर दिया है तथा अन्य को गति प्रदान की है तथा कुछ अन्य को धीमा कर दिया है।
भारत को सैन्य से लेकर वित्तीय क्षेत्र तक अब तक की तुलना में अधिक सुविचारित नीतिगत रुख अपनाने की आवश्यकता होगी। अगर यूक्रेन में गतिरोध बना रहता है या शांति स्थापित हो जाती है तो भी यथास्थिति पर वापस लौटना संभव नहीं है। यूक्रेन युद्ध के बाद बनी नई व्यवस्था में अलग तरह की नीतियों की आवश्यकता होगी तभी राष्ट्रीय और आर्थिक सुरक्षा संभव होगी।