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लहलहाती रहे चावल की फसल: भारत की सफलता में तकनीक और नीतियों की भूमिका

चूंकि भारत गेहूं का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक भी है, इसलिए उसे वैश्विक खाद्यान्न शक्तियों में गिना जाना चाहिए। बता रहे हैं

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सुरिंदर सूद   
Last Updated- July 01, 2025 | 11:26 PM IST

भारत ने 14.9  करोड़ टन से अधिक के अनुमानित चावल उत्पादन के साथ दुनिया के सबसे बड़े चावल उत्पादक के रूप में अपनी जगह बनाई है और इस कारण चीन दूसरे स्थान पर आ गया है। सबसे ज्यादा खपत होने वाले अनाज में चावल शुमार है। भारत वर्ष 2012 से ही चावल का शीर्ष निर्यातक देश रहा है जिसका वैश्विक चावल व्यापार में लगभग 40 फीसदी योगदान है। इसके अलावा, सरकार के पास लगभग 5.95 करोड़ टन का बड़ा चावल भंडार है जो इस साल के 1.35 करोड़ टन के बफर स्टॉक मानदंड से चार गुना अधिक है।

भारत गेहूं का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और एक स्थापित निर्यातक भी है भले ही इसमें थोड़ा बहुत फेरबदल हाेता रहा हो। इस तरह भारत को खाद्यान्न के दुनिया के सबसे प्रमुख शक्ति केंद्रों में गिना जाना चाहिए और साथ ही यह अंतरराष्ट्रीय खाद्य बाजार में एक प्रमुख खिलाड़ी बनने की स्थिति में भी है। इसे एक बेहतर उपलब्धि मानी जा सकती है खासतौर पर ऐसे देश के लिए जिसे 1.4 अरब की बड़ी आबादी को खुराक मुहैया कराना है और जिसके कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छोटे और सीमांत भूमि वाले लोगों की अधिकता है।

इसका श्रेय चावल क्षेत्र से जुड़े सभी हितधारकों को जाता है, विशेष रूप से कृषि वैज्ञानिकों को जिन्होंने चावल की उन्नत किस्में बनाने के साथ-साथ फसल उत्पादन तकनीक का विकास करने के साथ ही उसे अद्यतन भी किया और साथ ही किसानों को इस योग्य बनाने में अहम भूमिका निभाई कि वे पड़े पैमाने की बाधाओं के बावजूद नई तकनीकों को आसानी से अपनाएं। इसमें अनुकूल खाद्य-प्रबंधन नीतियों ने भी योगदान दिया है जिसमें रियायती कच्चे माल की आपूर्ति और पूर्व निर्धारित कीमतों (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर उपज की निश्चित मार्केटिंग भी शामिल है।

हालांकि हरित क्रांति 1960 के दशक में गेहूं उत्पादन में सफलता के साथ शुरू हुई जिसका प्रमुख कारण गेहूं की बौनी और अधिक उत्पादकता वाले मेक्सिकन किस्मों की उपलब्धता रही है। इसने ही बीजों के स्वदेशी संकर किस्में बनाने का आधार तैयार किया और फिर चावल में भी इसका अनुसरण करने में देर नहीं लगी। चावल उत्पादन में उछाल भी 1966 में एक अधिक उपज वाली किस्म, आईआर-8 की शुरुआत से आई जिसे फिलिपींस के एक संस्थान, इंटरनैशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट में एक इंडोनेशियाई किस्म ‘पेटा’ को चीन की किस्म ‘डी जियो वू जेन’ के साथ एक संकर बीज के रूप में तैयार किया गया था।

आईआर-8 की कुछ खासियतों में छोटे और मजबूत तने का होना शामिल है, जिसके कारण हवाओं और उर्वरकों की अधिक मात्रा के बावजूद पौधे आसानी से नहीं गिरते हैं। बाद में इन्हें भारतीय चावल की किस्मों में भी शामिल किया गया जिससे अधिक उपज वाली चावल की शुरुआती किस्में जैसे ‘जया’ और ‘रत्ना’ तैयार की गईं और इन किस्मों ने चावल क्रांति की नींव रखी। इन किस्मों और बाद में तैयार हुई बेहतर किस्मों का प्रभाव जबर्दस्त था जिससे चावल के उत्पादन में तेज वृद्धि हुई। भारत में अब दुनिया के सबसे व्यापक चावल की किस्में तैयार करने का कार्यक्रम चलाया जाता है ताकि लगातार बेहतर उत्पादकता, बेहतर गुणवत्ता वाली और कीटों, बीमारियों तथा जलवायु से जुड़े दबावों को झेलने की क्षमता रखने वाली नई चावल किस्मों का उत्पादन हो।

पिछले एक दशक में ही चावल उत्पादन 10.5 करोड़ टन से बढ़कर 14.9 करोड़ टन के नए शीर्ष स्तर पर पहुंच गया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस अवधि के दौरान चावल का क्षेत्र 4.35 करोड़ हेक्टेयर से बढ़कर 5.15 करोड़ हेक्टेयर हो गया है, लेकिन इस वृद्धि में प्रमुख योगदान, फसल उत्पादकता में बढ़ोतरी का है जो 3.6 टन से 4.32 टन प्रति हेक्टेयर हो गया है। हालांकि मौजूदा दौर में भारत की औसत उपज अब भी 4.47 टन प्रति हेक्टेयर की वैश्विक औसत उत्पादकता से कम है लेकिन वास्तव में उपलब्ध तकनीक के साथ इस अंतर को पाटा जा सकता है। पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे खेती के लिहाज से प्रगतिशील राज्यों में 5-6 टन प्रति हेक्टेयर की चावल उपज बेहद आम है। उपलब्ध चावल की किस्मों की उपज क्षमता काफी अधिक है जो भारत की, दुनिया के अग्रणी चावल उत्पादक के रूप में स्थिति मजबूत करने के लिए चावल उत्पादन में और वृद्धि की गुंजाइश के संकेत देती है।

हालांकि, चावल की खेती के चिंताजनक पहलू भी हैं जिसके कारण चावल क्रांति की स्थिरता को संभावित रूप से खतरा हो सकता है। अधिकांश धान उत्पादक क्षेत्रों में फसल के लिए आवश्यकता से कहीं अधिक पानी का उपयोग किया जाता है जिससे चावल उगाने वाले विशेष क्षेत्रों जैसे कि उत्तर-पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्रों के जलविज्ञान की स्थिति बिगड़ती है। पानी का अत्यधिक उपयोग, धान के खेतों से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ाता है जिससे पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियां और चिंताएं बढ़ती हैं।

औसतन, 1 किलोग्राम धान उगाने के लिए लगभग 1,500 लीटर पानी का उपयोग किया जाता है। यह 600 लीटर की आवश्यकता का करीब ढाई गुना है। नतीजतन, सिंचाई के पानी का लगभग 45-50 फीसदी हिस्सा फिलहाल केवल धान द्वारा उपयोग किया जा रहा है। ऐसे में सीधी बोआई और धान के खेतों को गीला करने और सुखाने के लिए वैकल्पिक प्रणालियों का इस्तेमाल कर चावल की खेती के लिए पानी का प्रभावी इस्तेमाल जरूरी है।

सीधी बोआई के तरीके में नर्सरी में बीज उगाने और फिर पानी से भरे खेतों में रोपाई के बजाय नम मिट्टी में बीज बोने का विकल्प शामिल है। बाद में भी, खेत को हर समय पानी में डुबाए रखने के बजाय केवल नम रखा जाता है। खेतों को वैकल्पिक तरीके से गीला रखने और सुखाने की प्रणाली में खेत में पानी भरा जाता है और फिर इसे सिंचाई करने से पहले सूखने दिया जाता है। यह प्रणाली 30-60  फीसदी पानी बचाने में मदद करती हैं और इसके अलावा ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन को कम करती है। इसके अलावा फसल की उत्पादकता में कमी लाए बिना उर्वरकों, कीटनाशकों और श्रम की जरूरत भी कम करती है।

चावल उत्पादन में स्थायी वृद्धि सुनिश्चित करने और चावल के सबसे बड़े उत्पादक और निर्यातक के रूप में भारत की स्थिति मजबूत करने के लिए ऐसी तकनीकों को व्यापक पैमाने पर बढ़ावा देना महत्त्वपूर्ण है।

 

First Published : July 1, 2025 | 10:42 PM IST