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उचित है जमा वृद्धि पर रिजर्व बैंक की चिंता, ऋण और जमा के बीच संतुलन बनाना अनिवार्य

केंद्रीय बैंक का जमा राशि में इजाफा करने संबंधी आह्वान दरअसल खुदरा जमा में वृद्धि से संबंधित है। बता रहे हैं टीटी राम मोहन

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टी टी राम मोहन   
Last Updated- September 20, 2024 | 9:50 PM IST

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने बैंकों से जमा में वृद्धि की गति बढ़ाने को कहा है। उनके इस आह्वान की आलोचना हुई है और कुछ लोगों ने तो इसका मखौल तक उड़ाया है। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि जमा की दिक्कत पूरी तरह काल्पनिक है और ऋण देते समय बैंकों के पास जमा की कमी नहीं पड़ती। वे गलत सोचते हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर की चिंताएं वाजिब हैं और आलोचकों की दलीलों की गहराई से पड़ताल करने पर यह बात स्पष्ट हो जाएगी।

बचतकर्ता खास तौर पर युवा बचतकर्ता जमा के विकल्प के तौर पर म्युचुअल फंड और बीमा योजनाओं की तरफ खिंच रहे हैं। बैंकों को इससे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि म्युचुअल फंड और बीमा कंपनियों के पास जाने वाली रकम जमा के रूप में बैंकों के पास ही आ जाती है।

यह सही है कि म्युचुअल फंड और बीमा योजनाओं में लगाई गई राशि बैंकों के पास ही पहुंच जाती है। लेकिन जब बचतकर्ता बैंकों में निवेश करते हैं तो वे अपेक्षाकृत लंबी परिपक्वता अवधि वाली बचत या सावधि जमा (एफडी) का चयन करते हैं। म्युचुअल फंड या बीमा कंपनियों में जो रकम बैंकों में जमा होती है, वह चालू खाते में जमा या बहुत छोटी अवधि की एफडी के रूप में आती है। बचत खाते में जमा रकम के मुकाबले एफडी ज्यादा अस्थिर होती है। इस कारण बैंक ऋण देने के लिए चालू खाते या बेहद कम अवधि वाली एफडी की रकम का इस्तेमाल नहीं कर पाते।

ऋण से जमा राशि आती है न कि जमा राशि से ऋण दिए जाते हैं। इसलिए यह धारणा ही गलत है कि जमा के कारण ऋण वृद्धि में रुकावट आ रही है। बैंक लेजर में एक प्रविष्टि करके ऋण बना सकते हैं। उसके बाद बैंक ऐसी ही प्रविष्टि अपनी बैलेंस शीट के देनदारी वाले हिस्से में करते हैं। इसलिए बैंक ऋण और जमा को चुटकियों में पैदा कर सकते हैं। मगर जब कर्जदार भुगतान करने के लिए चेक जारी करता है तो जमा के मद में धन मौजूद होना जरूरी है। तात्कालिक आवश्यकता के लिए बैंक केंद्रीय बैंक से अथवा अंतर-बैंक बाजार से राशि ले सकते हैं।

ऐसी उधारी की सीमा होती है। खुद को स्थिर रखने के लिए बैंकों को किसी मध्यस्थ संस्था से रकम लेने के बजाय बचतकर्ताओं के ही पास जाकर जमा रकम जुटानी होती है। ऐसे में यह बात मायने रखती है कि ऋण देने के लिए रकम कैसे जुटाई गई है।
जमा वृद्धि का संबंध केंद्रीय बैंक द्वारा धनराशि के निर्माण से है। अगर केंद्रीय बैंक ही धन तैयार नहीं कर पा रहा है तो जमा में धीमी वृद्धि के लिए बैंकों पर दोष मढ़ना सही नहीं है। अगर केंद्रीय बैंक मुद्रा की आपूर्ति बढ़ाना चाहता है तो वह खुले बाजार के रास्ते बैंकों से बॉन्ड खरीद सकता है ताकि बैंकों के पास धन का भंडार बढ़ जाए।

धन की आपूर्ति भी मुद्रा और जमा के जोड़ के बराबर होती है। धन की आपूर्ति बढ़ती है तो जमा भी बढ़ती जाती है। ऊपर के दो समीकरणों को मिलाएं तो जमा में तेजी से इजाफा नहीं होने पर माना जाता है कि केंद्रीय बैंक पर्याप्त धन तैयार नहीं कर पा रहा है।

इस दलील में दो चूक हैं। पहली, केंद्रीय बैंक केवल जमा बढ़ाने के लिए खुले बाजार का परिचालन नहीं कर सकता और बैंक के पास धन का भंडार नहीं बढ़ा सकता। खुले बाजार का परिचालन किसी भी समय दर का लक्ष्य हासिल करने के लिए ही किया जाता है। दूसरी, हमें यह भी स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि धन के भंडार में वृद्धि से जमा में इजाफा किस तरह होता है। बढ़ते हुए ऋण के बराबर बढ़ी हुई जमा भी बैंक की बैलेंस शीट में होनी चाहिए। इसलिए धन की आपूर्ति बढ़ने पर हमें जमा में वृद्धि भी दिखती है।

किंतु यदि नकदी और ब्याज दर के जोखिम को सही से संभालना है तो बढ़ती हुई जमा प्रविष्टियों के बराबर धन भी जमा के रूप में होना चाहिए। अब देखते हैं कि ऋण के लिए रकम जिस जमा के जरिये लाते हैं, उसके प्रकार का क्या महत्त्व है। जमा रकम चालू खाते से आ सकती है, बचत खाते से आ सकती है और सावधि जमा के रूप में भी आ सकती है। चालू खातों पर कोई ब्याज नहीं दिया जाता, इसलिए वहां ब्याज दर का जोखिम ही नहीं होता। लेकिन जैसा पहले बताया गया है, चालू खाते में जमा रकम से तरलता या नकदी का बड़ा जोखिम होता है।

चालू खाते के उलट बचत खाते में जमा रकम पर ब्याज देना होता है। लेकिन इस ब्याज की दर सावधि जमा की तुलना में काफी कम होती है और छोटे से दायरे में ऊपर-नीचे होती है। इसलिए वहां भी ब्याज दर का जोखिम बहुत कम होता है। अगर बचत जमा रिटेल किस्म की है तो उन्हें काफी स्थिर माना जाता है यानी तरलता का जोखिम बहुत कम होता है।

सावधि जमा में ब्याज दर अधिक होती है लेकिन खुदरा सावधि जमा को कंपनी एफडी की तुलना में ज्यादा स्थिर माना जाता है क्योंकि कंपनी एफडी बहुत कम अवधि की होती हैं। नकदी का जोखिम कम करने के लिहाज से 2 करोड़ रुपये से कम की खुदरा जमा को सबसे ज्यादा तरजीह दी जाती है। उसके बाद 5 करोड़ रुपये से कम की खुदरा जमा पसंद की जाती हैं। इसलिए समझना होगा कि बैंकों से जमा बढ़ाने के आह्वान में बड़ी रकम वाली थोक जमा नहीं बल्कि खुदरा जमा बढ़ाने की बात कही गई है।

कई बैंकों के लिए यह चुनौती साबित हो रहा है। बैंकों को लगा कि वे ऑनलाइन बैंकिंग के जरिये बेहद कम खर्च पर खुदरा जमा हासिल कर सकते हैं। इसीलिए उन्होंने अपनी शाखाओं का नेटवर्क फैलाने में काफी कम निवेश किया। अब उन्हें होश आ गया है और पता लग गया है जमा हासिल करने के लिए शाखाएं कितनी महत्त्वपूर्ण हैं। किंतु देश में जमा में वृद्धि के नए केंद्र तैयार हो रहे हैं, जिनके हिसाब से उन्हें अपनी शाखाएं भी बदलनी पड़ेंगी।

कई निजी बैंक तय न्यूनतम सीमा से अधिक राशि रखने पर बचत खातों में भी एफडी के बराबर ब्याज दे रहे हैं। इसे बचत जमाओं के विचार को विद्रूप बनाना कहा जा सकता है। बचत जमा में आम तौर पर ब्याज दर कम होती है क्योंकि बैंक उनमें भुगतान सेवा भी मुहैया कराते हैं। जमाकर्ता को कम ब्याज दर से कोई शिकायत नहीं होती, इसलिए बचत जमा की ब्याज दरें नीतिगत दरों में बदलाव के साथ नहीं बदलतीं।

अगर जमाकर्ताओं को बचत जमा पर सावधि जमा के बराबर ब्याज दिया जाएगा तो ये सुविधाएं खत्म हो जाएंगी। रिजर्व बैंक को तय कर देना चाहिए कि भारतीय स्टेट बैंक की बचत जमा ब्याज दर से 150 आधार अंक अधिक तक की ब्याज दर वाली जमा को ही ‘बचत’ जमा कहा जाएगा।

बैंकों ने शुल्क के जरिये कमाई बढ़ाने के चक्कर में म्युचुअल फंड और बीमा योजनाओं की अंधाधुंध बिक्री कर अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है। उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि इसकी कीमत ऋण में वृद्धि के लिए थोक जमा पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता की शक्ल में चुकानी होगी।

बैंक खुद को याद दिलाएं कि ऋण से शुल्क के रूप में भी तगड़ी आय होती है। उन्हें सोचना चाहिए कि शुल्क वाली योजनाओं मसलन म्युचुअल फंड और बीमा की क्या भूमिका रहे। बैंकिंग स्थिरता का मंत्र नहीं बदलता है और वह मंत्र है – बैंकों को अपने मूल कारोबार पर ध्यान देना चाहिए, जो खुदरा जमा हासिल करना और ऋण देना है।

First Published : September 20, 2024 | 9:39 PM IST