सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने प्रसारण सेवा (नियमन) विधेयक, 2024 को फिलहाल रोकने का जो निर्णय लिया है वह स्वागत योग्य है। हम जानते हैं कि टेलीविजन प्रसारण पिछले कुछ वर्षों से धीरे-धीरे कम हो रहा है। वर्ष 2019 के 20 करोड़ घरों (96 करोड़ लोगों) से अब यह संख्या घटकर 17.6 करोड़ घरों (84.5 करोड़ लोगों) तक सिमट गई है। फिक्की-ईवाई की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक इस कारोबार को विज्ञापन से होने वाली कमाई 69,600 करोड़ रुपये रह गई, जो 2019 के 78,700 करोड़ रुपये से कम है।
टेलीविजन प्रसारण क्षेत्र में पिछले कुछ वर्ष विलय और अधिग्रहण के रहे हैं। डिज्नी ने स्टार इंडिया का अधिग्रहण किया और रिलायंस ने वायकॉम 18 में बहुलांश हिस्सेदारी खरीदी तथा बाद में इसका विलय डिज्नी में कर दिया। टेलीविजन जैसे-जैसे परिपक्व होगा वह 10 से 12.5 करोड़ घरों (48 से 60 करोड़ दर्शकों) में सिमटकर रह जाएगा। इनमें आधे से ज्यादा सरकारी डीडी फ्रीडिश वाले होंगे। ध्यान रहे कि ये बातें सामान्य टेलीविजन प्रसारण की हो रही हैं। हालांकि उसके अलावा भी मुफ्त टेलीविजन, स्मार्ट टीवी और स्ट्रीमिंग में काफी वृद्धि हो रही है।
भारतीय टेलीविजन की शुरुआत 1980-90 के दशक में बुनियाद, अंताक्षरी, बनेगी अपनी बात, सांस जैसे शानदार शो से हुई थी। फिर भी रेडियो के बाद सबसे बड़ा मीडिया होने के बावजूद न तो यह रेडियो जैसी रचनात्मक ऊंचाई हासिल कर सका और न ही उसकी तरह 1 अरब लोगों तक पहुंच सका। भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा टीवी बाजार है मगर ब्राजील जैसे समान बाजारों से यह राजस्व, प्रति इकाई कमाई और मुनाफे में छोटा ही रहा।
इसके कई कारण है और इनमें से सबसे बड़ा कारण कीमतों का नियमन है। यह 2004 में तब शुरू हुआ, जब भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) को प्रसारण नियामक नियुक्त किया गया। कीमतों, रेटिंग और कारोबारियों एवं प्रसारकों के बीच समझौतों तक को नियंत्रित करने की इस अथक कोशिश के कारण ही देश के टेलीविजन उद्योग को उसका एचबीओ, सोप्रानोस या गेम ऑफ थ्रोन्स नहीं मिल पाया। टेलीविजन पर स्टार वन जैसी अलग और प्रीमियम कार्यक्रम पेश करने की कोशिशें भी नाकाम रहीं।
हमारे देश में ज्यादातर टीवी चैनल एक ही तरह के धारावाहिक बनाते हैं, जिनका मकसद ज्यादा से ज्यादा दर्शक जुटाना और विज्ञापन हासिल करना है। वर्ष 2000 में क्योंकि सास भी कभी बहू से शुरू हुआ यह सिलसिला अभी तक चल रहा है। वर्ष 2016 में स्ट्रीमिंग सेवाओं के आने और 2018 में जोर पकड़ने के बाद भी ट्राई बताता रहा कि टीवी चैनलों को अपनी सेवाओं की कीमत कितनी रखनी है। यह सब उस बाजार में हो रहा है, जहां वीडियो एक दूसरे से होड़ कर रही तीन तकनीकों (केबल, सैटेलाइट, इंटरनेट) के जरिये तमाम उपकरणों (टीवी, फोन, लैपटॉप) पर देखा जा सकता है और ऑनलाइन वीडियो मुफ्त से लेकर हाइब्रिड तथा प्रीमियम तक कीमतों में उपलब्ध हैं।
कल्पना कीजिए कि टीवी चैनलों पर लागू सख्त नियम ओटीटी, सोशल मीडिया और ऑनलाइन खबरों पर भी लगा दिए जाएं। नए टीवी कानून को इसी के बरअक्स देखा जाना चाहिए। काफी समय से केबल टेलीविजन नेटवर्क्स (नियमन) अधिनियम, 1995 ही टीवी चैनलों से जुड़े नियम तय करता था, जिसमें नीतियां और उपग्रह से प्रसारण, अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग, इक्विटी सीमा, विदेशी निवेश आदि से जुड़े दिशानिर्देश शामिल हैं।
आखिरी बड़ा बदलाव 2011 में हुआ, जब डिजिटलीकरण के लिए केबल कानून में संशोधन किया गया। इसलिए वीडियो देखने के नए तरीकों के हिसाब से कानून बनना चाहिए। प्रसारण विधेयक का पहला मसौदा नवंबर 2023 में आया। इस पर प्रतिक्रिया मिलने के बाद इस साल जुलाई में मंत्रालय ने इस विधेयक के दूसरे मसौदे पर सुझाव मांगे। इस पर होहल्ला मच गया। मंत्रालय ने इस हफ्ते ऐलान किया कि 15 अक्टूबर तक लोगों से एक बार फिर परामर्श किया जाएगा।
इस कानून में तीन बड़ी समस्याएं हैं। पहली, सरकार कोशिश कर रही है कि ओटीटी जैसे ऑनलाइन वीडियो को भी टीवी चैनलों के कायदों में बांधा जाए। लेकिन वकील, मीडिया कंपनियों और दूसरे लोगों की दलील है कि दोनों अलग-अलग हैं। टीवी पर हम तय समय पर ही शो देख सकते हैं, लेकिन ओटीटी पर जब चाहें शो देखे जा सकते हैं।
इंगलैंड, सिंगापुर और जर्मनी जैसे कई विकसित देशों में ओटीटी को प्रसारण की परिभाषा में शामिल नहीं किया जाता। दोनों के लिए कायदे अलग-अलग हैं। डिजिटलीकरण में बहुत आगे जा चुके दक्षिण कोरिया में तो ओटीटी दूरसंचार कानून के दायरे में आते हैं।
दूसरी बात, यह कानून थोड़ा तानाशाही वाला है। इसमें सजा और माफी पर ज्यादा जोर दिया गया है मगर यह नहीं बताया गया है कि असल में विधेयक चाहता क्या है। पहली बार पढ़ने पर ही समझ आ जाता है कि सरकार ऑनलाइन देखी और पढ़ी जाने वाली हर सामग्री पर पूरा नियंत्रण चाहती है।
इंगलैंड में उद्योग की रकम से चलने वाली संस्था ऑफकॉम अच्छा काम कर रही है। वहां एक नियामक ने एक बार मुझसे कहा किसी भी नए नियम या नीति या दिशानिर्देश पर विचार करते समय यह जरूर देखा जाता है कि इससे फायदा हो रहा है या नुकसान। लेकिन भारत में इस नए कानून के बारे में ऐसा कोई अध्ययन नहीं किया गया है।
तीसरी बात, पुराना केबल अधिनियम समझने में आसान था, लेकिन नए कानून को समझने में घंटों लग गए। ऑनलाइन वीडियो ने हमें तरह-तरह के कार्यक्रम देखने का मौका दिया है और भारत के रचनात्मक मानस की कल्पना को भी इससे उड़ान मिल गई है। यही वजह है कि हम एमी पुरस्कार जीतने वाले ‘दिल्ली क्राइम’ जैसे शो और ‘द फैमिली मैन’, ‘पाताल लोक’ या ‘रॉकेट बॉयज’ जैसे बेहतरीन शो देख पा रहे हैं।
खबरों में ऐसे लोगों की आवाज को जगह मिली है, जो मुख्यधारा की खबरों से पहले गायब रहते थे। यूट्यूब, रील्स, व्हाट्सऐप और लिंक्डइन जैसे प्लेटफॉर्मों ने सभी को सामग्री तैयार करने और साझा करने का मौका दिया है।
ऐसे में वीडियो देखने के नए तरीकों को पुराने जमाने के और अदूरदर्शी नियम में बांधना गलत है क्योंकि इससे अभिव्यक्ति की आजादी पर पानी फिर सकता है। इससे विविधता कम होगी और तेजी से बढ़ रहे कारोबार को नुकसान पहुंचेगा। मीडिया पार्टनर्स एशिया के मुताबिक ऑनलाइन वीडियो ने विज्ञापन और भुगतान सेवाओं से वर्ष 2023 में लगभग 30,000 करोड़ रुपये कमाए।
वर्ष 2028 तक यह आंकड़ा बढ़कर 57,400 करोड़ रुपये हो जाने की उम्मीद है। वृद्धि की यह उम्मीद कीमत या दूसरे नियंत्रणों के बगैर स्वतंत्र बाजार से लगाई गई है क्योंकि नियंत्रण या पाबंदी विकल्पों पर चोट कर सकते हैं और कारोबारी सुगमता भी कम कर सकते हैं। किंतु नया कानून मौजूदा स्वरूप में पारित हुआ तो ये दोनों पाबंदियां आ जाएंगी।
उद्योग एक बार फिर प्रतिक्रिया देने की तैयारी कर रहा है और मंत्रालय को ऐसे में खुद से पूछना चाहिए कि क्या वह ऑनलाइन वीडियो की गति भी टीवी जैसी ही करना चाहता है। अगर नहीं तो इस कानून पर फिर विचार करने की जरूरत है।