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चीन की दीवार में मंदी की बढ़ती दरार

चीन सरकार को उम्मीद है कि 2023 में अर्थव्यवस्था करीब 5 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। लेकिन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वह इससे काफी कम होगी।

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राजेश कुमार   
Last Updated- September 06, 2023 | 9:28 PM IST

पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना (पीबीओसी) ब्याज दरों में कमी करने के मामले में बड़े केंद्रीय बैंकों के बीच एक बड़ा अपवाद है। ज्यादातर केंद्रीय बैंक जहां मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए जूझ रहे हैं, वहीं चीन का केंद्रीय बैंक कमजोर पड़ती विकास की संभावनाओं और गिरती कीमतें रोकने के लिए कदम उठा रहा है। हालांकि चीन सरकार को उम्मीद है कि 2023 में अर्थव्यवस्था करीब 5 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। लेकिन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वह इससे काफी कम होगी।

लंबी अवधि के कुछ अनुमानों में कहा गया है कि वृद्धि इस दशक के अंत तक घटकर 2 या 3 प्रतिशत रह जाएगी। खास बात यह है कि वर्ष 2000 और 2019 के बीच चीन की अर्थव्यवस्था औसतन 9 फीसदी सालाना की दर से बढ़ी है और वैश्विक वृद्धि में इसकी सबसे बड़ी भूमिका रही है। इस तेज गिरावट के व्यापक असर हो सकते हैं, न केवल चीन बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था दोनों के लिए।

यह जान लीजिए कि चीन की विकास की कहानी पर पहले भी कई बार सवाल किए गए हैं लेकिन उसने संशयवादियों को चौंकाया है। हालांकि इस बार मामला अलग हो सकता है। मंदी के लिए कई तर्क दिए जा रहे हैं। दशकों तक ऊंची वृद्धि और अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए धीमी वृद्धि की संभावना हमेशा से ही बनी हुई थी। लेकिन बड़ा सवाल है कि यह संक्रमण सहज तरीके से होगा या फिर दुनिया में इससे उथल-पुथल होगी।

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फिलहाल विश्लेषक बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव का अनुमान नहीं लगा रहे हैं। एक व्यापक सहमति अक्सर जोखिम बढ़ाती है। उदाहरण के लिए बहुत कम लोग ऐसे थे जिन्होंने अमेरिका में हाउसिंग मार्केट के दबाव में होने की संभावना को खारिज कर दिया था जो आखिरकार 2007-08 में व्यापक वित्तीय संकट में बदल गया। आज की तारीख में चीन को भी सबसे बड़ा दर्द रियल एस्टेट से ही हो रहा है।

रियल एस्टेट में सालों से किए जा रहे बहुत ज्यादा निवेश के कारण ज्यादा आपूर्ति की समस्या हो गई। आकलनों के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद में रियल एस्टेट का करीब चौथाई हिस्सा है। मांग और कीमतें गिरने से डेवलपर अपनी देनदारियां पूरी करने में असमर्थ हैं। लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं हो जाती। बैंकों ने रियल एस्टेट डेवलपरों और खरीदारों को बड़े पैमाने पर ऋण दिया है।

एक आर्थिक सलाहकार फर्म ऑक्सफर्ड इकनॉमिक्स के अनुसार संपत्ति से जुड़े ऋणों का जीडीपी में करीब 43 प्रतिशत हिस्सा है। स्थानीय सरकारों ने भी बैंकों से कर्ज लिया है और संपत्ति बाजार में मंदी के कारण उनकी भी ऋण चुकाने की क्षमता पर असर पड़ा है। इस समस्या में कई परत हैं और यह संभव है कि वित्तीय बाजार जटिलता के स्तर का पूरी तरह अनुमान नहीं लगा पा रहे हों। चीन के परिवारों ने भी रियल एस्टेट में बड़े पैमाने पर निवेश किया है। इसका एक आंशिक कारण वित्तीय दबाव है। क्योंकि ज्यादातर संपदा रियल एस्टेट में है इसलिए गिरती कीमतों या प्रतिकूल संभावना का आम उपभोग पर असर पड़ेगा।

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पिछली मंदियों के दौरान सरकार ने बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाकर इससे निपटने का उपक्रम किया था जिससे स्टील और सीमेंट जैसे कारोबारों में गतिविधियां बरकरार रखने में मदद मिली। लेकिन इस बार इतने बड़े पैमाने पर चीन कम से कम दो कारणों से ऐसा कर पाने में समर्थ नहीं होगा। पहला, चीन पहले ही काफी ढांचा खड़ा कर चुका है जिसका कोई उपयोग नहीं हो रहा।

दूसरा, सरकार के वित्त भी इतने मददगार नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार आम सरकारी ऋण आने वाले वर्षों में जीडीपी का सौ फीसदी से अधिक हो जाने की संभावना है। बैंक फॉर इंटरनैशनल सेटलमेंट्स के अनुसार वर्ष 2022 में सभी स्तर की सरकारों और सरकार नियंत्रित कंपनियों का संयुक्त ऋण जीडीपी का करीब 300 प्रतिशत था। जब वृद्धि कम होती है तो ऋण चुकाना भी काफी मुश्किल हो जाता है। ऐसे में डिफ्लेशन या बहुत कम मुद्रास्फीति की संभावना मामले को और जटिल ही बनाएगी।

इन शुद्ध वित्तीय मसलों के अलावा कार्यबल के आकार का भी मसला है जिसके आने वाले वर्षों में बहुत तेजी से घटने की संभावना है। लंदन की कैपिटल इकनॉमिक्स के हालिया नोट में रेखांकित किया गया है कि चीन की श्रम शक्ति 2017 में सर्वोच्च स्तर पर थी पर इसके 2030 तक हर साल आधा प्रतिशत कम होने की संभावना है। इससे दूसरी बातों के अलावा उत्पादन पर भी असर पड़ेगा। चीन की भू-राजनीतिक स्थिति भी इसमें किसी तरह की मदद नहीं कर पाएगी।

पश्चिम के देश चीन पर अपनी निर्भरता घटाने के लिए जी जान से जुटे हुए हैं और उच्च किस्म की प्रौद्योगिकी उसके साथ साझेदारी करने को इच्छुक नहीं है जो विकास के लिए महत्त्वपूर्ण है। निजी पूंजी पर खुद चीन की सरकार संदेह करती है जिससे भी संभावनाएं धूमिल होंगी।

अगर यह मान भी लिया जाता है कि इसका कोई बहुत बड़ा वित्तीय उलटफेर नहीं होगा तो भी चीन में सतत सुस्ती का अपने आप ही वैश्विक अर्थव्यवस्था पर गहरा असर होगा। आई एम एफ के अनुसार चीन की विकास दर में 1 प्रतिशत अंक की वृद्धि से दूसरे देशों की विकास दर 0.3 आधार अंक बढ़ जाती है। इसमें गिरावट का असर भी विपरीत ही होगा। हालांकि वैश्विक वृद्धि किसी भी सूरत में अगले कई साल तक एक रुझान के नीचे ही रहने की संभावना है। जो अर्थव्यवस्थाएं चीन से ज्यादा गहन तरीके से जुड़ी हैं, उन पर ज्यादा असर होगा।

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धीमे विस्तार का मतलब होगा जिंसों की कम मांग जिससे कीमतें घटेंगी और भारत जैसे शुद्ध आयातक देश को मदद मिलेगी। लेकिन दुनियाभर में जिंस निर्यातकों को चोट पहुंचेगी। कमजोर घरेलू मांग और हर चीज की जरूरत से ज्यादा क्षमता के कारण चीन सस्ते निर्यात को बढ़ावा देने की कोशिश करेगा जिससे अल्प समय के लिए दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मुद्रास्फीति में कमी लाने में मदद मिलेगी। हालांकि मध्य अवधि में भविष्य बहुत अनुकूल नहीं भी हो सकता है क्योंकि आपूर्ति श्रृंखलाएं चीन छोड़कर दूसरे देशों में जा रही हैं जो जरूरी नहीं कि वे सक्षम विकल्प ही हों।

इसके अलावा पूंजी को जज्ब करने की चीन की क्षमता घटेगी और वैश्विक बचत वैकल्पिक ठिकानों की तलाश करेगी। ऋण निवेशकों ने इस साल पहले ही करीब 30 अरब डॉलर के चीनी बॉन्ड बेच दिए हैं। बड़े निवेश बैंकों ने भी चीन की इक्विटी के लिए अपने लक्ष्य संशोधित किए हैं। इतना ही नहीं चीन के परिवार भी एहतियात के तौर पर ज्यादा बचत कर सकते हैं और इसे बाहर भेज सकते हैं।

धीमी वैश्विक वृद्धि भारत के लिए अच्छी नहीं होगी। अगर भारत ठीक से कदम उठाता है तो जिंसों की कम कीमतों से उसे फायदा हो सकता है और वह ज्यादा वैश्विक बचत आकर्षित कर सकता है। चीन से निकलने को तैयार विनिर्माताओं को भारत अपने यहां आधार बनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। फिर भी, विकास में संभावित अंतर और दूसरे कारणों से चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा और बढ़ सकता है।

First Published : September 6, 2023 | 9:28 PM IST