इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा
भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शामिल है जहां कुछ खास मानकों को पूरा करने वाली कंपनियां सांविधिक हैं और जिन्हें अपने मुनाफे का एक हिस्सा कारोबारी सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) गतिविधियों में व्यय करना होता है। भारतीय कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 135 में यह कानूनी प्रावधान किया गया है जबकि अधिनियम का शेड्यूल सात उन गतिविधियों का ब्योरा देता है जिन्हें कंपनी अपनी सीएसआर नीति के तहत कर सकती है।
भारतीय कंपनियों की सीएसआर गतिविधियों ने बीते वर्षों में गति पकड़ी है। इसमें व्यय की गई राशि और किया गया काम शामिल है। कंपनी मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 22 में इस मद में 25,933 करोड़ रुपये व्यय किए गए। इसमें सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरण आदि क्षेत्रों में किया गया काम शामिल है।
वित्त वर्ष 22 के दौरान स्वास्थ्य, पेयजल और स्वच्छता, शिक्षा, पर्यावरण और ग्रामीण विकास पर कुल मिलाकर 23,000 करोड़ रुपये की राशि व्यय की गई जो इन क्षेत्रों के सालाना सरकारी व्यय का 5.7 फीसदी है।
सीएसआर व्यय के बढ़ते आकार को देखते हुए कुछ लोग इसे इन क्षेत्रों में सरकारी व्यय का विस्तार मान सकते हैं। ऐसी मीडिया रिपोर्ट भी आई हैं जो कंपनियों द्वारा चुने गए कार्य क्षेत्र और इसके व्यय में असंतुलन की बात को रेखांकित करती हैं। कहा गया कि यह सिलसिला कुछ राज्यों तक सीमित है और पूर्वोत्तर के राज्यों की अनदेखी करता है।
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कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि सरकार को सीएसआर परियोजनाओं की योजना, समन्वय और क्रियान्वयन में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। ऐसा करना सीएसआर की अवधारणा के खिलाफ होगा। कंपनियों को सीएसआर फंड को सरकार की जवाबदेही निभाने में व्यय करने को नहीं कहा जा सकता।
ऐसे में यह अपेक्षा करना उचित ही होगा कि सीएसआर व्यय उन क्षेत्रों और जगहों पर असर डालता है जहां कंपनियां निवेश करना चाहती हैं। परंतु चिंताएं भी हैं। मसलन विभिन्न क्षेत्रों में सीएसआर व्यय का बारीक प्रसार, पेशेवर नियोजन और क्रियान्वयन की कमी और कम सीएसआर राशि वाली कंपनियों का मुश्किल से जूझना।
अब जरूरत है कि सीएसआर को अधिक सार्थक तरीके से खर्च किया जाए। ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहां सीएसआर फंड की पूलिंग की जाती हो उसे पेशेवर फंड प्रबंधक की मदद से वांछित नतीजे हासिल करने के लिए निवेश किया जाता हो। पूल फंड में उनकी हिस्सेदारी के आधार पर कंपनियां फंड प्रबंधक कंपनियों के बोर्ड में भी प्रतिनिधित्व हासिल कर सकती हैं।
इसी तरह इनकी मदद से विश्वसनीय गैर लाभकारी संस्थाओं (एनपीओ) को चिह्नित करने की मजबूत व्यवस्था बनाई जा सकती है। सीएसआर फंड को इनमें निवेश किया जा सकता है। इससे कंपनी मामलों में मंत्रालय का निगरानी का बोझ भी कम होगा।
इस आलेख में हम परीक्षण करेंगे कि सीएसआर व्यय को सोशल स्टॉक एक्सचेंज (एसएसई) के साथ मिलाने की क्या संभावना है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड ने एसएसई फ्रेमवर्क को लेकर विशेषज्ञ समूह की मदद से जो अनुशंसाएं कीं उनमें भी यह शामिल है।
एसएसई का संक्षिप्त परिचय देते हुए फ्रेमवर्क योग्य एनपीओ की मदद से फंड जुटाने की बात भी करता है। ऐसे एनपीओ जो एक्सचेंज पर सूचीबद्ध हों। जीरो कूपन जीरो प्रिंसिपल मैकेनिज्म (जेडसीजेडपी), एसएसई के सोशल इंपैक्ट फर्म, डेवलपमेंट इंपैक्ट बॉन्ड (डीआईबी) आदि ऐसे ही उपाय हैं। जेडसीजेडपी प्रतिभूति अनुबंध नियमन अधिनियम 1956 के तहत प्रतिभूति के रूप में अधिसूचित है।
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इन्हें ऐसे एनपीओ द्वारा जारी किया जाता है जो किसी चिह्नित स्टॉक एक्सचेंज के एसएसई के साथ संबद्ध हों जो सेबी द्वारा नियमित हो। जीरो कूपन और परिपक्वता पर कोई सैद्धांतिक भुगतान न करने वाली जेडसीजेडपी सामाजिक प्रतिफल का वादा करेगी। जहां तक एसआईएफ की बात है तो सेबी ने अपने वैकल्पिक निवेश फंड नियमन के तहत उसके लिए ढांचा प्रस्तावित किया है।
ये फंड एनपीओ और मुनाफा कमाने वाले सामाजिक उपक्रम दोनों में निवेश कर सकते हैं। डीआईबी ढांचे में एनपीओ द्वारा पहले से बनी सहमति के मुताबिक सामाजिक मानकों पर जो प्रदर्शन करता है उसके मुताबिक अनुदान उसे दिया जाता है। दानदाता को आउटकम फंडर कहा जाता है। चूंकि यह फंडदाता बाद में भुगतान करता है इसलिए एनपीओ को अपना काम करने के लिए अंतरिम तौर पर ‘रिस्क फंडर’ से फंड जुटाना पड़ता है।
रिस्क फंडर न केवल भुगतान के पहले परिचालन के लिए फाइनैंस करता है बल्कि एनपीओ द्वारा सामाजिक मानकों को पूरा नहीं करने की जिम्मेदारी भी लेता है। एसएसई नियामकीय ढांचे को मजबूती दिलाने के उद्देश्य से सेबी ने वांछित खुलासे और रिपोर्टिंग मानक की व्यवस्था की।
कंपनियों को यह इजाजत भी होनी चाहिए कि वे अपने सीएसआर फंड का इस्तेमाल एसएसई ढांचे के विभिन्न उपायों में निवेश के लिए कर सकें। एनपीओ द्वारा जारी जेडसीजेडपी सबस्क्रिप्शन या एसआईएफ द्वारा जारी यूनिट्स को कॉर्पोरेट फंडिंग उपायों के रूप में देखा गया है।
सीएसआर फंड प्रदाता को यह इजाजत होनी चाहिए कि वह डीआईबी ढांचे में आउटकम फंडर के रूप में काम करे। इसके लिए सीएसआर पूंजी को कुछ वर्षों के लिए रखने की इजाजत देनी होगी जब तक कि एनपीओ के लिए परियोजना क्रियान्वयन के नतीजे सामने न आ जाएं।
एसएसई पर सीएसआर व्यय को कंपनियों के बीच इस्तेमाल करने की इजाजत दी जानी चाहिए। हर वर्ष ऐसी कंपनियां होंगी जो तय न्यूनतम सीएसआर अधिनियम से अधिक राशि व्यय करेंगी। वहीं ऐसी कंपनियां भी होंगी जो तमाम वजहों से अधिक व्यय करें। बाद वाली श्रेणी को पहली श्रेणी से सीएसआर क्रेडिट खरीदकर अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने का अवसर दिया जाना चाहिए ताकि उन्हें कानूनन जुर्माना न भरना पड़े।
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सीएसआर-एसएसई के बीच सहज और उपयुक्त संपर्क स्थापित करने के लिए दो मुद्दों को हल करना होगा। उनमें से एक का संबंध अधिनियम के अनुच्छेद 135 के प्रावधानों से है जिसमें कहा गया है कि कंपनी को स्थानीय इलाकों को सीएसआर में प्राथमिकता देनी चाहिए।
स्वाभाविक रूप से सीएसआर फंड की पूलिंग या जेडसीजेडपी जैसी व्यवस्थाएं इसमें मददगार नहीं हो सकतीं। उसी इलाके में स्थित कंपनियां जरूर आपस में तालमेल करके इस समस्या को कुछ हद तक दूर कर सकती हैं। बहरहाल, कानून में कुछ बदलाव की आवश्यकता तो फिर भी पड़ सकती है।
दूसरी बात है यह सुनिश्चित करना कि छोटे एनपीओ जो एसएसई तक पहुंच बना पाने में नाकाम हों वे सीएसआर फंड से वंचित न हों। इसे दूर करने के लिए सीएसआर फंड की सीमा तय की जा सकती है जिसे कंपनियां एसएसई के साथ पंजीकृत एनपीओ के माध्यम से चैनल कर सकती हैं।
कुल मिलाकर सरकार को एसएसई की मदद से परियोजनाओं की सीएसआर फंडिंग की इजाजत देनी चाहिए। इससे न केवल सीएसआर व्यय के नतीजों में सुधार आ सकता है बल्कि एसएसई उदीयमान व्यवस्था को भी गति मिल सकती है।
(लेखक ओआरएफ के विशिष्ट फेलो और सेबी के पूर्व चेयरमैन हैं)