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जमीनी हकीकत: जलवायु पर पड़ रहा खाद्य वस्तुओं का प्रभाव!

वर्ष 2018 में, वैश्विक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में करीब 11 प्रतिशत का योगदान दुनिया द्वारा उत्पादित किए गए खाद्य पदार्थों की वजह से था।

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सुनीता नारायण   
Last Updated- September 04, 2023 | 9:35 PM IST

इस समस्या की मुख्य पृष्ठभूमि में ईंधन और भोजन है। मैं उन उत्सर्जनों के बारे में बात कर रही हूं जिसने दुनिया की जलवायु को बदलने के लिए ‘मजबूर’ किया है और अब जिसके चलते कई विनाशकारी प्राकृतिक आपदाएं देखने को मिल रही हैं।

हम इन गैस उत्सर्जन के लिए ऊर्जा प्रणाली के योगदान पर चर्चा करते हैं जैसे कि किस तरह जीवाश्म ईंधन वातावरण में लंबे समय तक बने रहने वाले कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। लेकिन हम एक दूसरी बड़ी समस्या के बारे में पर्याप्त रूप से बात नहीं करते हैं, जैसे कि कृषि क्षेत्र और हमारे द्वारा खाया जाने वाला भोजन।

ऐसा इसलिए है कि किसी भी अन्य आर्थिक क्षेत्र की तुलना में, कृषि उस दुनिया के बीच एक विभाजन पैदा करती है जो एक ओर अपने अस्तित्व के लिए उत्सर्जन करने को मजबूर है जबकि वहीं एक दूसरी दुनिया विलासिता के लिए उत्सर्जन करती है।

वर्ष 2018 में, वैश्विक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में करीब 11 प्रतिशत का योगदान दुनिया द्वारा उत्पादित किए गए खाद्य पदार्थों की वजह से था। इसमें से उत्सर्जन की बड़ी हिस्सेदारी (लगभग 40 प्रतिशत) जुगाली करने वाले मवेशियों के पाचन तंत्र के किण्वन से थी।

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खाद्य उत्पादक जानवर आमतौर पर मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं, जिसे एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस माना जाता है। कृषि से संबंधित उत्सर्जन में बाकी 26 प्रतिशत हिस्सेदारी, खेतों में रखे गए मवेशियों के गोबर की खाद से निकलने वाले नाइट्रस ऑक्साइड से थी।

फसलों में इस्तेमाल होने वाले सिंथेटिक उर्वरकों के चलते 13 प्रतिशत नाइट्रस ऑक्साइड और बढ़ गया और चावल की खेती से होने वाले मीथेन उत्सर्जन ने कुल कृषि उत्सर्जन में अपना 10 प्रतिशत का योगदान दिया।

समस्या यह है कि कृषि की दो अलग-अलग दुनिया हैं। एक, औद्योगिक-कृषि मॉडल है जहां खेती से जुड़े कारखाने में खाद्य वस्तुएं तैयार की जाती हैं। यहां जानवरों की तादाद भी ज्यादा होती है और इस तरह की खाद्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए उपयोग किए जाने वाले रासायनिक पदार्थों की मात्रा भी काफी ज्यादा है।

इस औद्योगिक खाद्य कृषि प्रणाली में स्वामित्व का दायरा होता है जो दूसरी दुनिया की जीवन-यापन के लिए की जाने वाली खेती से अलग है। इस दूसरी दुनिया में छोटी जोत वाले किसान अपने उपभोग के लिए या अपनी आजीविका के लिए फसल उगाने के कार्य में जुटे हुए हैं। यही बात मवेशियों पर भी लागू होती है, कुछ मवेशी या अन्य जानवरों को कृषि भूमि क्षेत्रों में ही रखा जाता है। उदाहरण के तौर पर भारत में दुनिया की सबसे बड़ी पशुधन आबादी है और यह बहुत छोटे किसानों की बदौलत है।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, एक किसान की आमदनी में मवेशियों का करीब 25-50 प्रतिशत का योगदान होता है। इस प्रकार यह उनकी आर्थिक सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण है। ऐसे में बड़ी संख्या में मवेशियों और अन्य जुगाली करने वाले जानवरों का कुल उत्सर्जन महत्त्वपूर्ण हो सकता है।

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केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की ‘2021 की तीसरी द्विवार्षिक रिपोर्ट’ के अनुसार, मवेशियों की आंतों में होने वाले किण्वन से मीथेन गैस उत्सर्जन देश के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 8 प्रतिशत का योगदान देता है। ऐसे में सवाल यह है कि मीथेन उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए क्या किया जा सकता है? यह दूसरी दुनिया के कामों से किस तरह अलग होगा?

हम अपनी दुनिया में चावल उत्पादन की बात करें तो इसे छोटे किसानों द्वारा उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है, जहां खेतों में भूजल को पहुंचाया जाता है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों सहित पानी की कमी वाले क्षेत्रों में उगाया जाने वाला चावल पारिस्थितिकी तंत्र के लिहाज से अच्छा है। लेकिन हम अपनी इस दुनिया में लाखों लोगों के लिए पोषण और आजीविका में चावल की भूमिका को कम नहीं कर सकते।

हम इस पर चर्चा भी करते हैं कि किसान भी जलवायु परिवर्तन के पहले शिकार हैं। हमारी दुनिया में, यह एक बहु-आयामी संकट है जो उनके अस्तित्व को खतरे में डालता है। इसकी पहली वजह, कृषि में लगने वाले कच्चे माल की बढ़ती लागत और सिंचाई सहित सार्वजनिक बुनियादी ढांचे की कमी है जो उनकी आजीविका को प्रभावित करती है।

दूसरी वजह यह है कि खाद्य वस्तुओं की बढ़ती लागत अधिकांश उपभोक्ताओं के वहन के लायक नहीं है और सरकारें औद्योगिक कृषि प्रणालियों से खाद्य वस्तुओं का आयात करने के लिए कदम उठाती हैं जो हमेशा सब्सिडी के साथ दी जाती हैं। ऐसे में निश्चित तौर पर किसानों को नुकसान होता है।

तीसरा तथ्य यह है कि किसान बार-बार चरम किस्म की मौसमी घटनाओं से प्रभावित हो रहे हैं और उनकी फसलें बाढ़, सूखा, कीटों के हमले, बेमौसम ठंड और गर्मी से खराब हो जाती हैं। ऐसे में हमें दोनों दुनिया के अलग-अलग संदर्भों में कृषि और जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करने की आवश्यकता है।

वर्तमान में, जलवायु परिवर्तन पर यूनाइटेड नेशंन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) भोजन के सवाल के इर्द-गिर्द विमर्श पर जोर दे रहा है। ऐसा इसलिए है कि यह औद्योगिक खाद्य-खेती प्रणालियों की सीधी आलोचना करने से इनकार करता है जो दूसरी दुनिया में मांस के अत्यधिक उपभोग से भी जुड़ा हुआ है।

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बेशक, कदम उठाना आसान नहीं है। नीदरलैंड सरकार ने नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन में कटौती करने का फैसला किया, जिसके लिए किसानों को मवेशियों को कम करने, खेतों में फसले उगाने या बंद करने की आवश्यकता होती। इसके कारण व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, जिसके चलते कुछ महीने पहले वहां की सरकार गिर गई।

न्यूजीलैंड में जहां गाय अत्यधिक उत्पादक मानी जाती हैं और वहां देश के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग आधा योगदान देती हैं वहां एक ‘बर्प कर’ का प्रस्ताव दिया है जिसके तहत किसानों को मवेशियों और उनके चारा खाने की संख्या के आधार पर गैसों के उत्सर्जन के लिए भुगतान करना होगा। लेकिन इसका विरोध किया जा रहा है क्योंकि इससे किसानों के मवेशियों की संख्या कम हो जाएगी।

इसी वजह से इस कर को फिलहाल टाल दिया गया है और देश में कृषि क्षेत्र के उत्सर्जन में योगदान को शामिल किए बिना, यह अपने उत्सर्जन में कटौती की गणना करना जारी रखता है। मांस के उपभोग का सवाल भी उतना ही संवेदनशील है। मांस से जुड़े उद्योग के हित जीवाश्म ईंधन उद्योग जितने ही ताकतवर हैं। लेकिन हम कम से कम यह स्वीकार कर लें कि फिलहाल यही दांव पर है।

(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से संबद्ध हैं)

First Published : September 4, 2023 | 9:35 PM IST