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क्या निजी बैंकर चला सकते हैं सरकारी बैंक? सरकार को धैर्य रखना होगा

वरिष्ठ सरकारी बैंक अधिकारी शायद निजी क्षेत्र के अधिकारियों का खुले दिल से स्वागत करने के लिए उत्साहित न हों। बता रहे हैं तमाल बंद्योपाध्याय

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तमाल बंद्योपाध्याय   
Last Updated- October 23, 2025 | 9:14 PM IST

अक्टूबर के पहले सप्ताह में कैबिनेट की नियुक्ति समिति ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) में पूर्णकालिक निदेशकों के चयन के लिए दिशानिर्देशों में संशोधन किया और पहले के सभी मानदंड रद्द कर दिए।

नए दिशानिर्देशों के तहत निजी क्षेत्र के अभ्यर्थी भारतीय स्टेट बैंक में चार प्रबंध निदेशक (एमडी) पदों में से एक, 11 राष्ट्रीयकृत बैंकों में एमडी और मुख्य कार्या​धिकारी (सीईओ) पदों के लिए, और कम से कम 10 लाख करोड़ रुपये के कारोबार वाले चार बड़े राष्ट्रीयकृत बैंकों में कम से कम एक कार्यकारी निदेशक (ईडी) पद के लिए आवेदन कर सकते हैं। इन पदों के लिए वेतन पैकेज सहित सभी नियम और शर्तें समय-समय पर केंद्र सरकार द्वारा तय की जाएंगी। अभी तक तो सार्वजनिक बैंकिंग उद्योग संकटग्रस्त निजी बैंकों को बचाने या उनका पोषण करने में ब्लड बैंक की भूमिका निभाता रहा है।

इस प्रयोग को सफल बनाने के लिए कई मुद्दों को सुलझाना होगा। सबसे पहले, पीएसबी का वेतन ढांचा भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) से जुड़ा है। देश के सबसे बड़े ऋणदाता और संपत्ति के मामले में शीर्ष 50 वै​श्विक बैंकों में एकमात्र भारतीय बैंक, एसबीआई के चेयरपर्सन यानी अध्यक्ष, लेवल-17 वेतनमान के हकदार हैं जो किसी मंत्रालय में सचिव स्तर के आईएएस अधिकारी के बराबर है। अन्य बैंकों के एमडी और सीईओ और एसबीआई के एमडी को लेवल-16 का वेतन मिलता है जो किसी अतिरिक्त सचिव के वेतन के बराबर है।

हालांकि, पीएसबी में कनिष्ठ और मध्य-प्रबंधन कर्मचारी निजी क्षेत्र के अपने समकक्षों की तुलना में अधिक वेतन (और नौकरी की सुरक्षा) का आनंद लेते हैं, लेकिन शीर्ष स्तर पर यह प्रवृत्ति उलट है। एक अपेक्षाकृत छोटे निजी बैंक का सीईओ भी एक बड़े पीएसबी के प्रमुख की तुलना में 20 गुना अधिक कमा सकता है। आमतौर पर, निजी बैंक के अ​धिकारी के पैकेज में वेतन, बोनस, परिवर्तनीय वेतन, प्रोत्साहन और स्टॉक ऑप्शन शामिल होते हैं।

पीएसबी में आम तौर पर निश्चित वेतनमान होते हैं, जो पूरे उद्योग के लिए वेतन समझौते के माध्यम से तय किए जाते हैं। वे अपने कर्मचारियों को अपने निजी समकक्षों की तुलना में अधिक भुगतान करते हैं जब तक कि वे शीर्ष पर नहीं पहुंच जाते।

एक और महत्त्वपूर्ण कारक सेवानिवृत्ति की आयु है। पीएसबी में यह 60 वर्ष है। एसबीआई में, यदि अध्यक्ष 60 साल के करीब होता है, तो वह कार्यकाल समाप्त होने तक 60 साल से अधिक समय तक पद पर बना रह सकता है। निजी क्षेत्र में कोई व्यक्ति 70 साल की आयु तक पद पर बना रह सकता है, बशर्ते कि उसे बोर्ड की मंजूरी और भारतीय रिजर्व बैंक की मंजूरी मिल जाए।

इस पृष्ठभूमि में किसी पीएसबी के लिए निजी क्षेत्र से प्रतिभाओं को आकर्षित करना कितना आसान या मुश्किल है? क्या उन्हें निजी क्षेत्र के नेतृत्व की जरूरत है? दूसरे प्रश्न का उत्तर पहले: हां, निजी बैंकरों का प्रवेश, विशेष रूप से वैश्विक अनुभव वाले, पीएसबी के मूल्य में वृद्धि करेगा। पहली नजर में उत्पादों, प्रक्रिया और तकनीक के मामले में एक निजी बैंक और एक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के बीच कोई खास अंतर नहीं है।

कुछ बड़े पीएसबी विशेष रूप से एसबीआई के पास बेहतरीन तकनीकी प्लेटफॉर्म हैं। लेकिन नकदी प्रबंधन, व्यापार वित्त, निवेश बैंकिंग, संपदा प्रबंधन आदि जैसे क्षेत्र हैं, जहां पीएसबी बाजार से आयातित विशेषज्ञों के साथ बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। जन धन और अन्य कम मूल्य वाले खातों के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का ग्राहक आधार भले ही बढ़ रहा हो, लेकिन सभी बैंक संपन्न वर्ग को बैंकिंग के लिए आकर्षित नहीं कर पाए हैं।

कुछ पीएसबी की वैश्विक सहायक कंपनियां हैं। वैश्विक विशेषज्ञता वाले बैंकर निश्चित रूप से उन्हें विदेशी कारोबार को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने में मदद कर सकते हैं। कतिपय पीएसबी कुछ व्यवसायों के लिए बाजार से भर्ती कर रहे हैं। यह प्रयोग कुछ मामलों में सफल रहा है, कुछ में विफल। क्यों? इससे निजी बैंकरों के सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू सामने आता है-संस्कृति। उनके वेतन को आईएएस से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि सरकार एसबीआई और कोल इंडिया जैसी कंपनियों के प्रमुख के लिए अलग नियम नहीं बना सकती क्योंकि दोनों ही सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हैं। लेकिन वेतन के मुद्दे से निपटने के तरीके हैं।

उदाहरण के लिए, बैंक किसी पद से जुड़ी सभी लागत को जोड़ सकते हैं-आवास, कार, विदेश यात्रा भत्ता और वेतन के अलावा अन्य सुविधाएं। यानी एक कॉस्ट-टू-कंपनी या सीटीसी अवधारणा लागू कर सकते हैं। अगर ऐसा होता है, तो रकम की गिनती की जा सकती है। साथ ही, प्रदर्शन-आधारित प्रोत्साहनों को भी बेहतर बनाया जा सकता है ताकि बेहतर प्रदर्शन करने वालों को अच्छा इनाम मिल सके।

संस्कृति एक ऐसी चीज है जिसे रातोरात नहीं बदला जा सकता। इसके कई आयाम हैं। वरिष्ठ सरकारी बैंक अधिकारी शायद निजी क्षेत्र के अधिकारियों का खुले दिल से स्वागत करने के लिए उत्साहित न हों। अगर उनका स्वागत भी हो जाए, तो भी निजी क्षेत्र के बैंकरों को कई तरह की मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। वे रातोरात सब कुछ बदलना चाह सकते हैं, जो संस्थानों को रास नहीं आएगा।

याद रखें, जब शीर्ष प्रबंधन की बात आती है, तो सभी पीएसबी एक जैसे नहीं होते, भले ही उनमें बहुल हिस्सेदारी सरकार की हो। उदाहरण के लिए, कुछ अपवादों को छोड़कर, एसबीआई में अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक हमेशा घरेलू कैडर से चुने जाते हैं, जिनकी जड़ें एक ही संस्कृति में होती हैं। इसलिए, नेतृत्व परिवर्तन से संस्थान की नीतियों और रणनीतियों में कोई बदलाव नहीं आता है। लेकिन अन्य राष्ट्रीयकृत बैंकों में, प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्या​धिकारी अक्सर दूसरे बैंक से आते हैं, कार्यकारी निदेशकों के साथ भी यही बात है। नए प्रवेशकों का व्यवसाय के प्रति दृष्टिकोण पूर्ववर्तियों से भिन्न हो सकता है। लेकिन एक निजी बैंक के विपरीत, जहां प्रमुख बदलते ही महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक निर्णय तुरंत बदले जा सकते हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में निर्णय प्रक्रिया-आधारित होते हैं।

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निजी क्षेत्र में, संचार और साझा बुनियादी ढांचे की एक अधिक खुली संस्कृति होती है। अक्सर बॉस ही निर्णय लेता है, जरूरी नहीं कि इसके लिए गहन चर्चा या कठोर प्रक्रिया का सहारा लिया जाए। सार्वजनिक क्षेत्र प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे के माध्यम से क्षमता निर्माण में बहुत निवेश करता है, जबकि निजी क्षेत्र मुनाफे पर केंद्रित होता है।

पीएसबी का सामाजिक चार्टर भी एक बड़ा सांस्कृतिक अंतर पैदा करता है। लगभग हर सार्वजनिक क्षेत्र का कर्मचारी ग्रामीण शाखा में काम करता है, जबकि निजी क्षेत्र के कर्मचारी जीवन भर एक व्यवसाय और शहर से बाहर नहीं जा पाते।

अगर हम दोनों की खूबियों को आत्मसात कर सकें, तो यह एक आदर्श स्थिति होगी। एक सक्षम निजी बैंकर एक पीएसबी को अच्छी तरह चला सकता है, और एक सक्षम पीएसबी बैंकर एक निजी बैंक को अच्छी तरह चला सकता है।

अंत में, सरकार प्रतिभाओं को कैसे आकर्षित करती है? पैसा ही एकमात्र आकर्षण नहीं है, बल्कि पैमाना और कद भी सही अभ्य​र्थियों को आकर्षित कर सकते हैं। लेकिन इसे सफल बनाने के लिए, सरकार को धैर्य रखना होगा। वह सिर्फ एक बार के लिए खिड़की खोलकर उसे बंद नहीं कर सकती, जैसा उसने एक दशक पहले किया था।


(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड के वरिष्ठ सलाहकार हैं)

First Published : October 23, 2025 | 8:44 PM IST