अर्थशास्त्री कई दशकों से लगातार यह शिकायत करते रहे हैं कि हमारा राजस्व व्यय बहुत अधिक है और पूंजीगत व्यय पर्याप्त नहीं है। यह शिकायत अब कम से कम खत्म हो सकती है। पिछले 11 वर्षों में, नरेंद्र मोदी सरकार ने लगभग 54 लाख करोड़ रुपये का पूंजीगत व्यय किया है, जिसमें महामारी के बाद लगभग 38 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। लगातार तीन वर्षों से, सार्वजनिक निवेश सालाना 11 लाख करोड़ रुपये से अधिक रहा है, जिसे सड़कों, रेलवे, रक्षा, पानी और अन्य तरह के बुनियादी ढांचे में लगाया गया है। वित्त वर्ष 2025 में पूंजीगत व्यय, सरकारी खर्च का 23 फीसदी रहा जो पिछले दो दशकों में सबसे अधिक है।
निश्चित रूप से इस तरह के खर्च का हमें एक बड़ा आर्थिक और गैर-आर्थिक लाभांश मिलना चाहिए था यानी तेज कनेक्टिविटी हो, बुनियादी ढांचे की कम या स्थिर लागत हो, उच्च उत्पादकता और उत्पादन की रफ्तार में बढ़त हो और साथ में प्रतिस्पर्धात्मकता भी बरकरार रहे। गैर-आर्थिक लाभों में सस्ता और तेज सफर, बेहतर नागरिक बुनियादी ढांचा और पानी तथा बिजली के कनेक्शन शामिल होते हैं। इससे उम्मीद यही होती है कि सरकारी खर्च का प्रभाव तेजी से नीचे के स्तर तक पहुंचेगा और रोजगार के अधिक मौके बनने के साथ पगार भी बढ़ेगी। इन सबसे ऊपर, राज्य के इस भारी खर्च से लंबे समय से निष्क्रिय दिख रहे निजी पूंजीगत व्यय के बढ़ने की उम्मीद थी। प्रयासों की कमी नहीं
लगातार नीतिगत कदमों के जरिये इस उत्साहजनक स्थिति को बनाने की कोशिश की गई है लेकिन परिणाम निराशाजनक रहे हैं। सरकार ने पाया कि भारत के बढ़ते फंसे ऋणों की समस्या के कारण निजी निवेश रुका हुआ था। कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली सरकारों के फंसे हुए कर्जों से बोझिल, सरकारी बैंक इतने कमजोर थे कि वे ऋण नहीं दे पा रहे थे। इसके समाधान के तहत फंसे ऋणों को बट्टे खाते में डाला गया, एक दिवाला संहिता लागू की गई और तंत्र की सफाई करने की कोशिश की गई। हालांकि कुछ ही अपराधियों को सजा मिली। लेकिन किसी ने भी कारोबारियों से यह नहीं पूछा कि क्या पैसे की कमी या कम मांग उन्हें निवेश करने से रोक रही थी। इन सबके बीच निजी पूंजीगत व्यय की स्थिति कमजोर ही बनी रही।
अगला कदम कर कटौती का था। सितंबर 2019 में, कम होते निर्यात, खपत में मंदी और पारंपरिक बैंकों से इतर बैंक जैसी वित्तीय गतिविधियों में लिप्त खिलाड़ियों के कारण संकट की आशंका के बीच, कंपनी कर की दरों में भारी कमी कर दी गईं।
अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तक जैसा दिया गया तर्क यह था कि कम कर से मुनाफा बढ़ेगा और इससे दोबारा निवेश को बढ़ावा मिलेगा। एक बार फिर, किसी ने भी स्पष्ट सवाल नहीं पूछा कि क्या कंपनियों को उच्च कर या कमजोर मांग रोके हुए थी। नतीजा वही रहा, निजी पूंजीगत व्यय कम ही रहा। तीसरे दौर में, सरकार और आगे बढ़ी। सरकार ने अब भी निजी क्षेत्र को विकास का मुख्य इंजन मानते हुए, सरकारी खर्च से जुड़ी एक पहल, उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना (पीएलआई) की शुरुआत की जिसे सीधे निजी पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देने के लिए तैयार किया गया था।
आखिरकार, सरकार ने सरकारी पूंजीगत व्यय के माध्यम से विकास और रोजगार को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी खुद उठाई, खासतौर पर महामारी के बाद। वास्तव में, वित्त वर्ष 2022 से सरकारी पूंजीगत व्यय ही निवेश वृद्धि का प्राथमिक इंजन रहा है। एक धारणा अब यह भी थी कि सरकार ने अभूतपूर्व उदारता के साथ कदम बढ़ाया है, तब ऐसे में निजी पूंजीगत व्यय भी इसका अनुसरण करेगा। हालांकि ऐसा नहीं हुआ। पीएलआई की छूट (806 आवेदन और 1.76 लाख करोड़ रुपये का निवेश) से इतर निजी पूंजीगत व्यय कम ही रहा।
कुल मिलाकर, सरकारी पूंजीगत व्यय वित्त वर्ष 2022-25 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का औसतन 4.1 फीसदी रहा, जो महामारी से पहले के दिनों में 2.8 फीसदी से अधिक था जबकि निजी पूंजीगत व्यय जीडीपी का लगभग 2 फीसदी ही रहा। इस साल यह थोड़ा अधिक हो सकता है लेकिन कारोबार संबंधी परेशानियों को देखते हुए कोई भी इसकी गति बने रहने की उम्मीद नहीं करता है।
सकल स्थायी पूंजी निर्माण (जीसीएफसी) में निजी भागीदारी, वित्त वर्ष 2024 में घटकर 34.4 फीसदी के निचले स्तर पर आ गई, जो 2016 से पहले 40 फीसदी से ऊपर थी। निश्चित रूप से, पहले जो तेजी देखी गई थी वह सांठगांठ वाली उधारी और घोटाले वाली परियोजनाओं के कारण बढ़ी थी।
फिर भी, चार प्रमुख हस्तक्षेपों जैसे कि बैंकों की सफाई, कर कटौती, सब्सिडी और राज्य के नेतृत्व वाले निवेश के बावजूद निजी निवेश उम्मीद से कम है। वित्त वर्ष 2025 में, पूंजीगत व्यय सरकारी खर्च का 23 फीसदी होगा, जो पिछली बार वित्त वर्ष 2004 में देखे गए स्तर तक पहुंच रहा है। उस वक्त भारत ने अपने एक सबसे मजबूत निजी-निवेश चक्र का अनुभव किया था। आखिर यह कैसे हुआ और इस बार हालात इतने सुस्त क्यों हैं?
पिछले 15 वर्षों या उससे अधिक समय से, मैंने प्रमुख ब्रोकिंग कंपनियों के अर्थशास्त्रियों को वर्ष 2004-07 के दौर की तरह एक और निजी-पूंजीगत व्यय उछाल की व्यर्थ भविष्यवाणी करते हुए देखा है। वे तभी सही होते जब वही कारण, कारक मौजूद होते जो कि एक अभूतपूर्व वैश्विक और स्थानीय तेजी के दौरान थे। उन वर्षों में, वैश्विक विकास के दोनों मुख्य इंजन, अमेरिका और यूरोप एक साथ चल रहे थे।
डॉट-कॉम क्रैश और अमेरिका पर 9/11 के हमले के कारण वर्षों की मंदी के बाद दबी हुई मांग को चीन से बड़े पैमाने पर कम लागत वाले निर्यात और मुख्य रूप से एशिया से वैश्विक बचत की एक बड़ी लहर का समर्थन मिला था। एशियाई देशों ने अत्यधिक निर्यात-प्रतिस्पर्धी होने के कारण, उस मांग में आई तेजी का सबसे अधिक लाभ उठाया।
अपने खुद के निर्यात के हिस्से के अलावा, भारत को विदेशी निवेशकों से बड़े पैमाने पर पूंजी प्रवाह से लाभ हुआ, जो न केवल शेयर बाजारों में बल्कि पहली बार रियल एस्टेट में भी पैसा लगा रहे थे। वर्ष 2004-07 में पूंजीगत व्यय और खपत में उछाल किसी कुशल नीति निर्माण के कारण नहीं था और न ही यह उद्यमिता के कारण था। यह वैश्विक अतिरेक का एक सुखद संयोग था। जब वर्ष 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट आया तब यह ज्वार खत्म हो गया। भारत में कभी भी वास्तविक, बड़ा और उत्पादक निजी पूंजीगत व्यय नहीं रहा।
नीति निर्माता, निजी निवेश को आपूर्ति पक्ष की एक पहेली के रूप में मानते हैं, जिसका समाधान सस्ती पूंजी, राजकोषीय प्रोत्साहन या सरकारी निवेश के कारण निजी निवेश में बढ़ोतरी से हल किया जाना है। हालांकि, वास्तविक बाधा मांग में निहित है। उद्यमी तब निवेश करते हैं जब वे ग्राहक देखते हैं। भारत की घरेलू मांग कमजोर बनी हुई है और खपत कमजोर है क्योंकि अधिकांश लोगों की वास्तविक पगार नहीं बढ़ रही है।
बाहरी मांग से भी कोई राहत नहीं है। निर्यात भी प्रतिस्पर्धी नहीं रह गया है और वैश्विक व्यापार के रुझान प्रतिकूल हैं। मैं, सरकारी पूंजीगत व्यय की वृद्धि को बढ़ावा देने के प्रति सार्वजनिक रूप से संशयवादी था। दो साल से भी पहले मैंने लिखा था कि ‘सरकार ने बड़े दबाव के साथ आर्थिक वृद्धि का पासा फेंका है। आइए उम्मीद करते हैं कि पासा फेंकने के बेहतर परिणाम मिलें।’ भारत की निवेश समस्या तब तक हल नहीं होगी जब तक कि नीतिगत दृष्टि कंपनियों के बहीखाते से हटकर अपने नागरिकों की आमदनी पर केंद्रित नहीं होती।
(लेखक मनीलाइफ डॉट इन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन के ट्रस्टी हैं)