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निवेश पर व्यावहारिक रुख

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 9:57 PM IST

सत्रह अप्रैल 2020 को देश की प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति को एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिए संशोधित कर दिया गया था। इसके मुताबिक जिन देशों के साथ भारत की जमीनी सीमा मिलती थी, वे स्वचालित ढंग से भारत में निवेश नहीं कर सकते थे बल्कि उनको अग्रिम मंजूरी लेना जरूरी थी। माना गया कि सरकार का यह कदम चीनी कंपनियों द्वारा किए जा रहे रणनीतिक अधिग्रहण से निपटने से संबंधित है। दरअसल चीन ने भारत की कुछ बड़ी वाणिज्यिक इकाइयों में अहम हिस्सेदारी खरीदी थी और इस बीच सीमा पर दोनों देशों के बीच तनाव भी लगातार बना हुआ था। तब से इस नीति में कुछ मामूली बदलाव किए गए हैं लेकिन अब खबर है कि इसका व्यापक पैमाने पर पुनर्आकनल किया जा रहा है। ऐसा विशिष्ट रूप से इसलिए हो रहा है क्योंकि करीब 6 अरब डॉलर मूल्य के प्रस्ताव नौकरशाही की आवश्यकताओं के चलते लंबित हैं।
चीन के निवेश की अतिरिक्त पड़ताल की वजह समझी जा सकती है। परंतु यह अच्छी बात है कि सरकार इसकी समीक्षा कर रही है। यह संभव है कि विशिष्ट सामरिक या अधोसंरचना क्षेत्रों में बड़े निवेश या अधिग्रहण की ऐसी पड़ताल जारी रहे। परंतु एकतरफा रोक कई मायनों में नुकसानदेह साबित हुई है। उदाहरण के लिए इसने समग्र निवेश को प्रभावित किया क्योंकि हॉन्गकॉन्ग जैसे वैश्विक वित्तीय केंद्र से आने वाली पूंजी की भी पड़ताल की गई। वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं को भारत लाने के प्रयासों पर भी असर पड़ा क्योंकि उसी समय हम चीन से दूरी बना रहे थे। तथ्य यह है कि बड़े पैमाने पर होने वाले विनिर्माण समेत आपूर्ति शृंखलाएं कोई एकल स्वामित्त्व वाले एकल उपक्रम नहीं हैं। उदाहरण के लिए एक बड़ी मोबाइल निर्माता कंपनी को अनेक उप ठेकेदारों की जरूरत पड़ती है। इनमें से कुछ चीनी स्वामित्त्व वाले भी हो सकते हैं। भारत को मोबाइल हैंडसेट निर्माण के लिए आकर्षक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि यह संभावित उप ठेकेदारों तथा अनुषंगी कंपनियों का भी केंद्र हो। चीन के निवेश को प्रतिबंधित करना इस राह को रोकने वाला साबित हो सकता है।
यदि सरकार अपनी नीति का दोबारा आकलन कर रही है तो 21वीं सदी की आपूर्ति शृंखलाओं की चुनौती को लेकर यही तार्किक प्रतिक्रिया होगी। बल्कि आशा तो यह की जानी चाहिए कि भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान को यह पता चल जाए कि आर्थिक खुलेपन के इस दौर में आत्मनिर्भरता पर तमाम जोर के बावजूद परस्पर निर्भरता अहम है। यदि कोई देश वैश्विक आपूर्ति शृंखला का केंद्र बनना चाहता है तो कम शुल्क दरों के जरिए निवेश और व्यापार के लिए खुलापन अत्यंत अहम है। बड़े पैमाने पर विनिर्माण और साथ ही साथ रणनीतिक दृष्टि से अहम क्षेत्रों का विकास करने के भारत के प्रयास तभी सफल हो सकेंगे जबकि वह वैश्विक मूल्य शृंखला के गुणों को सही ढंग से समझता हो।
तमाम अन्य हालिया नीतियों की बात करें तो शुल्क दरों का मामला हो या औद्योगिक नीति का, इन सभी को इस दृष्टि से दोबारा आंका जाना चाहिए। सेमीकंडक्टरों के लिए बनी उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना इसका एक सटीक और बड़ा उदाहरण है। सरकार ने देश में एक नए फैब्रिकेशन संयंत्र के लिए 10 अरब डॉलर की संभावित सब्सिडी की राशि अलग की है। यह कार्यक्रम उस समय रणनीतिक दृष्टि से उपयोगी रहा होगा जब पूरी दुनिया की निगरानी सेमीकंडक्टर आपूर्ति शृंखला की बाधाओं के खतरों पर केंद्रित थी। इसके बावजूद इस व्यवस्था को उच्च लागत वाला संरक्षित घरेलू क्षेत्र नहीं बनाया जाना चाहिए। भारत से गुजरने वाली सेमीकंडक्टर आपूर्ति शृंखला को शेष विश्व के साथ समुचित तरीके से और गहराई से जुड़ा होना चाहिए। इसे डिजाइन के मामले में भारत की तुलनात्मक बढ़त में नजर आना चाहिए। किफायत, रणनीतिक स्वायत्तता और कारोबारी नेटवर्क की हकीकत में संतुलन कायम करना आसान नहीं है। परंतु यह आवश्यक है और सरकार को लचीला और व्यावहारिक रुख अपनाने के लिए तैयार रहना चाहिए।

First Published : January 18, 2022 | 11:07 PM IST